सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Monday, February 28, 2011

नारी कविता ब्लॉग पर केवल नारी आधरित विषयों पर ही कविता पोस्ट करे अन्यथा हटानी पड़ती हैं

नारी कविता ब्लॉग पर केवल नारी आधरित विषयों पर ही कविता पोस्ट करे अन्यथा हटानी पड़ती हैं

Tuesday, February 22, 2011

नारी जो कभी न हारी..

नारी
जो कभी न हारी,
अस्तित्व बचाने हेतु
विपदा झेली भारी-भारी,

नारी
जो कभी न हारी.
लाज बचाने को अपनी
बनके काली वो ललकारी,

नारी
जो कभी न हारी
किसी ने कहा उसे अबला
तो किसी ने कह दिया बेचारी,

नारी
 जो कभी न हारी
जीवन में नित देखे संघर्ष,
फिर भी लड़ना रखा जारी

नारी जो कभी न हारी.

Saturday, February 19, 2011

बोलता प्रश्न

.
क्यों नहीं है उसको
बोलने का अधिकार
या फिर अपनी बात को
कहने का अधिकार,
क्यों नहीं है अपनी पीड़ा को
बाँटने का अधिकार,
क्यों नहीं है
ग़लत को ग़लत
कहने का अधिकार !
क्यों चारों ओर उसके
लगा दी जाती है
कैक्टस की बाड़
क्यों कर दिया जाता है खामोश
क्यों नहीं बोलने दिया जाता उसे ?
यह प्रश्न अनवरत
उठता रहता है मन में,
बिजली- सी कौंधती रहती है
मस्तिष्क में,
बचपन से अब तक
कभी भी अपनी बात को
निर्द्वंद्व होकर कहने की
हिम्मत नहीं जुटा पाई है वह ।
जब भी कुछ कहने का
करती है प्रयास
मुँह खोलने का
करती है साहस
वहीं लगा दिया जाता है
चुप रहने का विराम ।
आठ की अवस्था हो
या फिर साठ की
वही स्थिति, वही मानसिकता
आखिर किससे कहे
अपनी करुण-कथा
और किसको सुनाए
अपनी गहन व्यथा ।
जन्म लेते ही
समाज द्वारा तिरस्कार
पिता से दुत्कार
फिर भाइयों के
गुस्से की मार
ससुराल में
पति के अत्याचार
सास-ननद के
कटाक्षों के वार
वृद्धावस्था में
बेटे की फटकार
बहू का विषैला व्यवहार
सब कुछ सहते-सहते
टूट जाती है वह,
क्योंकि उसे तो
मिले हैं विरासत में
सब कुछ सहने
और
कुछ न कहने के संस्कार ।
यदि ऐसा ही रहा
समाज का बर्ताव
मिलते रहे
उसे घाव पर घाव,
ऐसी ही रही चुप्पी
चारों ओर
तो शायद मन की घुटन
तोड़ देगी अंतर्मन को
अंदर-ही-अंदर,
फैलता रहेगा विष
घुटती रहेंगी साँसें
टूटती रहेंगी आसें
तो जिस बात को
वह करना चाहती है
अभिव्यक्त
वह उसके साथ ही
चली जाएगी,
फिर इसी तरह
घुटती रहेंगी बेटियाँ,
ऐसे ही टूटता रहेगा
उनका तन और मन,
होते रहेंगे अत्याचार
होती रहेंगी वे समाज की
घिनौनी मानसिकता का शिकार ।
कब बदलेगा समय,
जब समाज के
कथित ठेकेदार
समाज की चरमराई
सड़ी-गली व्यवस्था को
मजबूती देने के लिए
आगे आएँगे,
क़दम बढ़ाएँगे,
कब आएगा वह दिन
जब नारी की बात
उसकी पीड़ा,उसकी चुभन,
उसके मन का संत्रास
समझेगा यह समाज,
विश्वास है उसे
कि वह दिन आएगा
जरूर आएगा ।

2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!

डॉ.मीना अग्रवाल
.

Sunday, February 13, 2011

मेरी बेटी

है बड़ी मासूम उसकी मुस्कुराहट क्या कहूँ !
वो सदा पहचान जाती मेरी आहट क्या कहूँ !
एक पल भी दूर उससे रह नहीं सकती हूँ मैं
गोद में ही लेते उसको मिलती राहत क्या कहूँ !
देखते ही स्नेह से चूम लेती उसको मै
मखमली बाँहों से उसका घेर लेना क्या कहूँ !
उसकी किलकारी मेरे कानों में अमृत घोलती
माँ! मुझे कहकर के उसका खिलखिलाना क्या कहूँ !
वो मेरी बेटी ,मेरा सर्वस्व ,मेरी जिन्दगी
है मेरे वो दिल की धड़कन और ज्यादा क्या कहूँ !

Friday, February 11, 2011

बधाई हो घर में लक्ष्मी आई है

उन्हें कभी एकमत
होते नहीं देखा था 
उस दिन जब वह 
जन्मी थी 
कुछ जोड़े नयन 
सजल थे 
कुछ की आँखें 
चमक रही थी 
कोई आश्चर्य नहीं था 
क्यूंकि 
उन्हें कभी एकमत 
होते नहीं देखा था 
पर एक आश्चर्य 
उस दिन सबने 
सुर मिलाया 
शुभचिंतकों ने ढाँढस
दुश्चिन्तकों ने व्यंग्य कसा 
बधाई हो 
घर में लक्ष्मी आई है 

© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Wednesday, February 2, 2011

हाँ , तुम नारी हो , तो ??

क्यो तुम लड़ती रहीं
क्यो तुम जूझती रहीं
क्यो तुम चाहती रही
बदलना मानसिकता औरो की

क्या फरक हैं फिर तुममे और उनमे
मत जुझो , मत लडो
मत और समय अपना बरबाद करो
मत बदलो किसी की मानसिकता
हो सके तो बदलो अपनी मानसिकता

जियो उस स्वतंत्रता को जो
ईश्वरिये देन हैं ,
जो नहीं कोई और तुम्हे देगा

नारी हो नारी ही बन कर रहो


प्यासी हो तो पानी पीयो
भूखी हो तो खाना खाओ
पर मत लडो , मत जुझो
और नारी होने के एहसास से सम्पूर्णता पाओ


अधूरी तुम नहीं हो , क्योंकी तुम जिनसे लड़ती हो
उनके अस्तिव की तुम ही तो जननी हो


तुम ख़ुद आक्षेप और अवेहलना करती हो
अपनी इच्छाओं की ,
कब तक अपनी कमियों का दोष
दूसरो पर डालोगी
समय जो बीत जाता है लौट कर नहीं आता है

Tuesday, February 1, 2011

अब चौखट के बाहर आना है !

पुरुष सत्ता की दीवारों को तोड़कर ,
लिंग भेद की सलाखों को मरोड़कर ,
सोयी आत्मशक्ति को जगा कर ,
दिमाग की बंद खिड़की खोलकर ,
हे स्त्री ! तुझको अब चौखट के बाहर आना है ,
पुरुष समान जग में सम्मान पाना है ।
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जला देनी है वे किताबें ;जो कहती है
तुम कोमल ,निर्बल और कमजोर हो ,
तुम कली नहीं ;तुम फूल नहीं ;
तुम प्रस्तर सम कठोर हो ,
आंसू से नम इन पलकों को बस लक्ष्य पर टिक जाना है ,
हे स्त्री !तुझको अब चौखट के बाहर आना है ।
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पुरुष बैसाखी ने तेरी चलने की ताकत छीनी है ,
तन की सुन्दरता में उलझा ;मन की शक्ति हर लीनी है ,
नैनों के तीर नहीं ;तुझको प्रज्ञा का बल दिखलाना है ।
हे स्त्री !तुझको अब चौखट के बाहर आना है ।
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