सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Saturday, May 31, 2008

काश!


मैं बन जाऊँ एक सुगन्ध
जो सबको महका दे
सारी दुर्गन्ध उड़ा दे
या

बन जाऊँ एक गीत
जिसे सब गुनगुनाएँ
हर दिल को भा जाए

अथवा
बन जाऊँ नीर
सबकी प्यास बुझाऊँ
सबको जीवन दे आऊँ

या फिर..
बन जाऊँ एक आशा
दूर कर दूँ निराशा
हर दिल की उम्मीद

अथवा
बन जाऊँ एक बयार
जो सबको ताज़गी दे
जीवन की उमंग दे
नव जीवन संबल बने
तनाव ग्रस्त
..
प्राणी की पीड़ा पर
मैं स्नेह लेप बन जाऊँ

जग भर की सारी
चिन्ताएँ मिटा दूँ
जी चाहता है आज
निस्सीम हो जाऊँ
एक छाया बन
नील गगन में छा जाऊँ

सारी सृष्टि पर अपनीममता लुटाऊँ

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Thursday, May 29, 2008

आज भी मै अपने को ढ़ूढ़ती हूँ

आज भी मै अपने को ढ़ूढ़ती हूँ भाग १

पढ़ लिख कर नौकरी की
आज्ञाकारी पुत्री बन कर विवाह किया
आज्ञाकारी पुत्रवधू बन कर वंशज दिया
और अब सहिष्णु पत्नी बनकर
पति की गलतीयों पर पर्दा डालती हूँ
मै खुद क्या हूँ , मेरा अस्तित्व क्या है
आज भी मै अपने को ढ़ूढ़ती हूँ
______________________

आज भी मै अपने को ढ़ूढ़ती हूँ -- भाग 2
पढ़ लिख कर नौकरी की
आज्ञाकारी पुत्री बन कर विवाह किया
आज्ञाकारी पुत्रवधू बन कर वंशज दिया
और अब सहिष्णु पत्नी बनकर
पति की गलतीयों पर पर्दा डालती हूँ
मै खुद क्या हूँ , मेरा अस्तित्व क्या है
आज भी मै अपने को ढ़ूढ़ती हूँ
_____________________________

एका एक आईना दिखा मुझे
और आज्ञाकारी पुत्री का चोला पहने
दिखी एक लड़की जिसने अपनी शादी मे
लाखो खर्च करवाये अपने पिता के
जिसने पाया एक पति ,पिता के कमाए हुये धन से
और आज्ञाकारी पुत्रवधू का चोला पहने दिखी एक औरत ,
जिसने ससुर के पैसे से मकान अपना ख़रीदा ,
अपने मकान को, घर पति के
माता पिता का ना बनने दिया
और सहिष्णु पत्नी का चोला पहने दिखी
एक विवाहिता , जिसने अपने पति को
हमेशा ही एक सामाजिक सुरक्षा कवच समझा
___________________________________

इससे पहले कि आइना और कुछ दिखता
मेरी महानता का आवरण और उतरता
कोई देख पता कि मै भी केवल एक साधारण स्त्री हूँ
जो केवल अपने स्वार्थ के लिये जीती है
मैने आइने पर फिर एक पर्दा डाला
___________________________________

दो चुटकी सिंदूर माँग मे भरा
ससुर के पैर छुये
पिता को कुशलता का समाचार दिया
और पति के साथ उसकी लंबी कार मे
बेठ कर दूसरा या तीसरा हनीमून मनाने
मै चल पडी ।
पति के पर - स्त्री गमन को
वासना कह कर , पुनेह उससे संबंध बनाने के
निकृष्टतम समझोते को करने
ताकि ऐशोआराम से बाक़ी जिन्दगी
अपनी महानता का गुणगान करते
सुनते बीते

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Wednesday, May 28, 2008

तुम कहो मैं सुनूँ---


तुम कहो मैं सुनूँ
मैं कहूँ तुम सुनो
ज़िन्दगी प्यार से यूँ गुज़रती रहे—

जब भी हारी थी मैं
तुमने सम्बल दिया
जब गिरे थक के तुम
मेरा आश्रय लिया
हम अधूरे बहुत
एक दूजे के बिन
दिल की बातें यूँ ही दिल समझते रहें
ज़िन्दगी प्यार से यूँ गुज़रती रहे—

तुम हुए मेंहरबाँ
झोली सुःख से भरी
मैने चुन-चुन सुमन
प्रेम बगिया भरी
अब ना सोचो किसे
पीर कितनी मिली
हर घड़ी दुःख की गागर
छलकती रहे—
ज़िन्दगी प्यार से------

तुम ना रोको मुझे
मैं ना टोकूँ तुम्हें
दोनो मिलकर चलें
एक दूजे के संग
दिन महकता रहे
रात ढ़लती रहे
ज़िन्दगी प्यार की

धुन पे चलती रहे--
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Tuesday, May 27, 2008

गर्भपात

क्लिक करे और पढे और अपनी राय जरुर दे ।

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

अहसास

उम्र के केनवास पर
वक़्त बनाता गया कुछ धुंधले अक्स
उभरते रहे आकार
चित्रित होते रहे इन्द्रधनुषी रंग
उम्र के कागज पर ,
वक़्त लिखता रहा अपनी इबारत ...
एहसास कि स्याही से
अनुभव कि कलम से
उम्र के कागज पर -
वक़्त करता रहा अपने हस्ताक्षर
अंकित होते रहे कुछ नाम....
---नीलिमा गर्ग

गंधाती सड़क

गंधाती सड़क = वेश्या = अकेली स्त्री = दूसरे की पत्नी = दूसरे की बेटी = महिला ब्लॉगर
आप जिस परिवेश मे भी हो क्योकी आप महिला हैं इस लिये इस बदबू को आपको झेलना ही पडेगा । सदी बदले , युग बदले क्या फरक हैं ??

गंधाती सड़क


एक गंधाती सड़क से पूछा
दूसरी गंधाती सड़क ने
क्या बात हैं हम क्यों इतना गंधाती हैं
ये गंध ना डीजल की है , ना पट्रोल की
फिर कहाँ से आती हैं
जवाब दिया दूसरी सड़क ने
अरी बावरी अभी यहाँ से
एक जो गया हैं
अपना परिचय वह
यहाँ सार्वजनिक कर गया है
इस गंध को सालो से हर
सड़क झेल रही है
पता नहीं और कब तक झेलेगी
सबके घरो मे हैं
एक सुलभ शौचालय
फिर भी सडको पर
इनका आना जाना
लगा ही रहता
और सड़के गंधाती रहती है

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Sunday, May 25, 2008

एक सच्ची श्रद्धांजली " आरुषि..! अच्छा हुआ हम नहीं मिले "

- विवेक सत्य मित्रम् की लिखी यह कविता दिल को छूने वाली है और यही एक सच्ची श्रद्धांजली उस मासूम बच्ची को ..यहाँ पर यह गेस्ट कवि के रूप में पोस्ट की जा रही है ..

आरुषि..! अच्छा हुआ हम नहीं मिले
अच्छा हुआ-
हम कभी किसी चौराहे,
किसी गली या फिर-
किसी नुक्कड़ पर नहीं टकराए-
अच्छा हुआ-
तुम उन तमाम लड़कियों में-
कभी शऱीक नहीं थी-
जो गाहे बगाहे-
मेरे ख्वाबों का हिस्सा बनीं-
अच्छा हुआ-
हमारी जिंदगी के सभी रास्ते-
अलग-अलग रहे-
कभी साझा नहीं हुए-
अच्छा हुआ-
कोई ऐसी लड़की नहीं गुजरी-
मेरी नजरों से-
जिसके चेहरे से मिलता हो-
तुम्हारा चेहरा-
वरना-
मुश्किल होता, मेरे लिए-
तु्म्हारी खूबसूरत तस्वीर पर-
वो हर्फ उकेरना-
जिनसे टपक रहा हो खून-
मुश्किल होता, मेरे लिए-
खड़े करना सवाल-
तु्म्हारे चरित्र पर-
मुश्किल होता, मेरे लिए-
हाथ पर हाथ रखे...
देखना वो तमाशा-
जिसमें शामिल रहा मैं भी-
शुरु से आखिर तक-
बना रहा हिस्सा-
भेड़ियों के भीड़तंत्र का।
आरुषि...!
अच्छा हुआ हम कभी नहीं मिले।

- विवेक सत्य मित्रम्
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Saturday, May 24, 2008

बड़ी होती बेटी माँ की परछाई है

बड़ी होती बेटी माँ की परछाई है
उसकी हर बात में अपनी ही छवि नज़र आई है
उसकी हर अदा लगती अपनी ही निराली है
लगता है मेरे बचपन की घड़ी फ़िर लौट आई है

बड़ी होती बेटी माँ की परछाई है ...

जब लिपट जाती है मुझसे एक लता सी
लगता है जैसे मेरा सहारा वही बन आई है
गोद में सिमटी हुई गुडिया यह मेरी
आँचल में जैसे कुनकुनी धूप उतर आई है

बड़ी होती बेटी माँ की परछाई है.......

महकता है उसके होने से मेरे दिल का हर कोना
उसकी हर मुस्कान से घर महक जाता है
जब भी छलके हैं मेरे आँसू दर्द बन के
वो मेरी ज़िंदगी में रोशनी बन के मुस्कराई है

बड़ी होती बेटी माँ की परछाई है....

तुझे देखती हूँ तो लगता है कि जैसे
मेरे अधूरे सपने को तू पूरा करने आई है
हर तेरी कामयाबी में अपनी ही झलक नज़र आई है
बड़ी होती बेटी माँ की परछाई है ...............
उसकी हर बात में अपनी ही छवि नज़र मुझे आई है !!

Friday, May 23, 2008

गुलमोहर

गुलमोहर
लाल, बैंगनी ,पीला -
हर रंग में खिलता है गुलमोहर
धूप में छाँव की तरह ,
घने पत्तों के साये में -
शीतल बयार की तरह
पीले खिले फूल -
तुम्हारी मुस्कान की तरह
नीले आसमान के नीचे
खिले बैगनी फूल -
किसी याद की तरह
ऊँची शाखों से लटकते
लाल गुलमोहर -
मन की आग की तरह

By Neelima गर्ग
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Thursday, May 22, 2008

क्योकि मैने निष्ठा से सिर्फ तुमको चाहा

आये थे कृष्ण एक बार वापस विरंदावन
कहा था उन्होने राधा से
" तुम्हे ही चाहता हूँ मै प्रिये
लौटा हूँ
फिर एक बार पाने के लिये प्यार तुम्हारा "
बोली राधा
" मेरा प्यार तो सदा ही है तुम्हारा
पर क्या तुम रुक्मणी को छोड़ कर आये हों "
बोले कृष्ण " रुक्मणी पत्नी है और राधा तुम प्यार हों मेरा "
" अब वापस तो नहीं जाओगे " राधा का प्रश्न था
" नहीं वापस तो जाना है , संसार का कर्म निभाना है"
बोली फिर राधा " जाओ लॉट जाओ
रुक्मणी को छोड़ कर आते तो मेरा प्यार पाते
इस युग मे तो क्या किसी भी युग मे मुझे तक
वापस आओगे मेरा प्यार पाओगे पर
जैसे मै तुम्हारी हूँ
तुमको भी केवल मेरा बन कर रहना होगा
मुझे प्यार करना और रुक्मणी से विवाह करना
ये पहली गलती थी और
फिर वापस आकर मेरे प्यार की कामना
दूसरी ग़लती है तुम्हारी "
वापस चले गए कृषण
और जाकर अपनी इस यात्रा का विवरण
इतिहास से ही मिटा दिया
क्योकि उन्हें तो भगवान बनना था
मिटा दिया नारी की जागरुकता को
और पुरुष कि कायरता को
उन्होने इतिहास के पन्नो से
क्योकि इतिहास तो हमेशा पुरुष ही लिखते है
फिर एक दिन
फिर मिले वह राधा से
कई युगो बाद
एक मंदिर मे
कहा राधा ने
देखो आज मै भी वहीं स्थापित हूँ
जहां तुम स्थापित हो
पर मेरा नाम तुम्हारे नाम से पहले
लेते है लोग इस युग के
क्योकी उस युग मे मै सही थी
प्रेम एक वक़्त मे केवल एक से करना
हों सकता है फिर दुसरे युग मे
तुम पराई स्त्री के साथ नहीं
रुक्मणी के साथ पूजे जाओ
तुमने जो कुछ पाया
मुझे भी वही मिला
अलग अलग रास्तो से
एक ही जगह पहुंच गए है हम
पर है हम " राधा कृष्ण "
क्योकि मैने निष्ठा से
सिर्फ तुमको चाहा

और
अपना सम्मान मैने
स्वयम अर्जित किया
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
इस कविता का मे राधा कृष्ण को आज के परिवेश मे देखे । इतिहास क्या कहता हैं नहीं जानती पर मन कहता हैं "राधा" महिला सशक्तिकरण की पहली नायिका रही होगी ।

Wednesday, May 21, 2008

माँ तुम……


माँ तुम……
बहुत याद आ रही हो
एक बात बताऊँ………
आजकल…..
तुम मुझमें समाती जा रही हो


आइने में अक्सर
तुम्हारा अक्स उभर आता है
और कानों में अतीत की
हर एक बात दोहराता है

तुम मुझमें हो या मैं तुममें
समझ नहीं पाती हूँ
पर स्वयं को आज
तुम्हारे स्थान पर खड़ा पाती हूँ

तुम्हारी जिस-जिस बात पर
घन्टों हँसा करती थी
कभी नाराज़ होती थी
झगड़ा भी किया करती थी

वही सब……
अब स्वयं करने लगी हूँ
अन्तर केवल इतना है कि
तब वक्ता थी और आज
श्रोता बन गई हूँ

हर पल हमारी राह देखती
तुम्हारी आँखें ……..
आज मेरी आँखों मे बदल गई हैं
तुम्हारे दर्द को
आज समझ पाती हूँ
जब तुम्हारी ही तरह
स्वयं को उपेक्षित सा पाती हूँ


मन करता है मेरा…
फिर से अतीत को लौटाऊँ
तुम्हारे पास आकर
तुमको खूब लाड़ लड़ाऊँ
आज तुम बेटी
और मैं माँ बन जाऊँ


तुम्हारी हर पीड़ा, हर टीस पर
मरहम मैं बन जाउँ
तुम कितनी अच्छी हो

कितनी प्यारी हो
ये सारी दुनिया को बताऊँ
ये सारी दुनिया को बताऊँ© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Monday, May 19, 2008

बीबा और बीबी

पुरुष होने का सिला उन्होने एक शब्द में जतला दिया
प्यार भारी ज़िंदगी का यह उन्होने सिलसिला दिया
मैं तो मौन रहता हूँ प्रिय,ना तुमको कुछ कहता हूँ
एक बीबे पति की तरह हर बात तुम्हारे सहता हूँ


कितने सुंदर शब्द हैं यह जो सुने मेरी किस्मत पर रश्क़ करे
पर यही चार शब्द मेरी आत्मा को घायल कर गये
कि तुम तो मौन रह कर देवता हो गये
कुछ अत्याचार ना कर पाए इस लिए "बीबे" हो गये

पर आज मैं तुमसे पूछती हूँ कि मेरे
किस कसूर पर तुम मुझसे कुछ कहना चाहते हो
सुबह सबसे जल्दी उठ कर
बच्चो को स्कूल भेजना मेरा कसूर था???
नौकरी करके तुम्हारे हाथ बाँटना कसूर था???
घर आ के दुबारा चकारी करना कसूर था???
सुबह शाम अपने आप को घर पर समर्पित करना कसूर था?

हाँ अगर यह कसूर है तो मत दबाओ अपनी भावनाओ को
मत रहो चुप और मत बनो देवता ..
कुछ तीखी तीखी बातें मुझे सुनाओ
और हो सके तो हाथ भी तुम मुझ पर उठाओ
शायद तभी तुम कह सकोगे
पति धर्म निभाया है
और एक असली पति बन कर ज़िंदगी का रस पाया है

हैरानी होती है तुम्हारे दोगले विचारों पर
एक तरफ़ तो कहते हो पत्नी अर्धागनी होती है
पर असल में तो यह बाते सिर्फ़ एक छलावा हैं
पत्नी के रूप में मुफ़्त में आया को पाया है

महीने की तनख़्वाह दुगनी हुई है
पर पुरुषत्व में कही कमी नही हुई है
जो पत्नी दिन रात घर बाहर खट कर दिन अपने बिताती है
सारी दुनिया में वही सबसे तेज़ तरार जानी जाती है
पति जो कभी कभी घर रहता है
घर की चिंताओं से बेख़बर रहता है
अतिथि सा सत्कार पा कर मौन रहता है
पर वही सबकी नज़रो में " बीबा " समझा जाता है

वाह री दुनिया तेरा यही दस्तूर
पति यहाँ का राजा .
और पत्नी हर दम मजबूर है
पति देवता गिना जाएगा
और पत्नी चरणो की दासी
पर मेरी जैसी पत्नी पा कर
हो जाएगी तुम्हारी ऐसी तैसी
ना ज़ुल्म करा है ना ज़ुल्म सहूंगी
प्यार से अपना बनाया तो
जान भी अपनी दे दूँगी
पुरुष होने का जो अहम निभाया
तो नाको चने चबवा दूँगी
शिक्षा दीक्षा के हर मुकाम पर
तुमसे मैंने बढ़त पाई है
"बीबे" तो अब तुम क्या बनोगे
सही अर्थों में अब "बीबी" बनने की बारी अब मेरी आई है



बीबा ...एक पंजाबी लफ्ज़ है जिसका अर्थ सीधा होता है ..

आज की नारी घर और बाहर दोनो मोर्चो को बख़ूबी संभाल रही है
मेरी छोटी बहन भी इसी श्रेणी में आती है ...एक दिन उसने कामकाजी पत्नी की
पीड़ा को यूं कविता व्यंग में लिखा


पूनम भाटिया द्वारा लिखित.
2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Sunday, May 18, 2008

नारी तुम केवल सबला हो


©

नारी तुम केवल सबला हो
निमर्म प्रकृति के फन्दों में

झूलती कोई अर्गला हो ।

नारी तुम केवल सबला हो ।

विष देकर अमृत बरसाती
हाँ ढ़ाँप रही कैसी थाती ।

विषदन्त पुरूष की निष्ठुरता

करूणा के टुकड़े कर जाती

विस्मृति में खो जाती ऐसे
जैसे भूला सा पगला हो

नारी तुम केवल
--
कब किसने तुमको माना है

कब दर्द तुम्हारा जाना है
किसने तुमको सहलाया है

बस आँसू से बहलाया है

जिसका भी जब भी वार चला

वह टूट पड़ा ज्यों बगुला हो ।

नारी तुम
--


तुम दया ना पा ठुकराई गई

पर फिर भी ना गुमराह हुई

इस स्नेह रहित निष्ठुर जग
में
कब तुमसी करूणा
-धार बही ?
जिसने तुमको ठुकराया था

उसके जीवन की मंगला हो ।

नारी तुम
--

कब तक यूँ ही जी पाओगी ?
आघातों को सह पाओगी
?
कब तक यूँ टूटी तारों से

जीवन की तार बजाओगी
?
कब तक सींचोगी बेलों को

उस पानी से जो गंदला हो
?
नारी तुम
---

लो मेरे श्रद्धा सुमन तम्हीं
कुछ तो धीरज पा जाऊँ मैं

अपनी आँखों के आँसू को

इस मिस ही कहीं गिराऊँ मैं

तेरी इस कर्कष नियती पर

बरसूँ ऐसे ज्यों चपला हो ।

नारी तुम
--

मेरी इच्छा वह दिन आए
जब तू जग में आदर पाए ।

दुनिया के क्रूर आघातों से

तू जरा ना घायल हो पाए

तेरी शक्ति को देखे जो

तो विश्व प्रकंपित हो जाए ।

यह थोथा बल रखने वाला

नर स्वयं शिथिल
-मन हो जाए ।
गूँजे जग में गुंजार यही
-
गाने वाला नर अगला हो

नारी तुम केवल सबला हो ।

नारी तुम केवल सबला हो ।

2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Friday, May 16, 2008

मनाई , बंदिश और नियम

जहाँ भी मनाई हों
लड़कियों के जाने की
लड़को के जाने पर
बंदिश लगा दो वहाँ
फिर ना होगा कोई
रेड लाइट एरिया
ना होगी कोई
कॉल गर्ल
ना होगा रेप
ना होगी कोई
नाजायज़ औलाद
होगा एक
साफ सुथरा समाज
जहाँ बराबर होगे
हमारे नियम
हमारे पुत्र , पुत्री
के लिये
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Thursday, May 15, 2008

इस जग में पहचान बनाने दो !










खिलने दो, खुशबू पहचानो

महकी बगिया कहती है सबसे

न तोड़ो, खिल जाने दो

इस जग में पहचान बनाने दो।

खिलती कलियों की मुस्कान को जानो

आकाश को छूते उनके सपनों को मानो

खिलने दो खुशबू पहचानो

महकी बगिया कहती है सबसे।

कण्टक-कुल से भरे कठिन रस्ते हैं इनके

फिर भी कुछ करने की चाह भरी है इनमें

न तोड़ो खिल जाने दो

इस जग में पहचान बनाने दो।

जीवनदान मिले तो जड़ भी चेतनमन पाए

जगती का कण-कण शक्तिपुंज बन जाए

खिलने दो खुशबू पहचानो

महकी बगिया कहती है सबसे।

न तोड़ो खिल जाने दो

इस जग में पहचान बनाने दो

महकी बगिया कहती है सबसे

खिलने दो, खुशबू पहचानो।

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Tuesday, May 13, 2008

क्यों मुक्त हो जाने से तुम डरते हो
पर बन्धन के नाम से बिदकते हो,
बान्धूँ या छोड़ूँ तुम्हें, ओ मीत मेरे
क्यों इस निर्णय से सिहरते हो ?

तुमने रच डाला है शब्दों का जाल
अब उसमें ही तुम आ फंसते हो,
जब फंस जाते हो तो तड़पते हो
कसूँ या छोड़ूँ तुम्हें तुम्हारे ही हाल ?

चाहत मेरी कोई ऐसी तो न थी कि
करना पड़ता तुम्हें सबकुछ ही वार,
कुछ शब्दों को ही था माँगा मैंने
फिर चलती क्यों यूँ दिल पर धार ?

ना चाहा था कुछ लेना देना
तेरे जग में ना माँगा मैंने स्थान,
फिर क्यों लगता कि चोर हूँ मैं
ले भागी तेरे हृदय को अपना मान ?


घुघूती बासूती

2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Monday, May 12, 2008

कन्यादान

देखा है विरोध
सती प्रथा का
बाल विवाह का
दहेज़ प्रथा का
कन्या अशिक्षा का
कन्या भूर्ण ह्त्या का
यौन शोषण का
बलात्कार का
पर कभी नहीं देखा
कोई विरोध
" कन्यादान " का
क्यो कोई स्त्री
कभी विवाह मंडप मे
नहीं कहती
"नहीं हूँ मै दान की वस्तु
मुझे दान ना करे "
क्यो कोई पुरुष
कभी विवाह मंडप मे
नहीं कहता
" नहीं ही हूँ मै भिखारी
दान नहीं लूँगा "

©2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

ये लिंक भी जरुर देखे और आईये सोच बदले नये रास्ते तलाशे और बेटियों का दान ना करके उनको इंसान बनाए ।

Sunday, May 11, 2008

माँ


तुम तो कहती थी माँ कि..
रह नही सकती एक पल भी
लाडली मैं बिन तुम्हारे
लगता नही दिल मेरा
मुझे एक पल भी बिना निहारे
जाने कैसे जी पाऊँगी
जब तू अपने पिया के घर चली जायेगी
तेरी पाजेब की यह रुनझुन मुझे
बहुत याद आएगी .....


पर आज लगता है कि
तुम भी झूठी थी
इस दुनिया की तरह
नही तो एक पल को सोचती
यूं हमसे मुहं मोड़ जाते वक्त
न तोड़ती मोह के हर बन्धन को
और जान लेती दिल की तड़प

पर क्या सच में ..
उस दूर गगन में जा कर
बसने वाले तारा कहलाते हैं
और वहाँ जगमगाने की खातिर
यूं सबको अकेला तन्हा छोड़ जाते हैं

*****************************************

ढल चुकी हो तुम एक तस्वीर में माँ
पर दिल के आज भी उतनी ही करीब हो
जब भी झाँक के देखा है आंखो में तुम्हारी
एक मीठा सा एहसास बन कर आज भी
तुम जैसे मेरी गलती को सुधार देती हो
संवार देती हो आज भी मेरे पथ को
और आज भी इन झाकंती आंखों से
जैसे दिल में एक हूक सी उठ जाती है
आज भी तेरे प्यार की रौशनी
मेरे जीने का एक सहारा बन जाती है !!


रंजू
--------------------------------------------------------

माँ,अम्मा,मम्मी

माँ जिन्हें हम सब भाई बहन
अलग-अलग नाम से बुलाते
कोई माँ तो कोई अम्मा तो कोई मम्मी कहता।
आज माँ हम सबसे बहुत दूर है
पर आज भी माँ हम सबके बहुत करीब है।
आज भी उनका प्यार करना
उनका डांटना उनका दुलारना
सब याद आता है।


माँ जिन्होंने जिंदगी मे कभी
हार नही मानी , यहां तक की
मौत को भी तीन बार हराया
पर आख़िर मे जिंदगी ने
उन का साथ छोड़ दिया।
और माँ ने हम सबका।



आज भी माँ का वो हँसता मुस्कुराता
चेहरा आंखों और दिल मे बसा है
माथे पर बड़ी लाल बिंदी
और मांग मे सुर्ख लाल सिन्दूर
सब याद आता है ,बहुत याद आता है।

Friday, May 9, 2008

माँ का आँचल

हर वो आँचल
जहाँ आकर
किसी का भी मन
बच्चा बन जाये
और अपनी हर
बात कह पाए
जहाँ तपते मन को
मिलती हो ठंडक
जहाँ भटके मन को
मिलता हो रास्ता
जहाँ खामोश मन को
मिलती हो जुबाँ
होता है एक माँ
का आँचल
कभी मिलता है
ये आंचल एक
सखी मे
तो कभी मिलता है
ये आँचल एक
बहिन मे
तो कभी मिलता है
ये आँचल एक
अजनबी मे
ओर कभी कभी
शब्द भी एक
आँचल बन जाते है
इसी लिये तो
माँ की नहीं है
कोई उमर
ओर परिभाषा

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Thursday, May 8, 2008

खूब पहचानती हूँ मैं…..


©

खूब पहचानती हूँ
मैं…….
तुमको और तुम्हारे
समाज के नियमों को
जिनके नाम पर
हर बार
…….
मुझे तार-तार किया जाता है

किन्तु अब…..
मेरी आँख का धुँधलका
दूर हो चुका है
अब सब कुछ
साफ दिखाई दे रहा

अरे! हर युग में
तुम्हीं तो कमजोर थे
तुमने सदा
ही
भयाक्रान्त हो
मेरी ही शरण ली है

और मैं …….
हमेशा से तुम्हारी
भयत्राता रही


जन्म लेते ही तुम
मुझ पर आश्रित थे
पल-पल

मेरे ही स्नेह से
पुष्पित-पल्लवित तुम
इतने सबल कैसे हो गए
?

मैने ही विभिन्न रूपों में
तु्म्हें उबारा है
माँ
, भगिनी, प्रेयसी और
बेटी बनकर
तुम्हें संबल दिया है


और आज भी
हाँ आज भी
तुम ……..
मेरी ही
कृपा के पात्र हो
मेरे द्वार के भिखारी
तुम-- हाँ तुम

किन्तु आज मैने
तुम्हारे स्वामित्व के
अहं को तोड़ दिया है
उस कवच में रहकर
तुम कब तक हुंकारोगे
?


आज तुम मेरे समक्ष हो
कवच- हीन
….
वासनालोलुप…..
मेरे लिए तरसते
हुँह!


कितने दयनीय
लगते हो ना..
अब तुम्हारी कोई चाल
मुझपर असर नहीं करती
अपने आत्मबल से मैं
तुम्हें भीतर देख लेती हूँ

बाज़ी आज मेरे हाथ है
सावधान
!
षड़यंन्त्र की कोशिश
कभी मत करना
मेरी आँखों में अँगार है

और……
तुम्हारा रोम-रोम
मेरा कर्जदार है

2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Tuesday, May 6, 2008

वह चीख चीख कर कहती है मै आज की नारी हूँ

वह आज की नारी है
हर बात मे पुरुष से उसकी बराबरी है
शिक्षित है कमाती है
खाना बनाने जेसे
निकृष्ट कामो मे
वक़्त नहीं गवाँती है
घर कैसे चलाए
बच्चे कब पैदा हो
पति को वही बताती है
क्योकि उसे अपनी माँ जैसा नहीं बनना था
पति को सिर पर नहीं बिठाना था
उसे तो बहुत आगे जाना था
अपने अस्तित्व को बचाना था
फिर क्यों
आज भी वह आंख
बंद कर लती है
जब की उसे पता है
की उसका पति कहीँ और भी जाता है
किसी और को चाहता है
समय कहीं और बिताता है
क्यों आज भी वह
सामाजिक सुरक्षा के लिये
ग़लत को स्विकारती है
सामाजिक प्रतिशठा के लिये
अपनी प्रतिशठा को भूल जाती है
और पति को सामाजिक प्रतिशठा कव्च
कि तरह ओढ़ती बिछाती है
पति कि गलती को माफ़ नहीं
करती है
पर पति की गलती का सेहरा
आज भी
दूसरी औरत के स्रर पर
रखती है
माँ जेसी भी नहीं बनी
और रूह्रिवादी संस्कारो सै
आगे भी नहीं बढी.
फिर भी वह चीख चीखकर कहती है
मै आज की नारी हूँ

पुरुष की समान अधिकारी हूँ

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Sunday, May 4, 2008

कदमो ने ढूंढी है नयी दिशा

सबल,सजल,सरल,सढल,सुगंधा,स्वस्तिका
बेडियाँ को तोड़ कदमो ने ढूंढी है नयी दिशा

ममतामयी,कोमल हृदय,कनखर भी मैं नारी

वक़्त पड़े जब रक्षा करने बनू तलवार दो धारी


बहेती रहूंगी हरियाली बिछाती पाने अपना लक्ष

अर्जित करूँ इतनी आज़ादी कह सकु अपना पक्ष


हर जीवन फलता फूलता जिस पे ,मैं हूँ वो शाख

सुलगती चिंगारी हूँ चाहूँ बुरी रस्मे हो जल के राख


© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Friday, May 2, 2008

ज्वलंत प्रश्न हैं अनुतरित

एक सेट मोल्ड { सांचे } मे नारी
यानी मोम की गुडिया
युगों से दब दब कर
दूसरो के मनचाहे आकार मे जो
ढलती रही , पसंद आती रही
एक सिरे पर ही नहीं
दोनों सिरों पर जलती रही
आज उसी मोल्ड { सांचे } को तोड़ कर
जो मोम बह रहा हैं
लावा सबको लग रहा हैं
क्योकी जलने के साथ साथ
वह लावा जला भी रहा है
जहाँ जहाँ से बह रहा है
तोड़ कर अपनी सीमाये
कौन हैं जिमेदार है इस
लावे के बहाने का
कौन करेगा ठंडा इस मोम को
जो लावा बन चुका है
क्या नारी ?
बनकर दुबारा सहनशीलता की प्रतिमा
क्या पुरूष ?
बनकर सहनशील , उदारशील
क्या समाज ?
बदल कर मान्यताये अपनी
ज्वलंत प्रश्न हैं अनुतरित
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!