सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Sunday, November 28, 2010

इग्नोर करो

चलती कार मे
एक लड़की कि अस्मिता को लुटा जाता हैं
और लड़की को ही समझाया जाता है
इग्नोर करो ये सब तो होता रहता हैं



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Saturday, November 20, 2010

जिजीविषा

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शुष्क तपते रेगिस्तान के
अनंत अपरिमित विस्तार में
ना जाने क्यों मुझे
अब भी कहीं न कहीं
एक नन्हे से नखलिस्तान
के मिल जाने की आस है
जहां स्वर्गिक सौंदर्य से ओत प्रोत
सुरभित सुवासित रंग-बिरंगे
फूलों का एक सुखदायी उद्यान
लहलहा रहा होगा !

सातों महासागरों की अथाह
अपार खारी जलनिधि में
प्यास से चटकते
मेरे चिर तृषित अधरों को
ना जाने क्यों मुझे आज भी
एक मीठे जल की
अमृतधारा के मिल जाने की
जिद्दी सी आस है जो मेरे
प्यास से चटकते होंठों की
प्यास बुझा देगी !

विषैले कटीले तीक्ष्ण
कैक्टसों के विस्तृत वन की
चुभन भरी फिजां में
ना जाने क्यों मुझे
आज भी माँ के
नरम, मुलायम, रेशमी
ममतामय, स्नेहिल, स्निग्ध,
सहलाते से कोमल
स्पर्श की आस है
जो कैक्टसों की खंरोंच से
रक्तरंजित मेरे शरीर को
बेहद प्यार से लपेट लेगा !

सदियों से सूखाग्रस्त घोषित
कठोर चट्टानी बंजर भू भाग में
ना जाने क्यों मुझे
अभी भी चंचल चपल
कल-कल छल-छल बहती
मदमाती इठलाती वेगवान
एक जीवनदायी जलधारा के
उद्भूत होने की आस है
जो उद्दाम प्रवाह के साथ
अपना मार्ग स्वयं विस्तीर्ण करती
निर्बाध नि:शंक अपनी
मंजिल की ओर बहती हो !

लेकिन ना जाने क्यों
वर्षों से तुम्हारी
धारदार, पैनी, कड़वी और
विष बुझी वाणी के
तीखे और असहनीय प्रहारों में
मुझे कभी वह मधुरता और प्यार,
हितचिंता और शुभकामना
दिखाई नहीं देती
जिसके दावे की आड़ में
मैं अब तक इसे सहती आई हूँ
लेकिन कभी महसूस नहीं कर पाई !


साधना वैद

Saturday, November 13, 2010

सच हूँ मैं

सच हूँ मैं
एक शाश्वत
कोई बेजान साया नहीं हूँ .
संपदा किसी की
या कोई सरमाया नहीं हूँ.

धडकता है एक दिल
 मेरे भी सीने में
पाना चाहती हूँ मै भी वह ख़ुशी,
जो मिलती है उन्मुक्त जीने में

तुम समझते हो मुझे अपनी जागीर
तो यह तुम्हारी ही भूल है.
नही जान पाए मेरे खाबों की ताबीर
 तो यह तुम्हारी ही भूल है.

मेरे खाबों में,
जीवन की बुनियादों में
भले ही रंग भरना न भरना.
पर फिर मुझे साया
 या अपना सरमाया
समझने की गलती न करना.

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Tuesday, November 9, 2010

फूल और काँटे

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नारी ने सीखा
फूलों से खिलना,
मुस्कुराना और महकना,
तितलियों से सीखा
ऊँचाइयों तक उड़ना
और रंग बिखेरना,
भौंरों से सीखा
गीत गुनगुनाना,
चिड़ियों से सीखा
तिनका-तिनका जोड़कर
घौंसला बनाना,
और जीवन के
हर मोड़ पर चहचहाना,
नदी से सीखा
हरदम बहना
और गतिशील रहना,
सूरज से सीखा
रोशनी लुटाना,
चाँद से सीखा
शीतलता देना और
चाँदनी बिखेरना,
पत्तों से सीखा
हिल-मिल रहना
और इक-दूजे से
सुख-दुख की कथा कहना,
धरती से सीखी धीरता,
आकाश से सीखा विस्तार,
पर्वत से सीखा
संघर्ष के कठिन क्षणों में
फौलाद बन अडिग रहना,
दीपक की बाती से सीखा
निरंतर जलना,
स्थिर रहना,
जगमगाना
और जलकर भी
तम को दूर भगाना,
नारी ने सागर से पाई
मनभर गहराई,
पर्वत से पाई
अछोर ऊँचाई,
पेड़ से सीखा
हरा-भरा रहना
और थके मन-राही को
छाया देना,
नारी ने पवन से सीखा
प्राण लुटाना,
और जल से ली तरलता,
नारी काँटों से भी
करती है प्यार,
उनका भी करती है सत्कार,
क्योंकि फूल के
मुरझाने पर भी
कभी मुरझाते नहीं हैं काँटे!
काँटे करते हैं सदैव
रक्षा फूलों की
और महका देते हैं
पूरे वातावरण को
अपनी महक से !
फूल से इसीलिए तो
जोड़ दिए हैं काँटे भी
विधाता ने !

डॉ. मीना अग्रवाल

तुम्हें पता है ???

तुम्हें पता है ???
बादलों की अनधुनी
अधधुली रुई
सिमटी है मेरे आंचल में
महसूस किया तुम्हें
मैंने और
भीगे तुम मेरे प्यार में
लहर लहर लहराये
 तुम्हारे इषारे
पत्तियों में छनती धूप की तरह
 मेरे हदय आंगन में
 समेट लिया
तुम्हारे छुए प्यार को
पवित्र ओस की तरह
 और सज गया एक फूल
 मेरे जीवन में
हूबहू तम्हारी तरह !!!!
तुम्हें पता है ???
 वो फूल
 अब भी
इर्द गिर्द ही है
मेरे !!....किरण राजपुरोहित नितिला