किसी की आँखों का काँटा थी मैं
तो किसी की आँख की किरकिरी थी मैं ,
किसी की नज़रों में खटकती थी मैं
तो शायद ही किसी को भाती थी मैं ,
सबकी चर्चाओं का केंद्रबिंदु थी मैं
तो किसी के व्यंग बाणों का लक्ष्य थी मैं ,
तो किसी की उपहासपूर्ण मुस्कराहट
का केन्द्र थी मैं |
पर वैसे तो सुलभा थी
आलोचानाओं ,उलाहनों विरोधो से
होंसले बुलन्द करती थी मैं ,
अग्निपथ पर चलते हुए
कुंदन सी निखर गई थी मैं ,
वैसी ही थी ,और अब भी
वैसे ही ,वही सुलभा हूँ मैं |
अज्ञात ॥ [किस ने लिखी है पता नही ,पर कहीं पढ़ी है यह सो यहाँ पोस्ट कर दी ]
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
Tuesday, August 26, 2008
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10 comments:
bahut achcha likha hai...
हमेशा की तरह बेहतरीन !
jinhone bhi likhi hai unse kahiyega ...achhi likhi hai.
बढ़िया रचना...हर दम की तरह
अग्निपथ पर चलते हुए
कुंदन सी निखर गई थी मैं ,
वैसी ही थी ,और अब भी
वैसे ही ,वही सुलभा हूँ मैं |
"itnee sunder pankteeyan pehle nahee pdee, "
Regards
बहुत खुब सुन्दर
इस चिट्ठी की आखरी दो पंक्तियां हैं
"अज्ञात ॥ [किस ने लिखी है पता नही ,पर कहीं पढ़ी है यह सो यहाँ पोस्ट कर दी]
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!"
यदि यह 'अज्ञात - किस ने लिखी है पता नही, पर कहीं पढ़ी है यह सो यहाँ पोस्ट कर दी' तो फिर '© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!' कैसे हो गयी। यह किसका कॉपीराइट होगा? यह कम समझ में आया।
क्या यहां पर कुछ और होना चाहिये। शायद कानून विशेषज्ञ दिनेश द्विवेदी जी इसको स्पष्ट करना चाहें।
यहाँ निम्न पंक्ति को हटा दिया जाना चाहिए था।
<<© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!>>
लीजिये जी हटा दिया है ..शुक्रिया इसको बताने का ..कभी कभी बेध्यानी में ऐसा हो जाता है आगे से ध्यान रखेंगे :)
kisi ki khaoshi ko jubaan dedi apane.. ranju ji... ek aur umda rachana...
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