सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Saturday, November 29, 2008

नारी

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नारी
नारी नाम है उजाले का
नारी नाम है जीवन का
नारी नाम है प्रेम का
नारी ऐसी नदी है
जो बहती है निरंतर
देती है गति मानव को
सींचती है रिश्तों को
अपने खून-पसीने से
नारी उगाती है
संबंधों की फसल
अपने श्रम से
वह नहीं माँगती
प्रतिदान
वह तो चाहती है
बस सम्मान
जहाँ फैलती है
स्वर्णिम आभा प्रेम की
और जहाँ लहलहाते हैं
पौधे ममता के
नारी नाम है उस चरित्र का
जो पहुँचाता है
उच्चता के शिखर पर
नारी नाम है उस रोशनी का
जो देती है उजाला जग को
नारी नाम है उस दीपक का
जो जलता है हर क्षण नारी
देती है रोशनी अंधकार को
और तिल-तिल जलकर
मिटा देती है अपना अस्तित्व
पर दीपित करती है
मानवीय आत्मा को
नारी नाम है संगीत का
जो बिखरे स्वरों को
सँजोकर देती है
नया मधुरिम आकार
किसी अप्रचलित राग को
जो जोड़ती है
सितार के उन तारों को
जो टूटे हैं अधिक तानने से
नारी नाम है उस झंकार का
जो जोड़्ती है
उन बिखरे घुँघुरुओं को
जो थक गए हैं थिरकते-थिरकते
उन्हें ममता के धागे में पिरोकर
देती है नई गति
रूपायित करती है
नई ताल और नई लय
जो देती है नई पहचान
मानवता को
जिससे प्रकाशित है
धरती का कण-कण
नारी नाम है उस पुस्तक का
जो जलाती है ज्योति ज्ञान की
नारी नाम है वात्सल्य का
जिसके आँचल तले
पलती है पूरी मानवता
नारी नाम है जीवन-संगीत का
जो होता है झंकृत पल-पल
नारी नाम है उस अस्मिता का
जो देती है एक पहचान
समाज को
नारी नाम है प्रेरणा का
जो करती है प्रेरित
जन-जन को
नारी सागर है प्यार का
जो उमड़ता है पल-पल
और भिगो देता है
सबका तन-मन
नारी नाम है वीरता का
जो फूँक देती है प्राण
वीरों के सोए भावों में
नारी नाम है उस विश्वास का
जो जगा देती है
शक्ति कर्म की
नारी नाम है एसे साथी का
जो देता है सहारा
लड़खड़ाते पाँवों को
नारी नाम है
उस प्रकाश- स्तंभ का
जो देती है नेत्र-ज्योति
दृष्टिहीनों को
खड़ी रहती है
अडिग और अकेली
संघर्ष के क्षणों में भी
नारी नाम है
उस जीवनधारा का
जो गतिमान है सदियों से
जो जीवन-प्रदायिनी है
युगों-युगों से
नारी की इस संपूर्णता को
शत-शत नमन !

डॉ. मीना अग्रवाल्

Thursday, November 27, 2008

शोक और आक्रोश


आज टिपण्णी नहीं साथ चाहिये । इस चित्र को अपने ब्लॉग पोस्ट मे डाले और साथ दे । एक दिन हम सब सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दी ब्लॉग पर अपना सम्मिलित आक्रोश व्यक्त करे । चित्र आभार

Monday, November 24, 2008

बहती बलखाती चंचला

बहती बलखाती चंचला
खुद में एक उन्माद लिए चलती हूँ
या कोई जुनून सवार है हम पर
मिलो मिल की राहें तय करती हुई
मंज़िल-ए-निशा की चाहत में
निकल पड़ी हूँ
एक गहरी उम्मीद के सहारे
इस राह पर चलते हुए हर मोड़ पर
कुछ बदलाव आएगा
मैं कोशिश करती रहूंगी
बिना रुके ,बिना डरे
कुछ हासिल हुआ है
कुछ बाकि ..

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Thursday, November 20, 2008

कर्म करो कुछ ऐसे!

यदि नारी हो
तो क्या?
निर्बल मत बनो,
याचना के लिए
कर मत उठाओ,
कर्म कर उन्हें
सार्थक बनाओ ।
कर्म कभी होता निष्फल नहीं,
कम कभी अधिक भी देता है,
जन्म लेने की यही सार्थक दिशा होगी
ममता का जो सागर
ईश्वर ने दिया है
सिक्त कर प्रेम से
खुशी कुछ चेहरों पर लाओ
कभी इन हाथों से
उठाकर सीने से लगाओ
कभी इन हाथों से
आंसू किसी के सुखाओ
दीप एक आशा का
कर्म कर सबमें जगाओ
ज्योति उनके भी
मन में जलाकर
नई दिशा सबको दिखाओ
सोचो एक दीप जलाकर
प्रकाश कितनों को देता है
स्वयं को मिटा कर
रास्ता दिखा जाता है
हमसे सार्थक वही,
मनुज बनकर हम भी
क्यों न सार्थक हों।

Sunday, November 9, 2008

विश्वास

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विश्वास
तुम किसी को कुछ भी कहो
किसी को डाँटो, प्यार करो
पर मैं कुछ न बोलूँ
मुँह न खोलूँ
और बोलने से पहले
स्वयं को तोलूँ
फिर कैसे जीऊँ !
समाज की
असंगतियाँ और विसंगतियाँ
कब होंगी समाप्त
कब मिलेगा समान रूप से
जीने का अधिकार
रेत होता अस्तित्व
कब लेगा सुंदर आकार
किसी साकार कलाकृति का !
इसी आशा में इसी प्रत्याशा में
जी रही है आज की नारी
कि कोई तो कल आएगा
जो देगा ठंडक मन को
काँटों में फूल खिलाएगा
देगा हिम्मत तन-मन को
जीवन को
खुशियों से महकाएगा
तन में आस
जीने की प्यास और
मन में विश्वास जगाएगा
पूरा है भरोसा
और पूरी है आस्था
कि वह अनोखा
एक दिन अवश्य आएगा !

आखिर क्यों

ये कविता डा.मीना अग्रवाल ने नारी ब्लॉग पर पोस्ट की हैं । इस को मे यहाँ पोस्ट कर रही हूँ , मीना जी के लिये ब्लोगिंग एक नया मीडियम हैं अपनी अभिव्यक्ति का । नारी की सदस्य बनने के बाद ये उनकी पहली पोस्ट हैं । आप सब भी पढे ।

आखिर क्यों
सहती रहती है नारी
शायद इसलिए
कि उसने टूटकर भी
नहीं सीखा है टूटना
लेकिन एक अहम सवाल
कौंधता है
मस्तिष्क में बार-बार
कि कब तक सहेगी
और टूट्ती रहेगी
इसी तरह
जन्म होते ही
समाज के सुधारक
तथाकथित संभ्रांत जन
क्यों देखते हैं बेटी को
निरीह और उदास आँखों से
जन्म पर
क्यों नहीं बजतीं
शहनाइयाँ आँगन में
क्यों नहीं गाए जाते
मंगलगीत और बधाइयाँ
क्यों नहीं बाँटी जाती
मिठाई पूरे गाँव में
आखिर क्यों ?
क्यों नहीं
खेलने दिया जाता
स्वच्छंदता के साथ
बेटों की तरह
क्यों नहीं पढ़ने के लिए
भेजा जाता स्कूल
और यदि
स्कूल भेजा भी गया
तो रहती है उससे
यही अपेक्षा
कि वह घर आकर
कामों में हाथ बटाए
क्यों बेटों को
मिलता है दुलार
दिया जाता है
पौष्टिक आहार
और बेटी को
बचा हुआ भोजन
आखिर क्यों ?
बेटी को
क्यों नहीं दिया जाता
मज़बूत आधार
बराबर का अधिकार
क्यों उसकी इच्छाओं की
पूर्ति नहीं की जाती
विवाह के बाद
क्यों उसकी पहचान
नहीं दी जाती
क्यों समझा जाता है
उसे मशीन
क्यों नहीं होती
उसके पास
पंख फैलाने के लिए ज़मीन
आखिर क्यों ?
समाज के
अत्याचारों का ताप
क्यों सुखा देता है
उसे आँसू
क्या उसके मन में
नहीं उठता है तूफान
क्या उसके अंतरतम में
नहीं है कोई भावना
फिर क्यों
उसकी बात को
किया जाता है अनसुना
क्यों उसे
सबकुछ सहकर भी
चुप रहने के लिए
किया जाता है बाध्य
आखिर क्यों ?
वो टूट्कर भी
कण-कण जोड़ती है
सबको जोड़कर
ग़लत को भी
सही राह पर मोड़ती है
बिखरे हुए परिवार
और फिर समाज को
परस्पर तिल-तिल सहेजती है
फिर क्यों
उसके टूटे तन-मन को
नहीं समेटता ये समाज
नारी की दुश्मन
नारी ही क्यों है आज
क्यों उसके सपने
नहीं ले पाते हैं आकार
क्यों है वह लाचार
क्यों नहीं उसे
बनने दिया जाता है
उन्मुक्त आकाशचारी
क्यों पिंजड़े में बन्द
दूसरों के स्वार्थ की
भाषा बोलने के लिए
मज़बूर है नारी
क्यों उड़ने से पहले ही
काट दिए जाते हैं
उसके नन्हे-नन्हे
कोमल-कोमल पंख
आखिर क्यों ?
ग़लती सबसे होती है
लेकिन उसकी
एक छोटी-सी ग़लती
होती है
हज़ार के बराबर
और पुरुष को
हज़ार ग़ल्तियाँ
करने पर भी
वही स्म्मान वही आदर
आखिर क्यों ?
क्यों है इतना भेद-विभेद
क्यों है इतना दृष्टिभेद
आखिर क्यों ?
जब तक इस जलते हुए
सवाल का उत्तर
नहीं मिलता
जब तक नारी की
आँख के आँसू
बनकर सैलाब
नहीं ले जाते बहाकर
समाज के आडंबरों की
ऊँची-ऊँची गगनचुंबी
अट्टालिकाओं को
तब तक नारी­-मन
रहेगा भटकता
होते रहेंगे अत्याचार
होती रहेंगी भ्रूणहत्याएँ
इसी तरह !

डा. मीना अग्रवाल






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