सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Friday, August 5, 2011

प्रवीण शाह की कविता -- लडकियां

आज के अतिथि कवि हैं प्रवीण शाह और कविता हैं लडकियां पढिये और अपने विचार दीजिये कविता पर भी और लड़कियों की स्थिति पर भी


लड़कियाँ
मैं देखता ही रह जाता हूँ उन्हें
हमेशा ही विस्मित करती हैं मुझे
जब भी देखता हूँ मैं उनको
मिलती हैं हरदम चहचहाती हुई
बिना किसी भी खास बात के
खुलकर हंसती-मुस्कुराती भी

लड़कियाँ
कभी नहीं दिखती वो बेतरतीब
घर से बाहर निकलती हैं सजी-संवरी
हमेशा पहने होती है रंगीन वस्त्र
समेटी चलती हैं खुशियों को हरदम
लगता है छिपा लेती हैं बड़ी खूबी से
हर असुंदरता हर काले पन को

लड़कियाँ
झेलती हैं दुनिया भर के दबाव
अकेले नहीं निकलना बाहर
कॉलोनी में चलो सर नीचा किये
ज्यादा हंसी मजाक शोभा नहीं देता
यह कपड़े शरीफों के लायक नहीं
खबरदार किसी बाहरी से बात की तो

लड़कियाँ
हमेशा ही मानी जाती हैं दोयम
अपने कम लायक भाइयों के सामने
जाने अनजाने कोई न कोई
दिलाता रहता है यह अहसास
तुम इस घर में पल रही जरूर हो
पर हो किसी दूसरे की अमानत ही

लड़कियाँ
ज्यादातर तो नहीं देती दखल कहीं भी
फिर भी होती हैं कुछ दूसरी मिट्टी की
नहीं मानती जो खुद को दोयम
बोलती है खुल कर हर अन्याय पर
लगा देतें हैं लोग लेबल माथे पर उनके
बेहया, कुलटा, घर-उजाड़ू आदि आदि

लड़कियाँ
कहता है हमारा यह समाज
रहना चाहिये हमेशा उन्हें संरक्षा में ही
उनके बचपन में पिता-भाई की
जवानी में यह काम करेगा पति
और बुढ़ापे में बेटों पर होगा दायित्व
कभी नहीं रह पाती हैं वो आजाद

लड़कियाँ
देती हैं अपना पूरा जीवन गुजार
पिता भाईयों पति और बेटों की
उपलब्धियों को ही अपना मान
शायद ही कभी होती है उनके पास
जमीन मकान या कोई संस्थान
जिसे कह सकती हों केवल अपना

लड़कियाँ
उनसे उम्मीद की जाती है हमेशा
दबी जबान में ही बातें करने की
नहीं कर सकती गुस्सा, लगा सकती ठहाके
एक ही भाव उचित माना जाता है उनका
हर छोटे दुख, विपदा तकलीफ पर
किसी पु्रूष के कंधे पर आंसू बहाना

लड़कियाँ
नहीं मानता हमारा यह समाज अभी भी
कि है उन्हें यह अधिकार विरोध जताने का
लड़की होने के, घर से बाहर निकलने के
होटल जाकर खाने के, पसंदीदा कपड़े पहनने के
दिल की बात कहने के, पुरूष का प्रतियोगी होने के
कारण होते दैहिक छेड़छाड़ व अनाचार का

लड़कियाँ
बहुत ही मुश्किल है लड़की होना
आखिर तुम पैदा ही क्यों हुई लड़की
क्या जरूरत थी तुम्हें आवाज उठाने की
तुम भी तो चुप रह ही सकती हो
संस्कृतिवादियों की हाँ में हाँ मिलाती
शर्म-हया से आभूषित औरों की तरह


बस एक ही नुकसान होता तुमको
यह कविता कभी नहीं लिखी जाती...
तुम पर...
मेरे द्वारा...
कभी भी...


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