सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Wednesday, December 31, 2008

आने वाला पल जाने वाला है

२००९ का आगमन हो रहा हैं
आप सब को नया साल शुभ हो
हमारे देश मे सदा शान्ति रहे और हम हमेशा हर जरुरत पर एक दूसरे के लिये खडे हो
हर आने वाला साल नई उम्मीदे लाता हैं

पर
बीते साल की यादे भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं
यादो को याद रखेगे तो उम्मीदे भी पूरी होगी
क्युकी
आज जो उम्मीद हैं कल वह ही याद होगी
२००८ को याद करते हुए चलिये चलते हैं २००९ मे
सफर यादो से उम्मीदों का

कुछ नया सा

पुराना कुछ बीत रहा

तो क्या

उसे भूलेंगे नही

कुछ अच्छी चीजे होंगी

और कुछ गलतियों की पोटली

सब को बाँध कर सहेज कर

उस में औ नया एहसास भर देंगे

लड़खडाए कदम फिर से चलेंगे

नए उत्साह के साथ

नई उम्मीद के निम् तले

ताकि पिचली कड़वाहट याद कर

कुछ मीठे रिश्ते बन सके

आने वाले नव पर्व पर कुछ नए

ख्वाबो को अंजाम दे सके ........



नारी समूह की और से सभी को नया साल मुबारक

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Wednesday, December 17, 2008

फिर भी तुम्हें, नहीं करूंगी अशक्त!

राष्ट्र प्रेमी जी की ये कविता अतिथि कवि की पोस्ट के तहत पोस्ट की जा रही हैं । आप भी पढ़े और अपने कमेन्ट दे ।
फिर भी तुम्हें, नहीं करूंगी अशक्त!
मैंने समझकर अपना,
अपनत्व के कारण,
की तुम्हारी सेवा,
तुमको खिलाई मेवा,
स्वयं सोकर भूखे पेट,
सावन हो या जेठ,
तुमने की अर्जित शक्ति
मैं करती रही तुम्हारी भक्ति।
मैंने किया प्रेम से समर्पण
सौंपा तन-मन-धन,
तुम बन बैठे मालिक,
मुझे घर में कैद कर,
पकड़ा दिया दर्पण,
मैं सज-धज कर,
करती रही तुम्हारी प्रतीक्षा
तुमने पूरी की,
केवल अपनी इच्छा।
मैंने ही दी तुमको शिक्षा,
सहारा देकर बढ़ाया आगे
तुम फिर भी धोखा दे भागे,
कदम-कदम पर दिया धोखा,
शोषण करने का,
नहीं गवांया कोई मौका।
मैंने साथ दिया कदम-कदम पर,
अपने प्राण देकर भी,
बचाये तुम्हारे प्राण,
तुमने उसे मानकर मेरा आदर्श,
सती प्रथा थोप दी मुझ पर ।
बना लिया मुझको दासी,
वर्जित कर दी मेरे लिए काशी।
लगाते रहे कलंक पर कलंक,
तुम राजा रहे हो या रंक।
दिया निर्वासन दे न पाये आसन।
स्वयं विराजे सिंहासन।
मुझे छोड़ जंगल में,
चलाया शासन।
दिखावा करने को दिया आदर,
पल-पल दी घुटन,
पल-पल किया निरादर।
नर्क का द्वार कहकर,
घृणित बताया।
शुभ कर्मो से किया वंचित,
भोजन,शिक्षा ,स्वास्थ्य,
संपत्ति व मानव अधिकार,
छीन लिया मेरा, सब कुछ संचित।
पैतृक विरासत तुम्हारी,
मैं भटकी दहेज की मारी,
छीन लिया जन्म का अधिकार,
भ्रूण हत्या कर,
छू लिया,
विज्ञान का आकाश।
क्या सोचा है कभी?
मेरे बिन,
बचा पाओगे जमीं?
तड़पायेगी नहीं मेरी कमी?
मेरे बिन जी पाओगे?
अपना अस्तित्व बचाओगे?
हृदय-हीन होकर
कब तक रह पाओगे?
तुम्हारी ही खातिर,
जागना होगा मुझको,
तुम्हारी ही खातिर,
अर्जित करनी होगी शक्ति,
तुम्हें विध्वंस से बचाने की खातिर,
शिक्षा-धन-शक्ति से,
बनूंगी सशक्त!
फिर भी तुम्हें, नहीं करूंगी अशक्त!


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Monday, December 15, 2008

आज का कटु सत्य!

जीवन भर
वह जीती रही
बड़ों से छोटों तक
सबके लिए ।
ढोती रही
घर के दायित्व
नूतन सृष्टि की
उन्हें जीवन औ' नाम दिया
वे एक प्रतीक बन
आज भी
अपने जीवन में खुश हैं।
वह तो जीवन भर
उनके चेहरे की खुशी में ही
जीती रही और खुश रही।
आज अशक्त,वृद्ध औ' असहाय,
कोई भी नहीं,
सबके अपने जीवन हैं
दायित्व हैं,
सब अपने वक्त् के पहले
विदा कह कर चले गए।
एक नारी की
कल्पना
यहाँ भी मुखरित हुई
एकाकीपन के भयावह आतंक से
ख़ुद को बचने के लिए
जड़ लिए शीशे चारों तरफ
कम से कम एकाकी तो नहीं,
अक्ष ही दिखते रहेंगे
अपने अलावा।
अन्तिम क्षणों की वेदना
किस तरह जी और किस तरह पी
वह जो सृष्टि कर्ता थी
अपने जीवन में
अकेले ख़ुद ही
एक कहानी बना गई.
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Tuesday, December 9, 2008

ममता का सन्मान

दिल दहलानेवाला खौफनाक मंज़र
चारों और से गोलियों की बौछार
और बम के धमाको की दहाड़े
इतनी आवाज़ों में भी उसे सुनाई दी
बस नन्हे मोशे की करुन पुकार
जो उसे बुला रहा था

अपने माता पिता के खून से भरा
उस नन्हें मन को पता न था क्या हुआ ?
अपनी जान की परवाह किए बिना
स्टोर रूम से दौड़ी नॅनी सॅम्यूल
गोलिओंसे बचती छुपती
गोद में उठा लिया मोशे
और भागी जान बचा कर
उस वक़्त मौत के ख़ौफ़ से ज़्यादा
ममता का पलड़ा भारी रहा
ऐसी वीरांगना पर गर्व होता है

नन्हे मोशे की नॅनी सॅम्यूल को इस्राईल के सवोच नागरी
पुरस्कार से सम्मानित किया गया
ऐसी निस्वार्थ ममता को ढेरो बधाई नन्हे मोशे के साथ सभी
की दुआए रहेंगी अपने जान की परवाह किए बिना,अपने खुद के
दो बच्चों की सोचे बिना , और इतनी दहशत में खास कर अपना
आपा ना खोकर सूझ बुझ से काम लेना आसान तो नही होता

Sunday, December 7, 2008

तस्वीर का दूसरा रुख

जब ही कोई औरत कपडे उत्तार कर
तस्वीर अपनी खिचाती हैं
सबको नग्नता उसमे नहीं
उसके काम मे नज़र आती हैं
पर उसकी नग्न तस्वीर
ना जाने क्यों ? ऊँचे दामो मे
मन बहलाव के लिये खरीदी जाती हैं ।
अभी ना जाने और कब तक
मन के कसैले पन को
भूलने के लिये लोग तेरी तस्वीर
अपने घरो , कमरों , दीवारों पर टांगेगे
किसी भी उम्र के हो वो
पर औरत की तस्वीर
यानी एक मन बहलाव का साधन
कभी किताबो मे , कभी पोस्टर मे
और कभी ब्लॉग पर घूमती हैं
तस्वीरे औरतो की

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Wednesday, December 3, 2008

लिपस्टिक पाउडर लगाने वाली भी देश चलाने का जज़्बा रखती है

कल महक की ये कविता नारी कविता ब्लॉग पर आयी हैं , सब से निवेदन हैं की जरुर पढे । दोबारा पोस्ट कर रही हूँ ।

कई बार अपनी क्षमता का
एहसास कराने पर भी
बिना ग़लती के अक्सर
उस पर
उंगलिया उठती है ?

बड़े होकर जो भटकते लोग
किसी
में हिम्मत नही उन्हे सुधारे
याद रखना ऐसो को सिर्फ़ एक नारी
एक मा ही तमाचा
रसीद कर सकती है

कुर्सी पर बैठे ढोल पीटने वालो
सुनाई दे
रही है हमारी आवाज़
लिपस्टिक पाउडर लगाने वाली भी
देश चलाने का जज़्बा रखती
है

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Monday, December 1, 2008

शहीदों को शत-शत नमन

डॉ मीना अग्रवाल जी की ये पोस्ट नारी ब्लॉग से मै यहाँ दे रही हूँ
उन शहीदों को शत-मीना नमन जिन्होंने अपना जीवन देश की खातिर न्योछावर कर दिया. उनके इस ऋण को हम कभी नहीं चुका पाएँगे. वो माता-पिता भी धन्य हैं जिन्होंने ऐसे भारत-रत्न को जन्म दिया. माँ के दर्द को तो एक माँ ही समझ सकती है,राजनीति करने वाले उसकी पीड़ा को क्या समझेंगे.माँ तो अब भी इंतज़ार कर रही है अपने लाडले का . और कह रही है-
छ्त के ऊपर विमान गुज़रा है
कल्पनाएँ निहारती हैं तुझे
अजनबी लोग इसमें हैं लेकिन
मेरी आँखें पुकारतीं हैं तुझे !
माम को तो विश्वास ही नहीं है कि उसका बेटा अब उसके आँसू पोंछने के लिए भी नहीं आएगा. उसका मन तो बार-बार यही कहता है-
तपन बढ़ी है तो तन-मन जला है अब के बरस
शरद की रुत में भी सूरज तपा है अब के बरस
चला गया है जो अश्कों को पोंछने वाला
हमारी आँखों में सूखा पड़ा है अब के बरस !
माँ अपनी अंतिम साँस तक बेटे के लिए शुभकामनाएँ ही भेजती रहती है-
वह अपनी आँखों में उमड़ी घटाएँ भेजती है
वह अपने प्यार की ठंडी हवाएँ भेजती है
कभी तो ध्यान के हाथों, कभी पवन के साथ
वह माँ है, बेटे को शुभकामनाएँ भेजती है !
ऐसी माँ को हृदय की संम्पूर्ण भावनाओं के साथ शत-शत नमन .
मीना अग्रवाल
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Saturday, November 29, 2008

नारी

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नारी
नारी नाम है उजाले का
नारी नाम है जीवन का
नारी नाम है प्रेम का
नारी ऐसी नदी है
जो बहती है निरंतर
देती है गति मानव को
सींचती है रिश्तों को
अपने खून-पसीने से
नारी उगाती है
संबंधों की फसल
अपने श्रम से
वह नहीं माँगती
प्रतिदान
वह तो चाहती है
बस सम्मान
जहाँ फैलती है
स्वर्णिम आभा प्रेम की
और जहाँ लहलहाते हैं
पौधे ममता के
नारी नाम है उस चरित्र का
जो पहुँचाता है
उच्चता के शिखर पर
नारी नाम है उस रोशनी का
जो देती है उजाला जग को
नारी नाम है उस दीपक का
जो जलता है हर क्षण नारी
देती है रोशनी अंधकार को
और तिल-तिल जलकर
मिटा देती है अपना अस्तित्व
पर दीपित करती है
मानवीय आत्मा को
नारी नाम है संगीत का
जो बिखरे स्वरों को
सँजोकर देती है
नया मधुरिम आकार
किसी अप्रचलित राग को
जो जोड़ती है
सितार के उन तारों को
जो टूटे हैं अधिक तानने से
नारी नाम है उस झंकार का
जो जोड़्ती है
उन बिखरे घुँघुरुओं को
जो थक गए हैं थिरकते-थिरकते
उन्हें ममता के धागे में पिरोकर
देती है नई गति
रूपायित करती है
नई ताल और नई लय
जो देती है नई पहचान
मानवता को
जिससे प्रकाशित है
धरती का कण-कण
नारी नाम है उस पुस्तक का
जो जलाती है ज्योति ज्ञान की
नारी नाम है वात्सल्य का
जिसके आँचल तले
पलती है पूरी मानवता
नारी नाम है जीवन-संगीत का
जो होता है झंकृत पल-पल
नारी नाम है उस अस्मिता का
जो देती है एक पहचान
समाज को
नारी नाम है प्रेरणा का
जो करती है प्रेरित
जन-जन को
नारी सागर है प्यार का
जो उमड़ता है पल-पल
और भिगो देता है
सबका तन-मन
नारी नाम है वीरता का
जो फूँक देती है प्राण
वीरों के सोए भावों में
नारी नाम है उस विश्वास का
जो जगा देती है
शक्ति कर्म की
नारी नाम है एसे साथी का
जो देता है सहारा
लड़खड़ाते पाँवों को
नारी नाम है
उस प्रकाश- स्तंभ का
जो देती है नेत्र-ज्योति
दृष्टिहीनों को
खड़ी रहती है
अडिग और अकेली
संघर्ष के क्षणों में भी
नारी नाम है
उस जीवनधारा का
जो गतिमान है सदियों से
जो जीवन-प्रदायिनी है
युगों-युगों से
नारी की इस संपूर्णता को
शत-शत नमन !

डॉ. मीना अग्रवाल्

Thursday, November 27, 2008

शोक और आक्रोश


आज टिपण्णी नहीं साथ चाहिये । इस चित्र को अपने ब्लॉग पोस्ट मे डाले और साथ दे । एक दिन हम सब सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दी ब्लॉग पर अपना सम्मिलित आक्रोश व्यक्त करे । चित्र आभार

Monday, November 24, 2008

बहती बलखाती चंचला

बहती बलखाती चंचला
खुद में एक उन्माद लिए चलती हूँ
या कोई जुनून सवार है हम पर
मिलो मिल की राहें तय करती हुई
मंज़िल-ए-निशा की चाहत में
निकल पड़ी हूँ
एक गहरी उम्मीद के सहारे
इस राह पर चलते हुए हर मोड़ पर
कुछ बदलाव आएगा
मैं कोशिश करती रहूंगी
बिना रुके ,बिना डरे
कुछ हासिल हुआ है
कुछ बाकि ..

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Thursday, November 20, 2008

कर्म करो कुछ ऐसे!

यदि नारी हो
तो क्या?
निर्बल मत बनो,
याचना के लिए
कर मत उठाओ,
कर्म कर उन्हें
सार्थक बनाओ ।
कर्म कभी होता निष्फल नहीं,
कम कभी अधिक भी देता है,
जन्म लेने की यही सार्थक दिशा होगी
ममता का जो सागर
ईश्वर ने दिया है
सिक्त कर प्रेम से
खुशी कुछ चेहरों पर लाओ
कभी इन हाथों से
उठाकर सीने से लगाओ
कभी इन हाथों से
आंसू किसी के सुखाओ
दीप एक आशा का
कर्म कर सबमें जगाओ
ज्योति उनके भी
मन में जलाकर
नई दिशा सबको दिखाओ
सोचो एक दीप जलाकर
प्रकाश कितनों को देता है
स्वयं को मिटा कर
रास्ता दिखा जाता है
हमसे सार्थक वही,
मनुज बनकर हम भी
क्यों न सार्थक हों।

Sunday, November 9, 2008

विश्वास

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विश्वास
तुम किसी को कुछ भी कहो
किसी को डाँटो, प्यार करो
पर मैं कुछ न बोलूँ
मुँह न खोलूँ
और बोलने से पहले
स्वयं को तोलूँ
फिर कैसे जीऊँ !
समाज की
असंगतियाँ और विसंगतियाँ
कब होंगी समाप्त
कब मिलेगा समान रूप से
जीने का अधिकार
रेत होता अस्तित्व
कब लेगा सुंदर आकार
किसी साकार कलाकृति का !
इसी आशा में इसी प्रत्याशा में
जी रही है आज की नारी
कि कोई तो कल आएगा
जो देगा ठंडक मन को
काँटों में फूल खिलाएगा
देगा हिम्मत तन-मन को
जीवन को
खुशियों से महकाएगा
तन में आस
जीने की प्यास और
मन में विश्वास जगाएगा
पूरा है भरोसा
और पूरी है आस्था
कि वह अनोखा
एक दिन अवश्य आएगा !

आखिर क्यों

ये कविता डा.मीना अग्रवाल ने नारी ब्लॉग पर पोस्ट की हैं । इस को मे यहाँ पोस्ट कर रही हूँ , मीना जी के लिये ब्लोगिंग एक नया मीडियम हैं अपनी अभिव्यक्ति का । नारी की सदस्य बनने के बाद ये उनकी पहली पोस्ट हैं । आप सब भी पढे ।

आखिर क्यों
सहती रहती है नारी
शायद इसलिए
कि उसने टूटकर भी
नहीं सीखा है टूटना
लेकिन एक अहम सवाल
कौंधता है
मस्तिष्क में बार-बार
कि कब तक सहेगी
और टूट्ती रहेगी
इसी तरह
जन्म होते ही
समाज के सुधारक
तथाकथित संभ्रांत जन
क्यों देखते हैं बेटी को
निरीह और उदास आँखों से
जन्म पर
क्यों नहीं बजतीं
शहनाइयाँ आँगन में
क्यों नहीं गाए जाते
मंगलगीत और बधाइयाँ
क्यों नहीं बाँटी जाती
मिठाई पूरे गाँव में
आखिर क्यों ?
क्यों नहीं
खेलने दिया जाता
स्वच्छंदता के साथ
बेटों की तरह
क्यों नहीं पढ़ने के लिए
भेजा जाता स्कूल
और यदि
स्कूल भेजा भी गया
तो रहती है उससे
यही अपेक्षा
कि वह घर आकर
कामों में हाथ बटाए
क्यों बेटों को
मिलता है दुलार
दिया जाता है
पौष्टिक आहार
और बेटी को
बचा हुआ भोजन
आखिर क्यों ?
बेटी को
क्यों नहीं दिया जाता
मज़बूत आधार
बराबर का अधिकार
क्यों उसकी इच्छाओं की
पूर्ति नहीं की जाती
विवाह के बाद
क्यों उसकी पहचान
नहीं दी जाती
क्यों समझा जाता है
उसे मशीन
क्यों नहीं होती
उसके पास
पंख फैलाने के लिए ज़मीन
आखिर क्यों ?
समाज के
अत्याचारों का ताप
क्यों सुखा देता है
उसे आँसू
क्या उसके मन में
नहीं उठता है तूफान
क्या उसके अंतरतम में
नहीं है कोई भावना
फिर क्यों
उसकी बात को
किया जाता है अनसुना
क्यों उसे
सबकुछ सहकर भी
चुप रहने के लिए
किया जाता है बाध्य
आखिर क्यों ?
वो टूट्कर भी
कण-कण जोड़ती है
सबको जोड़कर
ग़लत को भी
सही राह पर मोड़ती है
बिखरे हुए परिवार
और फिर समाज को
परस्पर तिल-तिल सहेजती है
फिर क्यों
उसके टूटे तन-मन को
नहीं समेटता ये समाज
नारी की दुश्मन
नारी ही क्यों है आज
क्यों उसके सपने
नहीं ले पाते हैं आकार
क्यों है वह लाचार
क्यों नहीं उसे
बनने दिया जाता है
उन्मुक्त आकाशचारी
क्यों पिंजड़े में बन्द
दूसरों के स्वार्थ की
भाषा बोलने के लिए
मज़बूर है नारी
क्यों उड़ने से पहले ही
काट दिए जाते हैं
उसके नन्हे-नन्हे
कोमल-कोमल पंख
आखिर क्यों ?
ग़लती सबसे होती है
लेकिन उसकी
एक छोटी-सी ग़लती
होती है
हज़ार के बराबर
और पुरुष को
हज़ार ग़ल्तियाँ
करने पर भी
वही स्म्मान वही आदर
आखिर क्यों ?
क्यों है इतना भेद-विभेद
क्यों है इतना दृष्टिभेद
आखिर क्यों ?
जब तक इस जलते हुए
सवाल का उत्तर
नहीं मिलता
जब तक नारी की
आँख के आँसू
बनकर सैलाब
नहीं ले जाते बहाकर
समाज के आडंबरों की
ऊँची-ऊँची गगनचुंबी
अट्टालिकाओं को
तब तक नारी­-मन
रहेगा भटकता
होते रहेंगे अत्याचार
होती रहेंगी भ्रूणहत्याएँ
इसी तरह !

डा. मीना अग्रवाल






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Tuesday, October 28, 2008

शुभ दीपावली!




परमार्थ में जीवन को ही मिटा दे,
दीप सा दधीचि दूसरा हुआ कहाँ?
वह तो जल पूरा गया फिर भी,
हर मन में उजाला हुआ कहाँ?
एक दीप प्रेम का जलाएं,
जो हर मन का कलुष मिटाए,
सूनी आँखों में फिर से ,
एक जीवन ज्योति जलाये,
आओ ऐसी एक नयी दीपावली मनाएं.

हमारे "हिन्दी ब्लॉग समूह" को सपरिवार दीपावली शत-शत मंगलमय हो!

Monday, October 27, 2008

शुभा की कुछ और कविताएं

चिट्ठा चर्चा में अनूप शुक्ला ने `औरतों की कविताएं' पसंद करते हुए उनमें से एक कविता उद्धृत भी की है। उनकी एक व्यंग्य भरी शिकायत मेरी एक पंक्ति पर भी है और उन्होंने कहा है - `औरतों की कवितायें : औरतों की हैं,औरतों के बारे में हैं, औरतों के लिए हैं। मर्द पड़ेंगे तो समझ लें!`
सबसे पहले तो माफी औरतों की कविताओं को औरतों की कहने के लिए। वैसे भी हम गुलामों को कोई भी काम अपने लिए करने की मनाही रही है। अभी तो हमारे उन कामों का भी कोई खाता नहीं है जो सदियों से पुरुषों की सेवा में कए जा रहे हैं। लिखना-पढ़ना तो यों भी हमारे लिए सदियों तक वर्जित रहा। वैसे इन कविताओं को औरतों के लिए कहने के पीछे कोई मंशा नहीं थी। पुरुष वाकई हमारी लिखी चीजें पढ़ना, उन पर विचार करना और इस दुनिया को ज्यादा न्यायसंगत बनाने की लड़ाई में साथ देना चाहें तो इससे बेहतर क्या हो? आखिर जिस बेहतर समाज की लड़ाई हम औरतों के कंधों पर है, वो बेहतर समाज यहां रहने वाले सभों का ही है और इस लड़ाई में जिम्मेदारी भी सभों की बनती है।

रचना ने शुभा के बारे में जानना चाहा है, हालांकि अभी आलोचना की पुरुष दुनिया के पास एसे टूल्स नहीं हैं जो हम औरतों की लिखे-कहे को और उसके पीछे छिपे सार को देख सकें। लेकिन इस पुरुष दुनिया के पास एसे टूल्स बहुतायत में हैं जिनके जरिए वह हर विद्रोही स्वर को अनुकूलित कर लेती है। हम देख सकती हैं कि इन दिनों महिला लेखन के नामपर बहुतायत में एसा लिखा जा रहा है जो पहली नजर में विद्रोह लगता तो है लेकन साहित्य की दुनिया के संचालकों को जरा भी विचलित करने के बजाय सुकून देता है। धुर स्त्री विरोधी कट्टरवादी संघों-जमातों की बात छोड़ दें, स्त्री मुक्ति के मसीहा बने बैठे कितने ही राजेंद्र यादवों (यहां तमाम प्रगतिशील नामवर पुरुषों के नाम बदल-बदल कर पढ़ें) को अपनी छांव में एसा स्त्री लेखन पालने-पोसने का खासा शौक रहा है। सौभाग्य से शुभा की जो भी चीजें इधर-उधर छपीं देखीं, वे संरक्षकों के इस सुकून को भंग करती हैं।


शुभा अलीगढ़ में पैदा हुईं और एमए तक की शिक्षा उन्होंने वहीं पूरी की। 1977 के आसपास के कुछ वर्ष उन्होंने जेएनयू में बिताए। रोहतक (हरियाणा में) के एक कालेज में पढ़ाती हैं। नवजागरण मुहिम में बतौर एक्टिविस्ट हरियाणा के गांवों की खासी खाक छान चुकी हैं और इस वजह से लिखना बुरी तरह प्रभावित रहा है। छपा तो और भी कम है।
बहरहाल, दोस्तों के अनुरोध पर शुभा की कुछ और कविताएं-

आदमखोर
-------


एक स्त्री बात करने की कोशिश कर रही है
तुम उसका चेहरा अलग कर देते हो धड़ से
तुम उसकी छातियां अलग कर देते हो
तुम उसकी जांघें अलग कर देते हो

तुम एकांत में करते हो आहार
आदमखोर! तुम इसे हिंसा नहीं मानते


आदमखोर उठा लेता है
छह साल की बच्ची
लहूलुहान कर देता है उसे

अपना लिंग पोंछता है
और घर पहुँच जाता है
मुंह हाथ धोता है और
खाना खाता है

रहता है बिल्कुल शरीफ आदमी की तरह
शरीफ आदमियों को भी लगता है
बिल्कुल शरीफ आदमी की तरह।


सवर्ण प्रौढ़ प्रतिष्ठित पुरुषों के बीच
----------------------
सवर्ण प्रौढ़ प्रतिष्ठित पुरुषों के बीच
मानवीय सार पर बात करना ऐसा ही है
जैसे मुजरा करना
इससे कहीं अच्छा है
जंगल में रहना पत्तियां खाना
और गिरगिटों से बातें करना।


अकलमंदी और मूर्खता
--------------

स्त्रियों की मूर्खता को पहचानते हुए
पुरुषों की अक्लमंदी को भी पहचाना जा सकता है

इस बात को उलटी तरह भी कहा जा सकता है

पुरुषों की मूर्खताओं को पहचानते हुए
स्त्रियों की अक्लमंदी को भी पहचाना जा सकता है

वैसे इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि
स्त्रियों में भी मूर्खताएं होती हैं और पुरुषों में भी

सच तो ये है
कि मूर्खों में अक्लमंद
और अक्लमन्दों में मूर्ख छिपे रहते हैं
मनुष्यता ऐसी ही होती है

फिर भी अगर स्त्रियों की
अक्लमंदी पहचाननी है तो
पुरुषों की मूर्खताओं पर कैमरा फोकस करना होगा।

Sunday, October 26, 2008

औरतों की कविताएं

ये कविताएं औरतों की हैं,औरतों के बारे में हैं, औरतों के लिए हैं। कवयित्री हैं शुभा। इस सीरीज की एक कविता मैंने अपने ब्लॉग पर डाली थी। अब सारी कविताएं एक साथ, नारी के कविता ब्लॉग पर।

औरतें
औरतें मिट्टी के खिलौने बनाती हैं
मिट्टी के चूल्हे
और झाँपी बनाती हैं

औरतें मिट्टी से घर लीपती हैं
मिट्टी के रंग के कपडे पहनती हैं
और मिट्टी की तरह गहन होती हैं

औरतें इच्छाएं पैदा करती हैं और
ज़मीन में गाड़ देती हैं

औरतों की इच्छाएं
बहुत दिनों में फलती हैं
----------


2-औरत के हाथ में न्याय

औरत कम से कम पशु की तरह
अपने बच्चे को प्यार करती है
उसकी रक्षा करती है

अगर आदमी छोड़ दे
बच्चा मां के पास रहता है
अगर मां छोड़ दे
बच्चा अकेला रहता है

औरत अपने बच्चे के लिए
बहुत कुछ चाहती है
और चतुर ग़ुलाम की तरह
मालिकों से उसे बचाती है
वह तिरिया चरित्तर रचती है

जब कोई उम्मीद नहीं रहती
औरत तिरिया चरित्तर छोड़कर
बच्चे की रक्षा करती है

वह चालाकी छोड़
न्याय की तलवार उठाती है

औरत के हाथ में न्याय
उसके बच्चे के लिए ज़रूरी
तमाम चीजों की गारंटी है।
------------

3- औरत के बिना जीवन

औरत दुनिया से डरती है
और दुनियादार की तरह जीवन बिताती है
वह घर में और बाहर
मालिक की चाकरी करती है

वह रोती है
उलाहने देती है
कोसती है
पिटती है
और मर जाती है

बच्चे आवारा हो जाते हैं
बूढ़े असहाय
और मर्द अनाथ हो जाते हैं
वे अपने घर में चोर की तरह रहते हैं
और दुखपूर्वक अपनी थाली खुद मांजते हैं
-----------

4-औरतें काम करती हैं

चित्रकारों, राजनीतिज्ञों, दार्शनिकों की
दुनिया के बाहर
मालिकों की दुनिया के बाहर
पिताओं की दुनिया के बाहर
औरतें बहुत से काम करती हैं

वे बच्चे को बैल जैसा बलिष्ठ
नौजवान बना देती हैं
आटे को रोटी में
कपड़े को पोशाक में
और धागे को कपड़े में बदल देती हैं।

वे खंडहरों को
घरों में बदल देती हैं
और घरों को कुंए में
वे काले चूल्हे मिट्टी से चमका देती हैं
और तमाम चीज़ें संवार देती हैं

वे बोलती हैं
और कई अंधविश्वासों को जन्म देती हैं
कथाएं लोकगीत रचती हैं

बाहर की दुनिया के आदमी को देखते ही
औरतें ख़ामोश हो जाती हैं।

5-निडर औरतें

हम औरतें चिताओं को आग नहीं देतीं
क़ब्रों पर मिट्टी नहीं देतीं
हम औरतें मरे हुओं को भी
बहुत समय जीवित देखती हैं

सच तो ये है हम मौत को
लगभग झूठ मानती हैं
और बिछुड़ने का दुख हम
खूब समझते हैं
और बिछुड़े हुओं को हम
खूब याद रखती हैं
वे लगभग सशरीर हमारी
दुनियाओं में चलते-फिरते हैं

हम जन्म देती हैं और इसको
कोई इतना बड़ा काम नहीं मानतीं
कि हमारी पूजा की जाए

ज़ाहिर है जीवन को लेकर हम
काफी व्यस्त रहती हैं
और हमारा रोना-गाना
बस चलता ही रहता है

हम न तो मोक्ष की इच्छा कर पाती हैं
न बैरागी हो पाती हैं
हम नरक का द्वार कही जाती हैं

सारे ऋषि-मुनि, पंडित-ज्ञानी
साधु और संत नरक से डरते हैं

और हम नरक में जन्म देती हैं
इस तरह यह जीवन चलता है
----------

6- बाहर की दुनिया में औरतें


औरत बाहर की दुनिया में प्रवेश करती है
वह खोलती है
कथाओं में छिपी अंतर्कथाएं
और न्याय को अपने पक्ष में कर लेती हैं
वह निर्णायक युद्द को
किनारे की ओर धकेलती है
और बीच के पड़ावों को
नष्ट कर देती है

दलितों के बीच
अंधकार से निकलती है औरत
रोशनी के चक्र में धुरी की तरह

वह दुश्मन को गिराती है
और सदियों की सहनशक्ति
प्रमाणित करती है

Sunday, October 12, 2008

नारी - व्यथा

रेखा श्रीवास्तव की ये कविता हम अतिथि कवि की कलम से के तहत पोस्ट कर रहे हैं ।लेखिका रेखा श्रीवास्तव कानपुर की निवासी हैं और हिन्दी ब्लोगिंग मे नयी हैं उनके ब्लॉग पर उनकी ये कविता देखी , संपर्क सूत्र ना होने की वजह से संपर्क नहीं कर सकी । कविता को पढे जरुर और टिप्पणी भी दे की क्यों एक विवाहिता का दर्द इतना गहरा होता हैं ।

नारी - व्यथा

जीवन जिया,
मंजिलें भी मिली,
एक के बाद एक
बस नहीं मिला तो
समय नहीं मिला।
कुछ ऐसे क्षण खोजती ही रही ,
जो अपने और सिर्फ अपने लिए
जिए होते तो अच्छा होता।
जब समझा अपने को
कुछ बड़े मिले कुछ छोटे मिले
कुछ आदेश और कुछ मनुहार
करती रही सबको खुश ।
दूसरा चरण जिया,
बेटी से बन बहू आई,
झूलती रही, अपना कुछ भी नहीं,
चंद लम्हे भी नहीं जिए
जो अपने सिर्फ अपने होते।
पत्नी, बहू और माँ के विशेषण ने
छीन लिया अपना अस्तित्व, अपने अधिकार
चाहकर न चाहकर जीती रही ,
उन सबके लिए ,
जिनमें मेरा जीवन बसा था।
अपना सुख, खुशी निहित उन्हीं में देखि
थक-हार कर सोचा
कुछ पल अपने लिए
मिले होते
ख़ुद को पहचान तो लेती
कुछ अफसोस से
मुक्त तो होती
जी तो लेती कुछ पल
कहीं दूर प्रकृति के बिच या एकांत में
जहाँ मैं और सिर्फ मैं होती।
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Thursday, October 2, 2008

लाईट लो बिटिया , पत्नी बनकर जीवन लाईट होता हैं

आज एक ब्लॉग पर एक कविता पढी और फिर ये लिखा । पत्नी की भावनाओं को हमेशा लाईट ही लिया जाता हैं । ये कविता केवल एक कोशिश हैं पत्नी को लाईट ना समझ कर सीरियस समझने की । और बात अगर मनवानी पड़े तो समझिये की बात मे कुछ ग़लत जरुर हैं क्युकी पत्नी के पास भी एक दिमाग होता हैं सही और ग़लत समझने का । पत्नी आप की दासी नहीं होती की हर बात माने

तुम सदियों से लाईट लेते रहे
पत्नी पर व्यंग करते रहे और
सुधिजन संग तुम्हारे मंद मंद हँसते रहे
घर मे हमको लाकर
व्यवस्था के नाम पर
वो सब हम से करवाया
बिना हम से पूछे की
क्या हमने करना भी चाहा
हमारी पढाई गयी चूल्हे मे
तुम्हारी पढ़ाई से तरक्की हुई
हमारे माता पिता का सम्मान
उनके दिये हुए सामान से
तुम्हारे माता पिता का सम्मान
तुम्हे पैदा करने से
हम चाकर तुम मालिक
घर तुम्हारा बच्चे तुम्हारे वंश तुम्हारा
तुम हो तो हम श्रृगार करे
ना हो तो सफ़ेद वस्त्र पहने
हम पर कब तक व्यंग
और फब्तियां कसोगे
उस दिन समझोगे की
पिता की पीडा क्या होती हैं
जब अपनी बेटी ब्याहोगे
हम तब भी उसको यही समझायेगे
जो हमारी माँ ने हमको समझाया
बिटिया निभा लो जैसे हमने निभाया
समझोते का नाम जिन्दगी हैं
और जिन्दगी जीने का अधिकार
पति का हैं
पत्नी को तो जीवन
काटना होता हैं
लाईट लो बिटिया
पत्नी बनकर जीवन लाईट होता हैं
क्योकि भार तुम्हारा , तुम्हारा पति कहता हैं
की वह ढोता हैं
और
समय असमय व्यवस्था के नाम पर
पत्नी को कर्तव्य बोध कराता हैं
फिर
ख़ुद लाईट हो जाता हैं

Thursday, September 25, 2008

नागफनी

अपने से कमज़ोर
मत समझो दूसरे को
वह कोई गाजर - मूली नहीं
खोद कर निकल लोगे जड़ समेत
फिर
काट कर टुकडे टुकडे कर डालोगे उसके
वह भी है नागफनी
जिस की जड़े मिटटी मे धसीं हैं
उखाड़ने से पहले
काटने से पहले
सोच लो एक बार
तुम्हारा भी हाथ
लहू लुहान हो सकता हैं
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Monday, September 15, 2008

धर्म की परिभाषा

कभी कभी मन कहता हैं
की आओ सब मिल कर
एक साथ
विसर्जित कर दे
हर धर्म ग्रन्थ को
हर मूर्ति को
हर गीता , बाइबल
कुरान और गुरुग्रथ साहिब को
एक ऐसे विशाल सागर मे
जहाँ से फिर कोई
मानवता इनको बाहर
ना ला सके
किस धर्म मे लिखा हैं
की धमाके करो
मरो और मारो
और अगर लिखा हैं
तो चलो करो विसर्जित
अपने उस धर्म को
अपनी आस्था को अपने
मन मे रखो और
जीओ और जीने दो
मानवता अब शर्मसार हो रही हैं
तुम्हारी धर्म की परिभाषा से
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Tuesday, September 9, 2008

ये न कहो कि संघर्ष नाकाम है...

वर्षा की ये पोस्ट नारी ब्लॉग से हटा कर नारी कविता ब्लॉग पर डाल रही हूँ
हमें नारी हमें हक़ के साथ की आर्ष की पर भी बात करनी चाहिए। उनके दिमाग़ में कमज़ोरियों के बीज बोने वाले ताने-बाने पर भी। कमज़ोरियां कम होंगी तो हम ताकतवर होंगी। एक अंग्रेजी कविता जिसका अनुवाद उज्ज्वला म्हात्रे ने किया है, अभी मेरी नज़र उसी कविता पर पड़ी, जिन लोगों ने न पढ़ी हो उनके लिए.....
ये न कहो संघर्ष नाकाम है
कि वो श्रम और वे ज़ख़्म बेकार गए
कि शत्रु थकता नहीं न हारता है
और स्थितियां जैसी थी वैसी ही रहती हैं
-
अगर उम्मीदों ने छला है तुम्हें
आशंकाएं भी तो बेबुनियाद हो सकती हैं
उस धुएं के पार देखो, लड़ाई अब भी जारी है
डटे हैं मैदान-ए-जंग में, कमी बस तुम्हारी है
-
माना कि किनारे पर टूटती, थकी लहरों को देख
लगता है इनका प्रयास कितना विफल है
पर दूर, खाड़ियों और नए रास्तों को चुनकर
दृढ़ लहरें चुपचाप घुस आई हैं

और सिर्फ पूरब की खिड़कियों से ही नहीं आता प्रकाश
जब दिन उगता है
सामने सूरज धीरे, कितने धीरे चढ़ता है
पर पश्चिम की ओर देखो
उसके प्रकाश से धरा प्रदीप्त है
-

Thursday, September 4, 2008

कौन हैं वह जो नारी को प्रतिस्पर्धी समझते हैं ?

पिता कहते हैं
"पुत्री मेरी आगे बढे , तरक्की करे
लालन पालन का वादा मेरा
मै तो बस इतना ही चाहता हूँ "
भाई कहते हैं
"बहिन मेरी आगे बढे , पढे , लिखे ।
नौकरी करे , सुरक्षा का वादा मेरा
मै बस इतना ही चाहता हूँ "
पति कहते हैं
"पत्नी मेरी , नौकरी करे , आगे बढे
सामाजिक व्यवस्था मे बराबरी का वादा मेरा
मै बस इतना ही चाहता हूँ "
फिर
नारी प्रतिस्पर्धा करती हैं पुरूष से
ये किसने कहा और क्यों ??
क्या ढकोसला हैं वह सब जो
एक पिता , भाई और पति
समय समय पर कहते हैं ।
कौन हैं वह जो नारी को
प्रतिस्पर्धी समझते हैं ?


© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Tuesday, September 2, 2008

A poem by Amrita Pretam

चाँद सूरज जिस तरह
एक झील में उतरतें हैं
मैंने तुम्हे देखा नही
कुछ नक्श से उभरते हैं
वायदों को तोड़ती है
एक बार ही ये जिन्दगी
कुछ लोग हें मेरी तरह
फ़िर एतबार करते हें
----नीलिमा गर्ग

Friday, August 29, 2008

क्योंकि मैं लड़की हूं

सचिन मिश्रा जी की ये कविता हम अतिथि कवि की कलम से के तहत पोस्ट कर रहे हैं ।
हिन्दी ब्लॉगर सचिन मिश्रा जी नारी आधरित विषयों पर अपनी राय कमेन्ट के माध्यम से हम तक पहुचाते रहे हैं ।
इस कविता को यहाँ पोस्ट करके हम शायद बस इतना कर रहे के की उनके कलम से निकली "अपनी बात को " एक बार फिर दोहरा रहे हैं ।
क्योंकि मैं लड़की हूं
किसी ने कोख में खत्म कर दिया
किसी ने पंगूड़ा में छोड़ दिया
किसी ने मेरे जन्म पर खाना ही छोड़ दिया
सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं लड़की हूं
इसमें उनका कोई कसूर नहीं
कसूरवार तो मैं हूं
क्योंकि मैं लड़की हूं
भाई शहर में पढ़ेगा, मैं घर से निकलूंगी तो कोई देख लेगा
मैं उनका नाम थोड़े ही रोशन करूंगी
रूखा-सूखा खाकर भी भाई से मोटी हूं
दिन-दूने, रात चौगुने बढ़ती हूं
क्योंकि मैं लड़की हूं.
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Wednesday, August 27, 2008

क्या वो सिर्फ एक देह है ????

नीतीश राज की ये कविता हम अतिथि कवि की कलम से के तहत पोस्ट कर रहे हैं ।
हिन्दी ब्लॉगर नीतीश राज जी नारी आधरित विषयों पर अपनी राय कमेन्ट के माध्यम से हम तक पहुचाते रहे हैं । उनकी कलम से हमेशा एक संवेदन शील बात निकलती रही हैं जिस मे नारी के प्रति एक ऐसा नजरिया देखने को मिला हैं जो कम लोग रखते हैं ।
इस कविता को यहाँ पोस्ट करके हम शायद बस इतना कर रहे के की उनके कलम से निकली "अपनी बात को " एक बार फिर दोहरा रहे हैं ।



अक्सर वो अपने से प्रश्न करती,
क्यों, वो कर्कसता को
उलाहनों को, गलतियों को
झिड़की को सहन करती है।

'क्या वो सिर्फ एक देह है'?

जो कि सबकी निगाहों में
अपने पढ़े जाने का,
शरीर के हर अंग को
साढ़ी और ब्लाउज के रंग को
वक्ष के उभार,
उतार-चढ़ाव को
कूल्हों की बनावट को
होठों की रसमयता को
आंखों की चंचलता को,
क्या कोमल गर्भ-गृह का
सिर्फ श्रृंगार है।

जिसे बीज की तैयारी तक
कसी हुई बेल की तरह बढ़ना है,
फिर उसके, जिसको जानती नहीं
अस्तित्व में अकारण खो जाना है,
कोढ़ पर बैठी मक्खी की तरह।


जिस के ऊपर
फुसफुसाहट सुनती
वो नयन-नक्स
वो देह की बनावट
बोझ जो उसका अपना
चाहा हुआ नहीं,
किसी और की दुनिया
के दर्जी की गलत काट के कारण,
उसके सीने पर चढ़ाया गया
अक्सर वो खुद से प्रश्न करती।

'क्या वो सिर्फ एक देह है'?


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Tuesday, August 26, 2008

मैं

किसी की आँखों का काँटा थी मैं
तो किसी की आँख की किरकिरी थी मैं ,
किसी की नज़रों में खटकती थी मैं
तो शायद ही किसी को भाती थी मैं ,
सबकी चर्चाओं का केंद्रबिंदु थी मैं
तो किसी के व्यंग बाणों का लक्ष्य थी मैं ,
तो किसी की उपहासपूर्ण मुस्कराहट
का केन्द्र थी मैं |
पर वैसे तो सुलभा थी
आलोचानाओं ,उलाहनों विरोधो से
होंसले बुलन्द करती थी मैं ,
अग्निपथ पर चलते हुए
कुंदन सी निखर गई थी मैं ,
वैसी ही थी ,और अब भी
वैसे ही ,वही सुलभा हूँ मैं |

अज्ञात ॥ [किस ने लिखी है पता नही ,पर कहीं पढ़ी है यह सो यहाँ पोस्ट कर दी ]

Thursday, August 21, 2008

प्रगाढ़ संबंधो की पीड़ा

कभी सुख कभी दुःख
कभी आंसू कभी हसीं
वह लेते रहे
वह देती रही
सम्बन्ध प्रगाढ़ रहे
साथ पर ना वह रहे
प्रगाढ़ संबंधो मे
ना बाँट सकने कि
पीड़ा को
वह महसूसती रही
वह खामोश देखते रहे



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Thursday, August 14, 2008

Wednesday, August 13, 2008

वन्दे मातरम् Mother, I bow to thee!

वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्य श्यामलां मातरं .
शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् .
सुखदां वरदां मातरम् .. वन्दे मातरम्

सप्त कोटि कण्ठ कलकल निनाद कराले
निसप्त कोटि भुजैर्ध्रुत खरकरवाले
के बोले मा तुमी अबले
बहुबल धारिणीं नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीं मातरम् .. वन्दे मातरम्

तुमि विद्या तुमि धर्म,तुमि हृदि तुमि मर्म
त्वं हि प्राणाः शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारै प्रतिमा गडि मंदिरे मंदिरे .. वन्दे मातरम्

त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदल विहारिणी
वाणी विद्यादायिनी,नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम् .. वन्दे मातरम्

श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्
धरणीं भरणीं मातरम् ॥ वन्दे मातरम्

बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय


Mother, I bow to thee!
Rich with thy hurrying streams,
bright with orchard gleams,
Cool with thy winds of delight,
Dark fields waving Mother of might,
Mother free.
Glory of moonlight dreams,
Over thy branches and lordly streams,
Clad in thy blossoming trees,
Mother, giver of ease
Laughing low and sweet!
Mother I kiss thy feet,
Speaker sweet and low!
Mother, to thee I bow.

Who hath said thou art weak in thy lands
When the sword flesh out in the seventy million hands
And seventy million voices roar
Thy dreadful name from shore to shore?
With many strengths who art mighty and stored,
To thee I call Mother and Lord!
Though who savest, arise and save!
To her I cry who ever her foeman drove
Back from plain and Sea
And shook herself free.

Thou art wisdom, thou art law,
Thou art heart, our soul, our breath
Though art love divine, the awe
In our hearts that conquers death.
Thine the strength that nervs the arm,
Thine the beauty, thine the charm.
Every image made divine
In our temples is but thine.


Thou art Durga, Lady and Queen,
With her hands that strike and her
swords of sheen,
Thou art Lakshmi lotus-throned,
And the Muse a hundred-toned,
Pure and perfect without peer,
Mother lend thine ear,
Rich with thy hurrying streams,
Bright with thy orchard gleems,
Dark of hue O candid-fair
In thy soul, with jewelled hair
And thy glorious smile divine,
Lovilest of all earthly lands,
Showering wealth from well-stored hands!
Mother, mother mine!
Mother sweet, I bow to thee,
Mother great and free!

Shree Aurobindo

भारत कोकिला सरोजिनी नायडू की कविताये

भारत कोकिला सरोजिनी नायडू की कविताये

PAST AND FUTURE

by: Sarojini Naidu (1879-1949)

      HE new hath come and now the old retires:
      And so the past becomes a mountain-cell,
      Where lone, apart, old hermit-memories dwell
      In consecrated calm, forgotten yet
      Of the keen heart that hastens to forget
      Old longings in fulfilling new desires.
      And now the Soul stands in a vague, intense
      Expectancy and anguish of suspense,
      On the dim chamber-threshold . . . lo! he sees
      Like a strange, fated bride as yet unknown,
      His timid future shrinking there alone,
      Beneath her marriage-veil of mysteries.
Indian Weavers
BY

Sarojini Naidu



WEAVERS, weaving at break of day,
Why do you weave a garment so gay? . . .
Blue as the wing of a halcyon wild,
We weave the robes of a new-born child.

Weavers, weaving at fall of night,
Why do you weave a garment so bright? . . .
Like the plumes of a peacock, purple and green,
We weave the marriage-veils of a queen.

Weavers, weaving solemn and still,
What do you weave in the moonlight chill? . . .
White as a feather and white as a cloud,
We weave a dead man's funeral shroud.

THE SOUL'S PRAYER

by: Sarojini Naidu (1879-1949)

      N childhood’s pride I said to Thee:
      ‘O Thou, who mad’st me of Thy breath,
      Speak, Master, and reveal to me
      Thine inmost laws of life and death.
      ‘Give me to drink each joy and pain
      Which Thine eternal hand can mete,
      For my insatiate soul would drain
      Earth’s utmost bitter, utmost sweet.
      ‘Spare me no bliss, no pang of strife,
      Withhold no gift or grief I crave,
      The intricate lore of love and life
      And mystic knowledge of the grave.’
      Lord, Thou didst answer stern and low:
      ‘Child, I will hearken to thy prayer,
      And thy unconquered soul shall know
      All passionate rapture and despair.
      ‘Thou shalt drink deep of joy and fame,
      And love shall burn thee like a fire,
      And pain shall cleanse thee like a flame,
      To purge the dross from thy desire.
      ‘So shall thy chastened spirit yearn
      To seek from its blind prayer release,
      And spent and pardoned, sue to learn
      The simple secret of My peace.
      ‘I, bending from my sevenfold height,
      Will teach thee of My quickening grace,
      Life is a prism of My light,
      And Death the shadow of My face.’

Monday, August 11, 2008

झाँसी की रानी

आज़ादी के पावन पर्व की शुरुवात इस कविता से हो रही हैं । सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता झाँसी की रानी एक ऐसी कविता जो कभी पुरानी नहीं पड़ सकती । कोई और भी प्रेरणा स्रोत कविता भेजना चाहे तो संपर्क कर सकता हैं । कविता आज़ादी से अम्बन्धित हो और किसी जाने माने कवि की हो ।

झाँसी की रानी

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।

महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।

अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।


पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।


घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,


दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


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Saturday, August 9, 2008

सुलगे मन में जीने की इच्छा सुलगी

जले हुए तन से
कहीं अधिक पीड़ा थी
सुलगते मन की
गुलाबी होठों की दो पँखुडियाँ
जल कर राख हुई थीं
बिना पलक की आँखें
कई सवाल लिए खुली थीं
माँ बाबूजी के आँसू
उसकी झुलसी बाँह पर गिरे
वह दर्द से तड़प उठी...
खारे पानी में नमक ही नमक था
मिठास तो उनमे तब भी नही थी
जब कुल दीपक की इच्छा करते
जन्मदाता मिलने से भी डरते
कहीं बेटी जन्मी तो............
सोच सोच कर थकते
पूजा-पाठ, नक्षत्र देखते ,
फिर बेटे की चाह में मिलते
कहीं अन्दर ही अन्दर
बेटी के आने के डर से
यही डर डी एन ए खराब करता
होता वही जिससे मन डरता
फिर उस पल से पल पल का मरना
माँ का जी जलना, हर पल डरना
बेचैन हुए बाबूजी का चिंता करना
अपनी नाज़ुक सी नन्ही को
कैसे इस दुनिया की बुरी नज़र से
बचा पाएँगें...
कैसे समाज की पुरानी रुढियों से
मुक्त हो पाएँगे....
झुलसी जलती सी ज़िन्दा थी
सफेद कफन के ताबूत से ढकी थी
बिना पलक अपलक देख रही थी
जैसे पूछ रही हो एक सवाल
डी एन ए उसका कैसे हुआ खराब
बाबूजी नीची नज़र किए थे
माँ के आँसू थमते न थे
अपराधी से दोनो खड़े थे
सोच रहे थे अभिमन्यु ने भी
माँ के गर्भ में ज्ञान बहुत पाया था
गार्गी, मैत्रयी, रज़िया सुल्तान
जीजाबाई और झाँसी की रानी ने
इतिहास बनाया
इन्दिरा, किरनबेदी, लता, आशा ने
भविष्य सजाया
फिर हमने क्यों न सोचा....
काश कुछ तो ज्ञान दिया होता...
समाज के चक्रव्यूह को तोड़ने का
कोई तो उपाय दिया होता....
माँ बाबूजी कुछ कहते उससे पहले
दोनो की आँखों से
पश्चाताप के दो मोती लुढ़के
उसके स्याह गालों पर ढुलके
उस पल में ही जलते तन में
अदभुत हरकत सी हुई
सुलगे मन में जीने की इच्छा सुलगी
उस उर्जा से शक्ति गज़ब की पाई
नए रूप में नए भाव से
मन की बगिया महकी !

( जिन कविताओं को पढ़कर इस रचना का जन्म हुआ , सभी उर्जा स्त्रोत जैसी यहीं कहीं छिपीं हुई हैं)
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Friday, August 8, 2008

ज्वलनशील नारियाँ

घुघुती बासूती जी का नाम परिचय का मोहताज नहीं हैं । निरंतर नारी आधारित विषयों पर लिख रही हैं और तीखा और आइने की तरह साफ़ । उनकी ये कविता बालकिशन जी की कविता को पढ़ने के बाद उनके कलम से निकली हैं । कविता अतिथि कवि की कलम से के तहत डाली जा रही हैं । आशा हैं लोगो को जरुर पसंद आयेगी ।


ज्वलनशील नारियाँ

नारियों के,
भारतीय नारियों के जलने पर
क्यों अफसोस है
वे तो सदा से ज्वलनशील रही हैं
उसमें न हमारा कोई दोष है,
नहीं तो कोई
उसके जीवित जलने की कल्पना
भी कैसे करता?
तब, जब हम चला रहे थे
अग्नि बाण
जब उत्कर्ष के चरम पर था
हमारा इतिहास
तब भी माद्री बन रही थी
जीवित मशाल।
तब जब हम थे भाग रहे
मुगलों से मुँह छिपा
जब पतन की गर्त में था
हमारा इतिहास
तब भी हम गौरान्वित थे,
क्या हुआ जो हम
न बचा सके अपनी
बेटियों की लाज,
ब्याह रहे थे उन्हें मुगलों से
पाने को कुछ स्वर्ण ग्रास
तब भी पत्नियाँ तो थीं हमारी
सीता, सती व सावित्री
कूद रहीं थीं पद्मिनियाँ
जलने को जौहर की आग में।
फिर जब बन रहे थे
पढ़ अंग्रेजी
जैन्टलमैन बाबू हम
तब भी इन ज्वलनशील नारियों
ने डुबाया था नाम देश का
आना पड़ा था इक
राजा राममोहन रॉय को,
जब भी कोई भद्र
मरणासन्न बूढ़ा खोलता था
करवा कन्यादान
किन्हीं नन्हीं बालाओं के
माता पिता के स्वर्गद्वार
तब उसके मरने पर
बैठ जातीं थीं चिता पर
ये नन्हीं बालाएँ
प्यार में उस वृद्ध के।
आज जब हम
दौड़ में बहुत आगे हैं
हमने आइ टी में रचा है
इक नया इतिहास
तब भी क्या करें
ये ज्वलनशील नारियाँ हमारी
कभी भी
इक माचिस की तीली की
छुअन से जल जाती हैं,
हम नहीं चाहते परन्तु ये
न जाने क्यों भस्म हो
जल मर जाती हैं?
हम भी तो हैं फूँकते
न जाने कितने अरब
सिगरेट और बीड़ियाँ
क्या जली है मूँछ भी
कभी गलती से हमारी आज तक?
फिर न जाने क्या गलत है
डी एन ए में
भारतीय ही नारी के
क्यों ज्वलनशील है वह
हम नहीं हैं जानते।


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Thursday, August 7, 2008

मुझे मत जलाओ

बाल किशन जी की ये कविता हम अतिथि कवि की कलम से के तहत पोस्ट कर रहे हैं ।
हिन्दी ब्लॉगर बाल किशन जी यदा कदा नारी आधरित विषयों पर लिखते रहे हैं । इस कविता को यहाँ पोस्ट करके हम शायद बस इतना कर रहे के की उनके कलम से निकली "अपनी बात को " एक बार फिर दोहरा रहे हैं ।
आप जरुर पढे और अपना कमेन्ट भी दे । किसी ने सही ही कहा हैं कविता साहित्यकार की जागीर नहीं है , कविता आत्मा से आती हैं और आत्मा को भिगो जाती हैं । साहित्यकार के पास सुंदर शब्दों का भण्डार होता हैं जो मन के भावो को "मीटर" मे बंधता हैं । शब्दों को बांधने पर क्या मन को बंधा जा सकता हैं , पता नहीं पर कविता बहुत कुछ कह रही हैं सो सुने बालकिशन जी के शब्दों की आवाज ।

मुझे मत जलाओ!

एक दिन कि बात है शान्ति की खोज में भटकता
मैं भूतों डेरे से गुजर रहा था
सहसा मैंने सुनी एक अबला की चित्कार
करुण स्वर में पुकार रही थी वो बारम्बार
मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ!

मैं दौड़ कर पंहुचा उस पार
कुछ समझा कुछ समझ नही पाया
करुण से भी करुण स्वर में
सुनी मैंने करुना की पुकार
मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ!

देखा उधर तो देखता ही रहगया एक बार
एक चिता थी जल रही
दूसरी को वे कर रहे थे जबरदस्ती तैयार
मैंने क्रोध से पूछा
ये तो मर गया पर ये किसलिए तैयार
एक बोला- यह उसकी पत्नी है
इसलिए इसे जलने का अधिकार
और ये जलने को तैयार
कुछ देर बाद ये जल जायेगी
फ़िर अमर....... कहलाएगी.

दूसरा बोला- जी कर भी क्या करेगी
कभी चुडैल, कभी डायन तो
कभी कुलभक्षानी के पहनेगी अलंकार
इसलिए जलना ही इसकी मुक्ति का आधार
और ये जलने को तैयार

तीसरा बोला- जलना तो इसकी किस्मत है
कभी दहेज़ के लिए जलेगी,
कभी सतीत्व की गरिमा पाकर
करेगी इस संसार पर उपकार
इसलिए ये जलने को तैयार.

क्रोध हवा हुआ भय मन में समाया
आत्मा काँप उठी बदन थरथराया
कुछ सोच ना सका, कुछ कह ना सका ,कुछ कर ना सका
एक कीडे की भांति रेंगता घर लौट आया.

अब तो शायद हर रोज सुनता हूँ ये चित्कार, ये पुकार
और सिर्फ़ सोचता भर हूँ कि
कंही कुछ खो सा गया है।
कंही कुछ खो सा गया है।
कंही कुछ खो सा गया है.

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भ्रूण का वक्तव्य

भूर्ण हत्या सबसे बड़ा पाप है ..आज अनुराग अन्वेषी की कविता इसी के बारे में आज मेहमान कवि के रूप में यहाँ दी जा रही है |
अपने विचार जरुर वयक्त करें |
ओ मां,
तुम ख़ुद स्त्री हो
इसलिए जानती हो
इस कटखने समाज में
पल-बढ़ रही स्त्री का दर्द।

चूंकि इस वक्त मैं
तुम्हारे भीतर पल रही हूं
इसलिए जान भी रही हूं
समाज के इस कड़वे स्वाद को
और आज
तुम्हारी उस हताशा को भी
मैंने महसूसा
जब तुम्हें पता चला
कि तुम्हारे भीतर पलता भ्रूण
स्त्रीलिंगी है।

ओ मां,
मैं जानती हूं
कि घर की माली स्थिति
खराब है
और मेरे लिए दहेज की चिंता,
समाज के बिगड़ैलों से
मेरी हिफाजत का तनाव...
से घबराकर तुम
मुझे जन्म देना नहीं चाहती

लेकिन मां,
शायद यह
तुम्हें नहीं पता होगा
कि मैं
तुम्हारे अंतरंग क्षणों की साक्षी
बन चुकी हूं
तुम मेरे उस दर्द को भी
नहीं जान सकती
जब तुमने पिता से कहा
कि तुम्हारे गर्भ में
लड़की है और उसे तुम जन्म...

लेकिन मां,
इन सबके बावजूद
मुझे अपनी कोख से जन्म दो न!

अनुराग अन्वेषी
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Wednesday, August 6, 2008

गांधारी की पीड़ा

क्यूँ नहीं कोई समझा मेरी पीड़ा
जब मैने आँख पर पट्टी बाँध कर
किया था विवाह एक अंधे से ।
पति प्रेम कह कर मेरे विद्रोह को
समाज ने इतिहास मे दर्ज किया ।
और सच कहूँ आज भी इस बात का
मुझे मलाल हैं कि ,
मेरी आँखों की पट्टी का इतिहास गवाह हैं
पर
ये सब भूल गए कि

मैने विद्रोह का पहला बिगुल बजाया था
बेमेल विवाह के विरोध मे ।
मेरी थी वो पहली आवाज
जिसको दबाया गया
और इतिहास मे , मुझे जो मै नहीं थी
वो दिखाया गया ।

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Friday, August 1, 2008

क्या शीर्षक दूं इस जिन्दगी की जी हुई सचाई को , नहीं जानती

पिता की मृत्यु के बाद
आया बेटा विदेश से
और बोला माँ से साधिकार
" नहीं रहोगी अकेले तुम
अब यहाँ । तुम अब मेरे
साथ चलोगी "
आँखों मे आशिशो के
आँसू भर कर माँ ने
सर पर हाथ रखा और कहा
" मै कहाँ जाऊंगी बेटा
इस घर का क्या होगा ?
जिसे मैने तुम्हारे पिता
के साथ बनाया है । "
बेटे ने कहा
" माँ अब इस मकान को
रख कर हमे क्या करना है ?

बेच दूँगा मै इसे
सब कागज तैयार है
तुमको बस दस्तखत करने है
मेरे रहते क्यो परेशान हों तुम ? "
वर्षो से जिनके साथ रही हूँ
एक बार उन पड़ोसियो से भी
राय लेलू ये सोच कर
पड़ोस मे गयी माँ
बोले पड़ोसी
" आप तो तकदीर वाली हों
आज कल तो बच्चे पूछते नहीं है
जाओ कुछ बेटे का भी सुख उठाओ
वेसे तकलीफ तो
हम यहाँ भी नहीं होने देते
सालो के सुख दुःख साथ निभाये है
बाक़ी साल भी निभाते
पर आप जाओ
राय यही है हमारी "
माँ के घर को
अपना मकान कह कर
बेचा बेटे ने और पुत्र धर्म
का पालन करते हुये
माँ का टिकट बनवाया
और अपने साथ ले गया
कुछ १२ घंटो बाद
पड़ोसी के घर पर
फ़ोन की घंटी बजी
एअरपोर्ट से पुलिस का फ़ोन था
एक वृद्धा पिछले १२ घंटो से
एअरपोर्ट के विसिटर लाउंज मे
बेठी है उसके पास कोई पासपोर्ट
कोई टिकट और पैसा नहीं है
उसका नाम किसी फ्लाईट मे भी नहीं है
ज्यादा कुछ नहीं बोल पा रही है
अपने बेटे का जो नाम बता रही है
वह सिंगापूर एयरलाइंस से
९ घंटे पहले जा चूका है
उसमे भी इनका कोई नाम नहीं था
आप का फ़ोन नंबर भी
बड़ी मुश्किल से बताया है
तुरंत जाकर पड़ोसी उन्हे घर ले आये
और पिछले दो साल से
अपने बिके हुए घर के पड़ोस मे
बेबसी के आसुओ के साथ
रह रही है एक माँ
और पड़ोसी अपना धरम निभा रहें हें

सांत्वना देने आयी दूसरी माँ ने कहा
मेरी बेटी ने मेरी फ डी अपने खाते
मे जमा कर ली और पूछने पर कहा
" मर जाओगी तो भी तो
मुझे ही मिलगा "
बच्चे तरक्की करते जा रहें हें
पहले माँ बाप को हरिद्वार मे
भूल जाते थे
अब एअरपोर्ट पर भूल जाते है
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Thursday, July 31, 2008

कोख से

कवि कुलवंत जी की ये कविता हम अतिथि कवि की कलम से के तहत पोस्ट कर रहे हैं । जो व्यथा इस कविता मे हैं वो श्याद कवि कुलवंत जी जैसे संवेदन शील की कलम से ही शब्द पाती हैं । पढे जरुर

"कोख से
(परिचय - एक गर्भवती महिला अल्ट्रासोनोग्राफी सेंटर में भ्रूण के लिंग का पता कराने के लिए जाती है। जब पेट पर लेप लगाने के बाद अल्ट्रासाउंड का संवेदी संसूचक घुमाया जाता है, तो सामने लगे मानिटर पर एक दृष्य उभरना शुरू होता है। इससे पहले कि मानिटर में दृष्य साफ साफ उभरे, एक आवाज गूंजती है। और यही आवाज मेरी कविता है - 'कोख से' । आइये सुनते हैं यह आवाज -

माँ सुनी मैने एक कहानी !
सच्ची है याँ झूठी मनगढ़ंत कहानी ?
.
बेटी का जन्म घर मे मायूसी लाता,
खुशियों का पल मातम बन जाता,
बधाई का एक न स्वर लहराता,
ढ़ोल मंजीरे पर न कोई सुर सजाता ! माँ....
.
न बंटते लड्डू, खील, मिठाई, बताशे,
न पकते मालपुए, खीर, पंराठे,
न चौखट पर होते कोई खेल तमाशे,
न ही अंगने में कोई ठुमक नाचते। माँ....
.
न दान गरीबों को मिल पाता,
न भूखों को कोई अन्न खिलाता,
न मंदिर कोई प्रसाद बांटता,
न ईश को कोई मन्नत चढ़ाता ! माँ.....
.
माँ को कोसा बेटी के लिए जाता,
तानों से जीना मुश्किल हो जाता,
बेटी की मौत का प्रयत्न भी होता,
गला घोंटकर यां जिंदा दफ़ना दिया जाता ! माँ....
.
दुर्भाग्य से यदि फ़िर भी बच जाए,
ताउम्र बस सेवा धर्म निभाए,
चूल्हा, चौंका, बर्तन ही संभाले जाए,
जीवन का कोई सुख भोग न पाए ! माँ.....
.
पिता से हर पल सहमी रहती,
भाईयों की जरूरत पूरी करती,
घर का हर कोना संवारती,
अपने लिए एक पल न पाती ! माँ....
.
भाई, बहन का अंतर उसे सालता,
हर वस्तु पर अधिकार भाई जमाता,
माँ, बाप का प्यार सिर्फ़ भाई पाता,
उसके हिस्से घर का पूरा काम ही आता ! माँ....
.
किताबें, कपड़े, भोजन, खिलौने,
सब भाई की चाहत के नमूने,
माँ भी खिलाती पुत्र को प्रथम निवाला,
उसके हिस्से आता केवल बचा निवाला ! माँ....
.
बेटी को मिलते केवल ब्याख्यान,
बलिदान करने की प्रेरणा, लाभ, गुणगान,
आहत होते हर पल उसके अरमान,
बेटी को दुत्कार, मिले बेटे को मान ! माँ....
.
शिक्षा का अधिकार पुत्र को हो,
बेटी तो केवल पराया धन हो,
इस बेटी पर फ़िर खर्चा क्यों हो ?
पढ़ाने की दरकार भला क्यों हो ? माँ....
.
आज विज्ञान ने आसान किया है,
अल्ट्रा-सोनोग्राफ़ी यंत्र दिया है,
बेटी से छुट्कारा आसान किया है,
कोख में ही भ्रूण हत्या सरल किया है ! माँ...
.
माँ तू भी कभी बेटी होगी,
इन हालातों से गुजरी होगी,
आज इसीलिए आयी क्या टेस्ट कराने ?
मुझको इन हालातों से बचाने ! माँ....
.
माँ यदि सच है थोड़ी भी यह कहानी,
पूर्व, बने मेरा जीवन भी एक कहानी,
देती हूँ आवाज कोख से, करो खत्म कहानी,
करो समाप्त मुझे, न दो मुझे जिंदगानी।
करो समाप्त मुझे, न दो मुझे जिंदगानी।
करो समाप्त मुझे, न दो मुझे जिंदगानी।
.
कवि कुलवंत सिंह

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Tuesday, July 29, 2008

हम किराये पर लेते हें विदेशी कोख

हम बहुत तरक्की कर रहें हें
पहले बेटियों को मारते थे
बहुओ को जलाते थे
अब तो हम
कन्या भ्रुण हत्या करते है
दूर नहीं है वो समय
जब हम फक्र से कहेगे
पुत्र पैदा करने के लिये
हम किराये पर लेते हें
विदेशी कोख

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Monday, July 28, 2008

स्वयंसिद्धा

मेरे लिये जरूरी नहीं है
तुम्हारे सुर में सुर मिलायूं
तुम्हारी हां को स्वीकारूं
तुम्हारे तय किये निर्णय मानूं
तुम्हारे कंधे का सहारा लूं
तुम्हारी राह तकूं
क्योंकि
अपने अंदर की स्वयंसिद्धा मैं पहचान गई हूं
तुम्हें भी जान गई हूं
मौका पड़े तो भरी सभा में
देख सकते हो मेरा चीर हरण
इक जरा सी बात पर
दे सकते हो जगलों की भटकन

मनविंदर भिंभर

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Sunday, July 27, 2008

इक्सवी सदी की रहनुमा है

नन्ही आँखे खुली
बिटर बिटर देख मुस्कराई
बढ़ने लगी अमर बेल सी
माँ देख कभी हुई चिंतित
कभी दिल से दुआ निकल आई

लगी सिखाने उसको वही फ़र्ज़ सारे
जो कभी थे उसको अपनी माँ से
देने लगी वही उपदेश जो मिले थे उसको माँ से

सुन के उसकी बेटी मंद मंद मुस्कराई
फ़िक्र करो न माँ तुम मेरी
मैंने अपनी ज़िंदगी
अपने इरादों से है सजाई


भूल गई माँ कि उसकी बेटी
इक्सवी सदी की रहनुमा है
जिसे पता है अपने अधिकारों का
और मंजिल का जानती हर निशाँ है
जोश है उस में ,उमंग है उसमें
हर ज़ंग को जीतने का जज्बा है

अपने पक्के इरादों से
आसमान को छू के आना है
पी के अपने आंसू ख़ुद ही
यह जीवन नही बिताना है
हटा देने हैं अपने जीवन के कांटे
और इस ज़िंदगी के हर लम्हे को
अपने माप दंड से सजाना है !!
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Saturday, July 26, 2008

मैं

मैं
मैं मास्टर चाबी हूँ,
जब असल चाबी कहीं इधर उधर हो जाती है,मैं काम आती हूँ,
मैं वो थाली हूँ,
जिस में सहानुभुती के कुछ ठीकरे
बड़े सलीके से सजा कर परोसे जाते हैं,
मैं वो लकड़ी हूँ,
जो साँप पीटने, टेक लगाने के काम आती हूँ,
कुछ न मिले, तो हाथ सेंकने के काम आती हूँ,
मैं ऑले में सजी धूल फाकँती गुड़िया हूँ,
जिस पर घर वालों की नजर मेंहमानों के साथ पड़ती है,
मैं पैरों में पड़ी धूल हूँ,
जो ऑधीं बन कर अब तक तुम्हारी आखों में नहीं किरकी,
मैं कल के रस्मों रिवाज भी हूँ, और आज का खुलापन भी,
मैं 'आजकल' हूँ,
जिसके 'आज' के साथ 'कल' का पुछल्ला लगा है,
जिसे जब चाहा 'आज' के आगे रख दिया,
मैं आकड़ों का हिस्सा हूँ,
पर कैसे कह दूँ कि हाड़ माँस नहीं,

कविता प्रविष्टिया भेजे

सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता अगर आप लिखते हैं तो इस ब्लॉग पर भी डाले । संपर्क सूत्र दिया हैं ब्लॉग मे , कविता ईमेल करे आप के नाम से और आपके ब्लॉग लिंक के साथ डाली जायेगी
धन्यवाद

Wednesday, July 23, 2008

वैदेही ने जो किया वह तुम ना करना

वैदेही ने जो किया
वह तुम ना करना
कोई भी अगर लाछन
तुम्हारे चरित्र पर लगाए
तो अब अग्नि परीक्षा
तुम ना देना
पति घर निकला भी दे
तब भी घर
तुम ना छोड़ना
ताकि फिर कोई लव कुश
घर से बाहर ना पैदा हो
और फिर कोई वैदेही
धरती मे ना समाये
और हाँ फिर किसी राम
को यज्ञ किसी सीता की
मूर्ति के साथ ना करना पडे
रामायण एक और रची जाये
या ना रची जाए
राजा अपना धरम निभाए
या ना निभाए
तुम अपना धर्म निभाना
आने वाली सीताओं के लिये
मार्ग प्रशस्त करती जाना

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Sunday, July 20, 2008

स्वयं को खोजने का हक नहीं है मुझे?

पैदा हुई तो बेटी हो गई
बड़ी हुई तो बहन हो गई
ब्हायी गई तो पत्नी हो गई
घर की लक्ष्मी हो गई
फिर सौभाग्यवती हो गई
क्यों कि मैंने ओढ़ ली जिम्मेवारियों की चुनरी
इन सब में मैं कहां थी?
इसका जवाब खोजना चाहा तो
न बेटी-बहन रही न पत्नी रही
न सौभाग्यवती रही
न घर की लक्ष्मी रही
स्वयं को खोजने का हक नहीं है मुझे?

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एक और औरतो की पीढी

सदियों से मानसिक रूप से परतंत्र
नही उबर पाती हैं
अपनी इस मानसिकता से
जो अधिकार हक़ से उसके हैं
उनको पाने के लिये छल करती हैं
सदियों से छल ही तो करती आयी हैं
पर ये भूल जाती हैं कि हर छल मे
छली वही जाती हैं
सोचती हैं पति के अहम् को बढ़ावा दे दूँ
उससे डर कर रहने का नाटक कर लूँ
क्या मेरा जायेगा , जीवन मेरा तो
सुख सुविधा से कट जायेगा
कभी क्यो जीवन जीने का नहीं सोचती
त्रिया चरित्र का लाछन ले कर
क्या कभी जीवन जीने का सुख
वो पाएगी या एक और
औरतो की पीढी
बिना अधिकार अपने भोगे
दुनिया से जीवन काट कर चली जायेगी

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Friday, July 18, 2008

अपना घर

एक घर मे लेती हैं जनम
मानी जाती हैं
धरोहर किसी दूसरे घर की
जाती हैं दुसरे घर
शिक्षाओ कर्तव्यो मे जकडी हुई
दूसरी का वंश बढ़ाने के लिये ।
पति और बच्चो के बीच
बनती हैं सीढ़ी
एक चढ़ता हैं , दूसरा उतरता हैं
पर सीढ़ी हट नहीं सकती ।
कर्तव्य बोध मे बंधकर
अस्तित्व के लिये छटपटाती हैं ।
जिस घर मे जनम लिया
ना वह अपना
जिस घर मे आयी
न वह अपना ।
कर्तव्य की बेडियाँ
अस्तित्व से टकराती हैं
भड़क उठती हैं ज्वाला
कहीं किसी कलम से
निकलेगे जब चिंगारियों के शब्द
तभी नारी रख पायेगी
अपने घर की नींव
तभी बचा पाएगी
अपना घर , उसका अपना घर ।

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पूर्णमासी का चांद






देखो
अब तुम ये मत कहना
मैं चांद को न देखूं
बरसती चांदनी को निहारना छोड़ दूं
मुझे मत रोको
करने दो मुझे भी मन की
आज का चांद मैं देखूंगी
पूर्णमासी का चांद
बरसती चांदनी मैं निहारूंगी
तुमको गर ये सुहाता है
तो आओ मेरे संग बैठो
लेकिन मुझे मत रोको
करने दो मुझे भी मन की
मुझे मत रोको


मनविंदर भिम्बर


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Thursday, July 17, 2008

एक संवाद

अनैतिकता बोली नैतिकता से
क्यो इतना इतराती हो
मेरे प्रेमी के साथ रहती हो
और पति है वह तुम्हारा
बार बार मुझे ही समझाती हो
कभी मेरी तरह अकेले रह कर देखो
अपने सब काम खुद करके देखो
पुरुष को प्यार सिर्फ और सिर्फ
उसके प्यार के लिए कर के देखो
सामाजिक सुरक्षा कवच
पुरुष को तुम बनाती है
समाज मे अनैतिकता

तो तुम भी फेलाती हो
फिर बार बार
नैतिकता का पाठ
मुझे ही क्यो पढाती हो ??

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Wednesday, July 16, 2008

सुनती हो जी

मां व्यस्त रहती थीं सुबह से
घर के कामों को निपटाने में
हमारी किताबें लगाने में
बाबू जी की आफिस की तैयारी में
उनकी बिखरी चीजों को समेटने में
उनकी कमीज में बटन टांकने में
सांझ को जब बाबू जी आते
और हम घर सिर पर उठाते
तो बाबू जी कहते,
सुन रही हो
आयो तुम भी बैठो कुछ देर को
आती हूं जी
कुछ चाहिए है आपको
पूछ कर मां लौट आती
इतना कह कर मां लग जाती अगले काम में
आज मां नहीं है हमारे बीच
बाबू जी हैं
अब कोई उनके बटन नहीं टाकता है
बाबू जी अकसर आपने टूटे बटन को छू कर
एक आह सी भरते हैं
और मन में बुदबुदाते हैं
सुनती हो जी
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सत्य कथा !

मेरे पास भी सपने थे,
थीं रूमानी कल्पनाएँ....
आँखें बंद करके पांव में पाजेब डाल
चलती थी- छुन छुन मैं भी!
होठों पर गीत मचलते थे,
आंखों से ख्वाब टपकते थे!
कई बार घूँघट में चेहरे को छुपाया था
और अंदाज से हटाया था-
मुझे देख आइना भी मुस्कुराया था.......
दिल धड़का था ,
जब वो आया था.....
पल-पल की धड़कनें ,
कानों में गूंजें थे -
दिल डर गया !
आनेवाला चिल्लाया 'वो हस्र करूँगा कि सारी दुनिया देखेगी'
आंखों से दहशत आंसू बन टपके थे!
'क्यूँ?'
एक प्रश्न बन होठों पे उतरा था.....
पर हर प्रश्न पर
दाता ने मारा था!
दाता?!?
कहता था,
'मेरे टुकडों पर पलती है ,
और जुबान खोलती है....'
...........
माँ को याद करने की मनाही थी,
भाई-बहन के नाम पर बंदिशें थीं
बाकि रिश्ते-शक के दायरे में रहे....
परे इसके-
उसका भाई , मेरा पीछा करता रहा
अपनी वहशी आंखों से मुझे घूरता रहा!
अपने दाता को बताया तो ,
खाना हुआ बंद और सज़ा सुनाई गई,
वहशी से माफ़ी मांगे जाने पर ही टुकडा नसीब होगा.....
आठ महीने के गर्भ में ,
भूख से निजात पाने को,
नई कोपल की खातिर-
मैंने मांगी थी माफ़ी!
जब गोद में आई खुशियाँ,
उसको दाता ने छिना था!
और हसरत देख आंखों में मेरी-
जान की हद तक मारा था!
बच्चे को ख़ुद से दूर देख,
मैंने काल का रूप लिया...........
एक छवि की बाँध से बाहर आने में
कई साल लगे!
पर जब निकली बाहर तो,
सर उठाकर ही चली,
जिस पहचान से दूर रही थी,
वो पहचान फिर मुझे मिली.......
जिसने भी ऊँगली उठाई,
उसके घर कोहराम हुआ,
माँ की रक्षा में ख़ुद शिव ने,
मेरे घर में वास लिया.......
तुम मानो या न मानो,
है ये बिल्कुल सत्य कथा!!!!!!!!!!!!!!!!!
एक-एक क़दमों के निशाँ,
कहेंगे मेरी आत्मकथा............

Monday, July 14, 2008

क्यो टूटते है रिश्ते

होता है हर रिश्ता एक तरफ़ा
एक दे देता है एक लेता है
जब देने वाले के पास
कुछ नही बचता
तो लेने वाला
चला जाता है
रिश्ता ही लेकर
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Sunday, July 13, 2008

कुछ प्रश्न

कुछ प्रश्न उठ रहे हैं
मेरे ज़हन में--
उत्तर दोगे?
सच-सच
तुम्हारी दृष्टि में
प्रेम क्या है
किसी से जुड़ जाना
या उसे पा लेना
वैसे पाना भी एक प्रश्न है
उसके भी कई अर्थ हैं
कैसे पाना--
शरीर से- या मन से
यदि शरीर से--
तो एक दूसरे को पाकर भी
परिवार पूर्ण क्यों नहीं हो पाते-
यदि मन से--
तो सारा आडम्बर क्यों -
इन चिरमिराते साधनों से
तुम किसे जीतना चाहते हो-
उस मन को-
जो स्वछन्दता भोगी है
या उस तन को
जो भुक्तभोगी है ?
सोचो तुम्हारा
गंतव्य क्या है ?
ये व्याकुलता
ये तड़प -
किसके लिए है ?
यदि कुछ पाना ही नहीं
तो मिलें क्यों ?
सब कुछ तो मिल रहा है
सामीप्य,संवेदना
साहचर्य और प्रेम भी
फिर क्या अप्राप्य है?
क्यों बेचैन हो?
मैं तो सन्तुष्ट हूँ
जो मिल रहा है
उससे पूर्ण सन्तुष्ट
हाँ कुछ इच्छाएँ जगती हैं
किन्तु मैं इन्हें
महत्व नहीं देती
मेरी दृष्टि में
ये मूल्यहीन हैं
मेरा प्राप्य
आत्मिक सुख है
मैं उस सीमा पर
पहुँचना चाहती हूँ
जिसके आगे मार्ग
समाप्त हो जाता है
मेरी आक्षाएँ असीम हैं
बोलो चलोगे ?
दोगे मेरा साथ ?
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हवा का संकेत समझो

हवा का संकेत समझो
औरत का मन समझो
गये वक्त की बातें हैं जब
मेरी पंसद तुम्हारी पसंद थी
मेरी बातें तुम्हारी बातें थी
मेरे गीत तुम्हारे गीत थे
मेरा मौसम तुम्हारा मौसम था
फिर एक दिन
सब कुछ बदल गया
तुमने पसंद जुदा कर ली
बातें परायी कर लीं
गीत नये सजा लिये
मौसम भी बदल गया
अब मैने सुना
तुम्हारी कोई पसंद नहीं रही
तुम्हारी बातें आम हो गई
तुम्हारे गीत रोते हैं
तुम्हारा मौसम भी बेवफा हो गया
उस वक्त तो तुमने मुंह फेरा था
लेकिन
अब इस बार क्या हुआ
क्या तुमसे भी किसी ने मुंह फेर लिया है
देखो
हवा का संकेत समझो
औरत का मन समझो
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Friday, July 11, 2008

कन्धों पर सूरज

कन्धों पर सूरज

(कविता वाचक्नवी)



प्रश्न गाँव औ’ शहरों के तो
हम पीछे सुलझा ही लेंगे
तुम पहले कंधों पर सूर
लादे होने का भ्रम छोड़ो



चिकने पत्थर की पगडंडी
नदी किनारे जो जाती है
ढालदार है
पेड़, लताओं, गुल्मों के झुरमुट ने उसको
ढाँप रखा है

काई हरी-हरी

लिपटी है


कैसे अब महकेंगे रस्ते
कैसे नदी किनारे रुनझुन
किसी भोर की शुभ वेला में
जा पाएगी?


कैसे सूनी राह
साँस औ’ आँख मूँद
पलकें मीचे भी
चलता
प्रथम किरण से पहले-पहले
प्रतिक्षण
मंत्र उचारे कोई ?



कैसे कूद - फाँदते बच्चे
धड़-धड़ धड़- धड़ कर उतरेंगे
गाएँगे ऋतुओँ की गीता ?



कैसे हवा उठेगी ऊपर
तपने पर भी ?

कैसे कोई बारिश में भीगेगा हँस कर ?



छत पर आग उगाने वाले
दीवारों के सन्नाटों में
क्या घटता है -
हम पीछे सोचें-सलटेंगे
तुम पहले कंधों पर सूरज
लादे होने का भ्रम छोड़ो।



स्रोत : अपनी पुस्तक " मैं चल तो दूँ " से
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सावन

रुकी रुकी सी बारिशों के बोझ से दबी दबी
झुके झुके से बादलों से -

धरती की प्यास बुझी
घटाओं ने झूमकर मुझसे कुछ कहा तो है
बुँदे मुझे छू गई -तेरा ख्याल आ गया
खुशबू वाला पानी तुझसे भी कुछ कहता होगा
बादल ने बारिश के हाथोंतुझको भी कुछ भेजा होगा
घटाओं ने बरसकर ,तुझसे कुछ कहा है क्या -
सावन की रिमझिम मेंतेरा ख्याल आ गया
--नीलिमा गर्ग

Thursday, July 10, 2008

इसलिये मुझे फक्र है कि मै दूसरी औरत हूँ ।

नहीं सौपा मैने अपना शरीर उसे
इसलिये
कि उसने मेरे साथ सात फेरे लिये
कि उसने मुझे सामाजिक सुरक्षा दी
कि उसने मेरे साथ घर बसाया
कि उसने मुझे माँ बनाया
सौपा मैने अपना शरीर उसे
इस लिये
क्योंकि "उस समय" उसे जरुरत थी
मेरे शरीर की , मेरे प्यार , दुलार की
और उसके बदले नहीं माँगा मैने
उससे कुछ भी , ना रुपया , ना पैसे
ना घर , ना बच्चे , ना सामाजिक सुरक्षा
फिर भी मुझे कहा गया की मै दूसरी औरत हूँ !!
घर तोड़ती हूँ ।
प्रश्न है मेरा पहली औरतो से , क्या कभी तुम्हें
अपनी कोई कमी दिखती है ??
क्यो घर से तुम्हारे पति को कहीं और जाना पड़ता है ?
क्यो हमेशा तुम इसे पुरुष की कमजोरी कहती हो ?
क्यो कभी तुम्हें अपनी कोई कमजोरी नहीं दिखती ?
जिस शरीर को सौपने के लिये ,
तुम सात फेरो की शर्ते लगती हो ,
उसे तो मैने योहीं दे दिया बिना शर्त ,
बिना शिक़ायत
इसलिये मुझे फक्र है कि मै दूसरी औरत हूँ ।


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Wednesday, July 9, 2008

दुर्गा का आह्वान........

तुमने सोचा होगा,
मैं उन मूर्ख स्त्रियों में हूँ,
जिन्हें अपनी तारीफ सुनना
अच्छा लगता है।
तुम्हे क्या लगा?
मेरा कोई अस्तित्व नहीं है?
आम बुध्धिजीवियों की तरह तुम्हे लगा
एक पुरूष की छत्रछाया नहीं
तो मुझे पाया जा सकता है!
हँसी आती है,
अरे स्त्री तो पुरूष की प्रेरणा बनती आई है,
उसीकी लोरी पर उसे नींद आई है,
अर्धांगिनी बन उसीने
पुरूष को पूर्णता दी है!
..........................
सड़क पर एक स्त्री को लाने के मद में
यह पुरूष तो अधूरा होता है!
एक स्त्री-
माँ,बहन,बेटी भी होती है.........
और इन रूपों में
वह अद्वितीय होती है!
ऐसी अनुपमा को
कठपुतली बनाने की ख्वाहिश लिए
यह पुरूष,
अनजाने ही दुर्गा का आह्वान कर
स्त्री में उसकी प्राण - प्रतिष्ठा करता है.............!!!

Tuesday, July 8, 2008

रिश्ता अपना अपने से

पिता से बना जब रिश्ता बेटी तुम कहलाई
भाई से बना जब रिश्ता भगिनी तुम कहलाई
पति से बना जब रिश्ता पत्नी तुम कहलाई
बेटे से बना जब रिश्ता माँ तुम कहलाई
अपने से बना जब रिश्ता सम्पूर्ण नारी तुम कहलाई


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सोलहवा सावन

रिमझिम खनकती बूँदे , जब आंगन में आती है
उन भीगे लम्हो को , संग अपने लाती है
बचपन की लांघ दहलीज़ , फूलों में कदम रखा था
चाँद को देखकर , खुद ही शरमाना सीखा था
सखियों से अकसर ,दिल के राज़ छुपाते
कभी किसी पल में ,वींनकारण ही इतराते
बारिश में यूही , घंटो भीगते चले जाते
सखियो जैसे हम भी , इंद्रधनु को पाना चाहते
सावन के वो झूले , हम आज भी नही भूले
उपर उपर जाता मन , चाहता आसमान छूले
भीग के जब तनमन , गीला गीला होता था
पिहु मिलन का सपना, नयनो में खिलता था
आज भी बारिश की बूँदे, हमे जब छू लेती है
सोलहवा सावन आने का.पैगाम थमा देती है
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मुश्किल है........


सिद्धांत, आदर्श, भक्तियुक्त पाखंडी उपदेश

नरभक्षी शेर,-गली के लिजलिजे कुत्ते,

मुश्किल है

मन के मनको में सिर्फ़ प्यार भरना!

हर पग पर घृणा,आंखों के अंगारे

आख़िर कितने आंसू बहायेंगे?

ममता की प्रतिमूर्ति स्त्री-एक माँ

जब अपने बच्चे को आँचल की लोरी नहीं सुना पाती

तो फिर ममता की देवी नहीं रह जाती

कोई फर्क नहीं पड़ता तुम्हारी गालियों से

लोरी छिनकर तुमने ही उसे काली का रूप दिया है

और इस रूप में वह संहार ही करेगी!

सिर्फ़ संहार!

फिर रचना का सिद्धांत क्या?

आदर्श क्या?

भक्तियुक्त उपदेश क्या?

मुश्किल है मन के मनको में सिर्फ़ प्यार भरना!............

Monday, July 7, 2008

अमर प्रेम……



असंख्य लहरों से तरंगित
जीवन उदधि
अब अचानक शान्त है
एकदम शान्त

घटनाओं के घात-प्रतिघात
अब आन्दोलित नहीं करते
तुम्हारा क्रोध,
तुम्हारी झुँझलाहट देख
आक्रोष नहीं जगता
बस सहानुभूति जगती है

कभी-कभी तुम अचानक
बहुत अकेले और असहाय
लगने लगते हो
दिल में जमा क्रोध का ज्वार
कब का बह गया
अब कोई शिकायत नहीं
कोई आत्मसम्मान नहीं

बस बिखरे हुए रिश्तों को
समेटने में लगी हूँ
तुम्हें पल-पल बिखरता देख
मन चीत्कार उठता है
और मन ही मन सोचती हूँ
ये त मेरा प्राप्य नहीं था

मैं तुम्हें कमजोर और
हारता हुआ नहीं
सशक्त और विजयी
देखना चाहती थी
पता नहीं क्यों तुम
सारे संसार से हारकर
मुझे जीतना चाहते हो
भला अपनी ही परछाई पर
अधिकार की ये कैसी कामना है

जो तुम्हे अशान्त किए है
भूल कर सब कुछ
बस एक बार देखो
मेरी उन आँखों में
जिनमें तुम्हारे लिए
असीम प्यार का सागर
लहराता है
अपना सारा रोष
इनमें समर्पित कर दो
और सदा के लिए
समर्पित हो जाओ
संशयों से मुक्ति पाजाओ।


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Sunday, July 6, 2008

अधिकार

मैने तो ऐसा कोई अधिकार
कह कर तो
कभी तुम्हें दिया नहीं
की तुम जो कहोगे
मै मानूगी
फिर भी
जब भी तुमने
कुछ भी कहा मैने माना
क्योकी मै मानती हूँ
की तुम्हारा पूरा अधिकार है
मुझ पर
अधिकार की परिभाषा
रिश्तों की भाषा से
अलग होती है
कुछ रिश्ते अधिकार से बनते हैं
और कुछ रिश्तों मे अधिकार होता है
बिना नाम के रिश्तों मे
अधिकार नहीं प्यार होता है
और प्यार के बन्धन
बिना नाम के
एक दूसरे को
बंधते हैं ता उम्र
और इस बन्धन को
जो स्वीकारते है
वह दुनिया मे
अकेले नहीं होते है
पर अलग जरुर होते है


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