सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Thursday, November 26, 2009

स्वर

तुहिन कणों में हास्य मुखर
सौरभ से सुरभित हर मंजर
रंगों का फैला है जमघट
मूक प्रकृति को मिले स्वर
बाहर कितना सौन्दर्य बिखरा -
पर अंतर क्यों खाली है
काश कि ये सोन्दर्य सिमट
मुझमे भर दे उल्लास अमिट

Monday, November 9, 2009

वन्दे मातरम -- मातृ भूमि कुमाता कैसे हो जाये ??

ना जाने क्यूँ लोग बार बार

उनसे कहते हैं वन्दे मातरम गाओ

वन्दे मातरम

और

जन गण मन

तो वही गाते हैं

जिनके मन मे देश प्रेम होता हैं

मातृ भूमि को जो चाहेगे

वो ईश्वर से भी मातृ भूमि के लिये लड़ जायेगे

दो बीघा जमीन बस दो बीघा जमीन नहीं होती हैं

अन्न देती हैं , जीवन देती हैं

उस माँ कि तरह होती हैं

जो नौ महीने कोख मे रखती हैं

खून और दूध से सीचती हैं

पर माँ को माँ कब ये मानते हैं

कोख का मतलब ही कहां जानते हैं

मातृ भूमि भी माँ ही होती हैं

कुमाता नहीं हो सकती हैं

इसीलिये तो कर रही हैं इनको

अपनी छाती पर बर्दाश्त

ये जमीन हिन्दुस्तान कि

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Tuesday, November 3, 2009

एक फौज औरतो की

सदियों से
तैयार की जाती रही हैं
एक फौज
औरतो की जो चलती रहे
बिना प्रश्न किये , बिना मुंह खोले
करती रहे जो शादी जनति रहे जो बच्चे
जिसके सुख की परिभाषा हो
पति और पुत्र के सुख की कामना
और
जो लड़ती रहे एक दूसरे से
बिना ये जाने की वो
एक चाल मे फंस गयी हैं
जहाँ पूरक वो कहलाती हैं
पर पूरक शब्द का
अर्थ पूछने का अधिकार
भी उसका नहीं होता हैं
तैयार की जा रही हैं
एक फौज औरतो की
जिसकी संवेदना मर गयी हैं
उसके अपने लिये
क्युकी उस को कहा जाता हें
और जाता रहेगा
की औरत का सुख
पति बच्चो और घर से ही होता हैं





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