सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Tuesday, October 28, 2008

शुभ दीपावली!




परमार्थ में जीवन को ही मिटा दे,
दीप सा दधीचि दूसरा हुआ कहाँ?
वह तो जल पूरा गया फिर भी,
हर मन में उजाला हुआ कहाँ?
एक दीप प्रेम का जलाएं,
जो हर मन का कलुष मिटाए,
सूनी आँखों में फिर से ,
एक जीवन ज्योति जलाये,
आओ ऐसी एक नयी दीपावली मनाएं.

हमारे "हिन्दी ब्लॉग समूह" को सपरिवार दीपावली शत-शत मंगलमय हो!

Monday, October 27, 2008

शुभा की कुछ और कविताएं

चिट्ठा चर्चा में अनूप शुक्ला ने `औरतों की कविताएं' पसंद करते हुए उनमें से एक कविता उद्धृत भी की है। उनकी एक व्यंग्य भरी शिकायत मेरी एक पंक्ति पर भी है और उन्होंने कहा है - `औरतों की कवितायें : औरतों की हैं,औरतों के बारे में हैं, औरतों के लिए हैं। मर्द पड़ेंगे तो समझ लें!`
सबसे पहले तो माफी औरतों की कविताओं को औरतों की कहने के लिए। वैसे भी हम गुलामों को कोई भी काम अपने लिए करने की मनाही रही है। अभी तो हमारे उन कामों का भी कोई खाता नहीं है जो सदियों से पुरुषों की सेवा में कए जा रहे हैं। लिखना-पढ़ना तो यों भी हमारे लिए सदियों तक वर्जित रहा। वैसे इन कविताओं को औरतों के लिए कहने के पीछे कोई मंशा नहीं थी। पुरुष वाकई हमारी लिखी चीजें पढ़ना, उन पर विचार करना और इस दुनिया को ज्यादा न्यायसंगत बनाने की लड़ाई में साथ देना चाहें तो इससे बेहतर क्या हो? आखिर जिस बेहतर समाज की लड़ाई हम औरतों के कंधों पर है, वो बेहतर समाज यहां रहने वाले सभों का ही है और इस लड़ाई में जिम्मेदारी भी सभों की बनती है।

रचना ने शुभा के बारे में जानना चाहा है, हालांकि अभी आलोचना की पुरुष दुनिया के पास एसे टूल्स नहीं हैं जो हम औरतों की लिखे-कहे को और उसके पीछे छिपे सार को देख सकें। लेकिन इस पुरुष दुनिया के पास एसे टूल्स बहुतायत में हैं जिनके जरिए वह हर विद्रोही स्वर को अनुकूलित कर लेती है। हम देख सकती हैं कि इन दिनों महिला लेखन के नामपर बहुतायत में एसा लिखा जा रहा है जो पहली नजर में विद्रोह लगता तो है लेकन साहित्य की दुनिया के संचालकों को जरा भी विचलित करने के बजाय सुकून देता है। धुर स्त्री विरोधी कट्टरवादी संघों-जमातों की बात छोड़ दें, स्त्री मुक्ति के मसीहा बने बैठे कितने ही राजेंद्र यादवों (यहां तमाम प्रगतिशील नामवर पुरुषों के नाम बदल-बदल कर पढ़ें) को अपनी छांव में एसा स्त्री लेखन पालने-पोसने का खासा शौक रहा है। सौभाग्य से शुभा की जो भी चीजें इधर-उधर छपीं देखीं, वे संरक्षकों के इस सुकून को भंग करती हैं।


शुभा अलीगढ़ में पैदा हुईं और एमए तक की शिक्षा उन्होंने वहीं पूरी की। 1977 के आसपास के कुछ वर्ष उन्होंने जेएनयू में बिताए। रोहतक (हरियाणा में) के एक कालेज में पढ़ाती हैं। नवजागरण मुहिम में बतौर एक्टिविस्ट हरियाणा के गांवों की खासी खाक छान चुकी हैं और इस वजह से लिखना बुरी तरह प्रभावित रहा है। छपा तो और भी कम है।
बहरहाल, दोस्तों के अनुरोध पर शुभा की कुछ और कविताएं-

आदमखोर
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एक स्त्री बात करने की कोशिश कर रही है
तुम उसका चेहरा अलग कर देते हो धड़ से
तुम उसकी छातियां अलग कर देते हो
तुम उसकी जांघें अलग कर देते हो

तुम एकांत में करते हो आहार
आदमखोर! तुम इसे हिंसा नहीं मानते


आदमखोर उठा लेता है
छह साल की बच्ची
लहूलुहान कर देता है उसे

अपना लिंग पोंछता है
और घर पहुँच जाता है
मुंह हाथ धोता है और
खाना खाता है

रहता है बिल्कुल शरीफ आदमी की तरह
शरीफ आदमियों को भी लगता है
बिल्कुल शरीफ आदमी की तरह।


सवर्ण प्रौढ़ प्रतिष्ठित पुरुषों के बीच
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सवर्ण प्रौढ़ प्रतिष्ठित पुरुषों के बीच
मानवीय सार पर बात करना ऐसा ही है
जैसे मुजरा करना
इससे कहीं अच्छा है
जंगल में रहना पत्तियां खाना
और गिरगिटों से बातें करना।


अकलमंदी और मूर्खता
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स्त्रियों की मूर्खता को पहचानते हुए
पुरुषों की अक्लमंदी को भी पहचाना जा सकता है

इस बात को उलटी तरह भी कहा जा सकता है

पुरुषों की मूर्खताओं को पहचानते हुए
स्त्रियों की अक्लमंदी को भी पहचाना जा सकता है

वैसे इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि
स्त्रियों में भी मूर्खताएं होती हैं और पुरुषों में भी

सच तो ये है
कि मूर्खों में अक्लमंद
और अक्लमन्दों में मूर्ख छिपे रहते हैं
मनुष्यता ऐसी ही होती है

फिर भी अगर स्त्रियों की
अक्लमंदी पहचाननी है तो
पुरुषों की मूर्खताओं पर कैमरा फोकस करना होगा।

Sunday, October 26, 2008

औरतों की कविताएं

ये कविताएं औरतों की हैं,औरतों के बारे में हैं, औरतों के लिए हैं। कवयित्री हैं शुभा। इस सीरीज की एक कविता मैंने अपने ब्लॉग पर डाली थी। अब सारी कविताएं एक साथ, नारी के कविता ब्लॉग पर।

औरतें
औरतें मिट्टी के खिलौने बनाती हैं
मिट्टी के चूल्हे
और झाँपी बनाती हैं

औरतें मिट्टी से घर लीपती हैं
मिट्टी के रंग के कपडे पहनती हैं
और मिट्टी की तरह गहन होती हैं

औरतें इच्छाएं पैदा करती हैं और
ज़मीन में गाड़ देती हैं

औरतों की इच्छाएं
बहुत दिनों में फलती हैं
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2-औरत के हाथ में न्याय

औरत कम से कम पशु की तरह
अपने बच्चे को प्यार करती है
उसकी रक्षा करती है

अगर आदमी छोड़ दे
बच्चा मां के पास रहता है
अगर मां छोड़ दे
बच्चा अकेला रहता है

औरत अपने बच्चे के लिए
बहुत कुछ चाहती है
और चतुर ग़ुलाम की तरह
मालिकों से उसे बचाती है
वह तिरिया चरित्तर रचती है

जब कोई उम्मीद नहीं रहती
औरत तिरिया चरित्तर छोड़कर
बच्चे की रक्षा करती है

वह चालाकी छोड़
न्याय की तलवार उठाती है

औरत के हाथ में न्याय
उसके बच्चे के लिए ज़रूरी
तमाम चीजों की गारंटी है।
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3- औरत के बिना जीवन

औरत दुनिया से डरती है
और दुनियादार की तरह जीवन बिताती है
वह घर में और बाहर
मालिक की चाकरी करती है

वह रोती है
उलाहने देती है
कोसती है
पिटती है
और मर जाती है

बच्चे आवारा हो जाते हैं
बूढ़े असहाय
और मर्द अनाथ हो जाते हैं
वे अपने घर में चोर की तरह रहते हैं
और दुखपूर्वक अपनी थाली खुद मांजते हैं
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4-औरतें काम करती हैं

चित्रकारों, राजनीतिज्ञों, दार्शनिकों की
दुनिया के बाहर
मालिकों की दुनिया के बाहर
पिताओं की दुनिया के बाहर
औरतें बहुत से काम करती हैं

वे बच्चे को बैल जैसा बलिष्ठ
नौजवान बना देती हैं
आटे को रोटी में
कपड़े को पोशाक में
और धागे को कपड़े में बदल देती हैं।

वे खंडहरों को
घरों में बदल देती हैं
और घरों को कुंए में
वे काले चूल्हे मिट्टी से चमका देती हैं
और तमाम चीज़ें संवार देती हैं

वे बोलती हैं
और कई अंधविश्वासों को जन्म देती हैं
कथाएं लोकगीत रचती हैं

बाहर की दुनिया के आदमी को देखते ही
औरतें ख़ामोश हो जाती हैं।

5-निडर औरतें

हम औरतें चिताओं को आग नहीं देतीं
क़ब्रों पर मिट्टी नहीं देतीं
हम औरतें मरे हुओं को भी
बहुत समय जीवित देखती हैं

सच तो ये है हम मौत को
लगभग झूठ मानती हैं
और बिछुड़ने का दुख हम
खूब समझते हैं
और बिछुड़े हुओं को हम
खूब याद रखती हैं
वे लगभग सशरीर हमारी
दुनियाओं में चलते-फिरते हैं

हम जन्म देती हैं और इसको
कोई इतना बड़ा काम नहीं मानतीं
कि हमारी पूजा की जाए

ज़ाहिर है जीवन को लेकर हम
काफी व्यस्त रहती हैं
और हमारा रोना-गाना
बस चलता ही रहता है

हम न तो मोक्ष की इच्छा कर पाती हैं
न बैरागी हो पाती हैं
हम नरक का द्वार कही जाती हैं

सारे ऋषि-मुनि, पंडित-ज्ञानी
साधु और संत नरक से डरते हैं

और हम नरक में जन्म देती हैं
इस तरह यह जीवन चलता है
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6- बाहर की दुनिया में औरतें


औरत बाहर की दुनिया में प्रवेश करती है
वह खोलती है
कथाओं में छिपी अंतर्कथाएं
और न्याय को अपने पक्ष में कर लेती हैं
वह निर्णायक युद्द को
किनारे की ओर धकेलती है
और बीच के पड़ावों को
नष्ट कर देती है

दलितों के बीच
अंधकार से निकलती है औरत
रोशनी के चक्र में धुरी की तरह

वह दुश्मन को गिराती है
और सदियों की सहनशक्ति
प्रमाणित करती है

Sunday, October 12, 2008

नारी - व्यथा

रेखा श्रीवास्तव की ये कविता हम अतिथि कवि की कलम से के तहत पोस्ट कर रहे हैं ।लेखिका रेखा श्रीवास्तव कानपुर की निवासी हैं और हिन्दी ब्लोगिंग मे नयी हैं उनके ब्लॉग पर उनकी ये कविता देखी , संपर्क सूत्र ना होने की वजह से संपर्क नहीं कर सकी । कविता को पढे जरुर और टिप्पणी भी दे की क्यों एक विवाहिता का दर्द इतना गहरा होता हैं ।

नारी - व्यथा

जीवन जिया,
मंजिलें भी मिली,
एक के बाद एक
बस नहीं मिला तो
समय नहीं मिला।
कुछ ऐसे क्षण खोजती ही रही ,
जो अपने और सिर्फ अपने लिए
जिए होते तो अच्छा होता।
जब समझा अपने को
कुछ बड़े मिले कुछ छोटे मिले
कुछ आदेश और कुछ मनुहार
करती रही सबको खुश ।
दूसरा चरण जिया,
बेटी से बन बहू आई,
झूलती रही, अपना कुछ भी नहीं,
चंद लम्हे भी नहीं जिए
जो अपने सिर्फ अपने होते।
पत्नी, बहू और माँ के विशेषण ने
छीन लिया अपना अस्तित्व, अपने अधिकार
चाहकर न चाहकर जीती रही ,
उन सबके लिए ,
जिनमें मेरा जीवन बसा था।
अपना सुख, खुशी निहित उन्हीं में देखि
थक-हार कर सोचा
कुछ पल अपने लिए
मिले होते
ख़ुद को पहचान तो लेती
कुछ अफसोस से
मुक्त तो होती
जी तो लेती कुछ पल
कहीं दूर प्रकृति के बिच या एकांत में
जहाँ मैं और सिर्फ मैं होती।
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Thursday, October 2, 2008

लाईट लो बिटिया , पत्नी बनकर जीवन लाईट होता हैं

आज एक ब्लॉग पर एक कविता पढी और फिर ये लिखा । पत्नी की भावनाओं को हमेशा लाईट ही लिया जाता हैं । ये कविता केवल एक कोशिश हैं पत्नी को लाईट ना समझ कर सीरियस समझने की । और बात अगर मनवानी पड़े तो समझिये की बात मे कुछ ग़लत जरुर हैं क्युकी पत्नी के पास भी एक दिमाग होता हैं सही और ग़लत समझने का । पत्नी आप की दासी नहीं होती की हर बात माने

तुम सदियों से लाईट लेते रहे
पत्नी पर व्यंग करते रहे और
सुधिजन संग तुम्हारे मंद मंद हँसते रहे
घर मे हमको लाकर
व्यवस्था के नाम पर
वो सब हम से करवाया
बिना हम से पूछे की
क्या हमने करना भी चाहा
हमारी पढाई गयी चूल्हे मे
तुम्हारी पढ़ाई से तरक्की हुई
हमारे माता पिता का सम्मान
उनके दिये हुए सामान से
तुम्हारे माता पिता का सम्मान
तुम्हे पैदा करने से
हम चाकर तुम मालिक
घर तुम्हारा बच्चे तुम्हारे वंश तुम्हारा
तुम हो तो हम श्रृगार करे
ना हो तो सफ़ेद वस्त्र पहने
हम पर कब तक व्यंग
और फब्तियां कसोगे
उस दिन समझोगे की
पिता की पीडा क्या होती हैं
जब अपनी बेटी ब्याहोगे
हम तब भी उसको यही समझायेगे
जो हमारी माँ ने हमको समझाया
बिटिया निभा लो जैसे हमने निभाया
समझोते का नाम जिन्दगी हैं
और जिन्दगी जीने का अधिकार
पति का हैं
पत्नी को तो जीवन
काटना होता हैं
लाईट लो बिटिया
पत्नी बनकर जीवन लाईट होता हैं
क्योकि भार तुम्हारा , तुम्हारा पति कहता हैं
की वह ढोता हैं
और
समय असमय व्यवस्था के नाम पर
पत्नी को कर्तव्य बोध कराता हैं
फिर
ख़ुद लाईट हो जाता हैं