हम बहुत तरक्की कर रहें हें
पहले बेटियों को मारते थे
बहुओ को जलाते थे
अब तो हम
कन्या भ्रुण हत्या करते है
दूर नहीं है वो समय
जब हम फक्र से कहेगे
पुत्र पैदा करने के लिये
हम किराये पर लेते हें
विदेशी कोख
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सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
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11 comments:
रचनाजी, शायद हमारी नीतियां व महिलाओं के लिये घटता सम्मान हमें इसी और ले जा रहे है, आपने कटु सत्य लिखा है.
हम किराये पर लेते हें
विदेशी कोख
किराये पर लेनी तो शुरू भी हो गयी है...
नीरज
जो पीड़ा छिपी है आपकी इस रचना में वो आपने शब्दों में बाखूबी बयां की है.
सच्ची कविता.
बधाई.
यह दर्द ब्यान करती है उस हालत का जो शायद अब सच बनता जा रहा है
har shabd me virodh ki tej aag hai.......
sachaai ko sashakt dhang se bayaan karti hain aap.......
rachana ji, bahut kadwa sach kah diya hai apne....
achha or sachha likha hai
समाज के ठेकेदार जो नारी स्वतंत्रता के ख़िलाफ़ हैं , जो नारी पुरूष की समानता के ख़िलाफ़ हैं , जो नारी और पुरूष को पूरक मानते हैं और फिर भी ये सब करते हैं , जो सदियों से परिवार की बलिवेदी पर नारी को कुर्बान कर रहे हैं , जो परिवार बचाना चाहते क्योकि मानते हैं की परिवार भारत की संस्कृति का हिस्सा हैं ख़ुद नारी को ख़तम करते जा रहे हैं . परिवार बचाना हैं तो नारी को सक्षम करे , आर्थिक रूप से . उसे हर वो अधिकार दे जो संविधान ने बराबरी का उसे दिया हैं आप सब को कविता मे पीड़ा , आक्रोश और सच्ची दीखी लगा शब्दों ने अपना काम किया .
आपके शब्दों की उर्जा समाज के सर्द होते दिल में हरकत पैदा कर सकती है...!
रचनाजी अधिकार मांगने से नहीं मिलते, सक्षमता मांगी नहीं जाती, सुविधा भोगी व संरक्षण के जाल से निकल कर आभूषणों के मोह को त्याग कर परिश्रम से प्राप्त करना होगा. परिवार व समाज नारी के दुश्मन नहीं हैं. परिवार व समाज नारी की ही उत्पत्ति है, इनमें परिवर्तन भी वही कर सकती है.
bahut khub yahi to aaj ka samay ki bidambana hai
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