सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Saturday, April 30, 2011

द्रौपदी


 एक नारी के मन की -
व्यथा हो तुम 
धूलिसात अभिमान  का 
प्रतीक हो तुम 
रिश्तों में छली गयी 
नारी हो तुम 
पर निष्ठुर  भाग्य को धता 
देती हो तुम 
अंतस  की  पीड़ा  का 
आख्यान हो तुम
द्युतक्रीडा के परिणाम का 
व्याख्यान हो तुम 
भक्ति की पराकाष्ठा  को 
छूती हो तुम  
एक अबला की सबल -
गाथा हो तुम 
मर्यादित रिश्तों की 
भाषा हो तुम 
एक सुलझी हुई नारी की 
पहचान हो तुम 

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Tuesday, April 19, 2011

हे पुरुष !


पौरूष तुम्हारा
तुम्हारे चौड़े कंधो में नही
तुम्हारी बांहों के मज़बूत घेरे में है
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारी गंभीर ऊँची आवाज़ में नही
तुम्हारे मीठे स्वर में है
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारे बाहरी कर्म क्षेत्र के सम्मान में नही
घर में सम्मानित होने में भी है
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारे अनगिनत दोस्तों में नही
अपने बच्चों के दोस्त होने में भी है ...
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारे क्रूर होने में नही
तुम्हारे दया से भरपूर स्पर्श में है
पौरूष तुम्हारा
नारी को नर से नीचा दिखाने में नही
उसे मानव सा मान समान समझने में है...
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारे अहम् दिखाने में नही
सागर से विशाल हृदय को दिखाने में है....


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Sunday, April 17, 2011

स्त्रियां
बांटती हैं दर्द
एक दूसरे का
बतियाती हैं अपने दुख
दबी-दबी आवाज़ में
अगल-बगल रखी कुर्सियां भी न सुन लें
फुसफुसाती हैं
आंखों से बरसते बादल को
बार-बार पोंछती हैं
मन ही मन फुंफकारती भी हैं
और फिर जुट जाती हैं
रोज़ के अपने काम में


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Thursday, April 7, 2011

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर ......आनंद द्विवेदी ०८/०३/२०११

आज कि कविता अतिथि कवि कि हैंकवि का नाम हैं आनंद द्विवेदी हैं
कविता का शीर्षक हैं

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर ......


क्रांति कर दिया हमने तो
अरे महिलाओं की बात कर रहा हूँ.....
एकदम बराबरी का दर्ज़ा दे दिया जी
कई कानून बना दिए इसके लिए
अब औरत को दहेज़ के लिए नहीं जलाया जा सकता
कार्यालयों में उसके साथ छेड़खानी नहीं की जा सकती
उसके कहीं आने जाने पर पाबन्दी नहीं है
और तो और ...
हमने सेनाओं में भी उसके लिए द्वार खोल दिया हैं
वगैरह वगैरह!
वो जरा सी अड़चन है नहीं तो
उसे ३० प्रतिशत आरक्षण भी देने वाले हैं 'हम '
दोस्तों!
न जाने क्यूँ मुझे लगता है
कि नाटक कर रहे हैं हम
बढती हुई नारी शक्ति से हतप्रभ हम
उसे किसी न किसी तरीके से
बहलाए रखना चाहते हैं...
उसे उसकी स्वाभाविक स्थिति से
आखिर कब तक रोकेंगे हम ...?
वो जाग गयी है अब
और हमने पुरुष होने का टप्पा बांधा हुआ है आँखों पर,
गुजारिश है कि अब हम
उसे कुछ और न ही दें तो अच्छा है.
वो वैसे ही बहुत कृतज्ञ है हमारी
हर जगह हमारी भूखी निगाहों से बचते हुए
बगल से निकल जाने पर बे वजह धक्का खाते हुए
बसों में ट्रेनों में ,
स्कूल जाते हुए, आफिस जाते हुए
बाज़ार जाते हुए,
"उधर से नहीं उधर सड़क सुनसान है "
जरा सा अँधेरा हो जाये तो ...
ऊपर से सामान्य पर अन्दर से कांपते हुए ...
वो हर समय
हमारी कृतज्ञता महसूस करती है...


अगर सच में हमें कुछ करना है
तो क्यूँ न हम यह करें ...कि
दाता होने का ढोंग छोड़ कर
उनसे कुछ लेने कि कोशिश करें
मन से उनको नेतृत्त्व सौप दें
कर लेने दें उन्हें अपने हिसाब से
अपनी दुनिया का निर्माण
तय कर लेने दें उन्हें अपने कायदे
छू लेने दें उन्हें आसमान
और हम उनके सहयात्री भर रहें ...
दोस्तों !
आइये ईमानदारी से इस विषय में सोंचें !!

----आनंद द्विवेदी ०८/०३/२०११




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Tuesday, April 5, 2011

टुकड़ा टुकड़ा आसमान

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अपने सपनों को नई ऊँचाई देने के लिये
मैंने बड़े जतन से टुकड़ा टुकडा आसमान जोडा था
तुमने परवान चढ़ने से पहले ही मेरे पंख
क्यों कतर दिये माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने भविष्य को खूबसूरत रंगों से चित्रित करने के लिये
मैने क़तरा क़तरा रंगों को संचित कर
एक मोहक तस्वीर बनानी चाही थी
तुमने तस्वीर पूरी होने से पहले ही
उसे पोंछ क्यों डाला माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने जीवन को सुख सौरभ से सुवासित करने के लिये
मैंने ज़र्रा ज़र्रा ज़मीन जोड़
सुगन्धित सुमनों के बीज बोये थे
तुमने उन्हें अंकुरित होने से पहले ही
समूल उखाड़ कर फेंक क्यों दिया माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने नीरस जीवन की शुष्कता को मिटाने के लिये
मैंने बूँद बूँद अमृत जुटा उसे
अभिसिंचित करने की कोशिश की थी
तुमने उस कलश को ही पद प्रहार से
लुढ़का कर गिरा क्यों दिया माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
और अगर हूँ भी तो क्या यह दोष मेरा है ?

साधना वैद

क्योंकि हमें जीना है

हमें नहीं छापनी ख़बरें औरतों पर ज़ुल्म की
उनकी आज़ादी पर अब और चर्चा नहीं करनी
उनकी बेड़ियों की बात नहीं करनी
हमें अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस जैसा कोई दिवस
नहीं मनाना
क्योंकि हमें जीना है
जैसे तुम जीते हो
तुम, जो स्त्री नहीं हो
और आधी आबादी
आधी दुनिया भी नहीं बनना हमें
हम पूरी हैं
जैसे एक पूरी गोल रोटी
क्या तुम आधी रोटी खाते हो बस

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