रेखा श्रीवास्तव की ये कविता हम अतिथि कवि की कलम से के तहत पोस्ट कर रहे हैं ।लेखिका रेखा श्रीवास्तव कानपुर की निवासी हैं और हिन्दी ब्लोगिंग मे नयी हैं उनके ब्लॉग पर उनकी ये कविता देखी , संपर्क सूत्र ना होने की वजह से संपर्क नहीं कर सकी । कविता को पढे जरुर और टिप्पणी भी दे की क्यों एक विवाहिता का दर्द इतना गहरा होता हैं ।
नारी - व्यथा
जीवन जिया,
मंजिलें भी मिली,
एक के बाद एक
बस नहीं मिला तो
समय नहीं मिला।
कुछ ऐसे क्षण खोजती ही रही ,
जो अपने और सिर्फ अपने लिए
जिए होते तो अच्छा होता।
जब समझा अपने को
कुछ बड़े मिले कुछ छोटे मिले
कुछ आदेश और कुछ मनुहार
करती रही सबको खुश ।
दूसरा चरण जिया,
बेटी से बन बहू आई,
झूलती रही, अपना कुछ भी नहीं,
चंद लम्हे भी नहीं जिए
जो अपने सिर्फ अपने होते।
पत्नी, बहू और माँ के विशेषण ने
छीन लिया अपना अस्तित्व, अपने अधिकार
चाहकर न चाहकर जीती रही ,
उन सबके लिए ,
जिनमें मेरा जीवन बसा था।
अपना सुख, खुशी निहित उन्हीं में देखि
थक-हार कर सोचा
कुछ पल अपने लिए
मिले होते
ख़ुद को पहचान तो लेती
कुछ अफसोस से
मुक्त तो होती
जी तो लेती कुछ पल
कहीं दूर प्रकृति के बिच या एकांत में
जहाँ मैं और सिर्फ मैं होती।
मंजिलें भी मिली,
एक के बाद एक
बस नहीं मिला तो
समय नहीं मिला।
कुछ ऐसे क्षण खोजती ही रही ,
जो अपने और सिर्फ अपने लिए
जिए होते तो अच्छा होता।
जब समझा अपने को
कुछ बड़े मिले कुछ छोटे मिले
कुछ आदेश और कुछ मनुहार
करती रही सबको खुश ।
दूसरा चरण जिया,
बेटी से बन बहू आई,
झूलती रही, अपना कुछ भी नहीं,
चंद लम्हे भी नहीं जिए
जो अपने सिर्फ अपने होते।
पत्नी, बहू और माँ के विशेषण ने
छीन लिया अपना अस्तित्व, अपने अधिकार
चाहकर न चाहकर जीती रही ,
उन सबके लिए ,
जिनमें मेरा जीवन बसा था।
अपना सुख, खुशी निहित उन्हीं में देखि
थक-हार कर सोचा
कुछ पल अपने लिए
मिले होते
ख़ुद को पहचान तो लेती
कुछ अफसोस से
मुक्त तो होती
जी तो लेती कुछ पल
कहीं दूर प्रकृति के बिच या एकांत में
जहाँ मैं और सिर्फ मैं होती।
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
8 comments:
bahut bsdhiya rachana. likhate rahiye.
कहीं दूर प्रकृति के बिच या एकांत में
जहाँ मैं और सिर्फ मैं होती।
sunder rachana
regards
अपने मनोभावों को बहुत सुन्दरता से अभिव्यक्त किया है।बढिया!
रेखा श्रीवास्तव जी का स्वागत है ब्लाग समूह में । अच्छा प्रयास किया है आपने ।
Rekha ji , bahut parbhavi rachana hai aapki
Badhai..
http://dev-poetry.blogspot.com/
रेखा जी ने अच्छा लिखा है. जब तक हम अपने को सभी से जोडकर देखते है. कोई अभाव नहीं होता किन्तु जब अपने को सबसे अलग करके देखते है , तब लगता है कि मैने अपने लिये तो कुछ किया ही नहीं. नर और नारी दोनो के लिये समान स्थिति है.
राष्ट्रप्रेमी जी ऐसा नहीं है, पुरुष का कल भी स्वतंत्र अस्तित्व था और आज भी है, किन्तु नारी सदियों से परिवार को लेकर और सबको समेट कर चल रही है, तब वह खुद कहाँ रह जाती है. जीती है विभिन्न नामों से पर उसका अपना अस्तित्व उन्हीं में दब कर रह जाता है. आज वह कहीं भी पहुँच जाए लेकिन ऑफिस से निकालने से पहले बच्चे के लिए , पति के लिए खाना बना कर रखेगी और चाहे खुद बिना नाश्ते कि ही चली जाय. सच्चाई यही है.
मैं कोई कवयित्री तो नहीं हूँ, परन्तु दिल को छू लेने वाली कविताएँ पढ़कर उसे महसूस करना चाहती हूँ |मुझे ऐसी कविता की तलाश थी और वो आज पूरी हुई |दिल के तार अंदर से हिल गए और एक नारी की व्यथा को आज सचमुच मैंने महसूस किया |रेखा जी को बहुत बहुत बधाई
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