सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Sunday, December 23, 2012

उसे मौत दो




वो एक नही जो बे-आबरू हुई
क्या हम सबकी रूह बेज़ार नहीं
वो जो लुटी सर-ए-बाज़ार आज
क्या वो इज्ज़त की हक़दार नहीं
कितने ही दुर्शाशन खड़े
पर कोई रखवाला गोपाल नहीं
कहा छुप्पे तुम आज क्रिशन
क्यों किया ध्रोपधि पे आज उपकार नहीं
लुटते, मरते सब देख रहे
कर रहे सियासत इस पर भी
ये कैसा हो गया देश मेरा
यहाँ कोई भी शर्म सार नही
उसकी सिर्फ आबरू नहीं लुटी
उसकी रूह को चीरा है
उसकी आँखों में दहशत है
उसकी आहो में पीड़ा है
वो शर्मनाक हरक़त वाले
उन्हें इस पाप का अंजाम दो
उसे मौत दो, उसे मौत दो 
वो दरिन्दे वो जानवर
किसी माफ़ी के हक़दार नही
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Swati 

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Tuesday, October 30, 2012

प्रश्न



देख के आज नवरात्री का जशन
आत्मा मेरी कर रही प्रश्न
ये कैसा कन्या पूजन है
ये कैसा देवी का आदर
जब खुद अपने हाथो से हम
कर रहे नन्ही कन्यायो का संहार
क्या उन्हें नहीं जीने का अधिकार
देवी की जय करने वालो
तुम कैसे अब चुप बैठे हो
मरते लुट ते देवी के रूपों को कैसे देखे हो
है धिक्कार ऐसी मानवता पे
जिसे अपनी बेटी पे गर्व नही
कोई हक नही इन खूनियो को
के वो माँ का सत्कार करे
इन खून से रंगे हाथो से
माँ भगवती का न सिंगार करे
जो ऐसे कर्म से शर्म सार नहीं
उन्हें देवी पूजन का अधिकार नही !!
उन्हें देवी पूजन का अधिकार नही !!
अँधा धुंध होती कन्या भ्रूण हत्या जैसी शर्म नाक कृत्य हर रोज़ हमारे देश में हो रहे है  और हम देवी पूजन कर आशीर्वाद मांग रहे है !!  ये कैसी विडंबना है !!
Swati
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Thursday, April 19, 2012

औरत और सब्जी --- अपमान रिश्तो का

अब भी कोहनिया जलती हैं
अब भी नमक कम ज्यादा होता हैं
पर
अब बच्चो का थाली फेकना
और
पति का चिल्लाना  
बस वहीँ होता हैं
जहां एक माँ और पत्नी नहीं
एक औरत खाना बनाती हैं

हमारे घर में ऐसी क़ोई
औरत खाना नहीं बनाती
माँ , बेटी , पत्नी और बहू बनाती हैं
जो औरत नहीं हैं
उनको औरत ना कहे

और कहीं औरत देखे
तो घंटी बजा दे ताकि
औरत को इन्सान
वो परिवार समझने लगे

अपमान आप रिश्तो का करते हैं 
जब माँ , बहन , बेटी , पत्नी , बहु को 
महज औरत कह देते हैं 
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Wednesday, March 28, 2012

क्या कोई नाम भी दिया जा सकता हैं इस कविता को ???

दस्तक ब्लॉग पर एक कविता देखी 

कविता का शीर्षक नहीं हैं शायद ऐसी कविताओं का शीर्षक होता ही ना हो , कविता ईशा की हैं
क्या क्या नहीं कह रही हैं . मुझे बहुत कुछ सुनाई दिया आप को भी दिया हो तो कमेन्ट मे बताये . ईशा भी जानना चाहती होगी .
क्या कोई नाम भी दिया जा सकता हैं इस कविता को ???



नारी - नाम है सम्मान का, या
         समाज ने कोई  ढोंग रचा है.


बेटी - नाम है दुलार का, या
         समाज के लिए सजा है.


पत्नी - किसी पुरुष की सगी है, या
           यह रिश्ता भी एक ठगी है.


माँ -  ममता की परिभाषा है, या
        होना इसका भी एक निराशा है.


नारी - नाम है स्वाभिमान का, या
          इसका हर रिश्ता है अपमान का.
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Friday, March 23, 2012

फिर लाशों का तर्पण कौन करे ?

जी आपके स्नेह से अभिभूत हूँ किन्ही कारणों से मैंने सभी साझा ब्लोग्स छोड़ दिए हैं और सबसे खुद को अलग कर लिया है ये मेरे निजी कारण हैं ........अब नारी ब्लॉग पर भी मैं नहीं हूँ इसलिए वहाँ पोस्ट तो नहीं कर सकती हाँ आपको भेज सकती हूँ आप यदि चाहें तो मेरे नाम के साथ वहाँ इसे लगा सकती हैं .........उम्मीद है आप बुरा नहीं मानेंगी .

फिर लाशों का तर्पण कौन करे ?


यहाँ ज़िन्दा कौन है

ना आशा ना विमला

ना लता ना हया

देखा है कभी

चलती फिरती लाशों का शहर

इस शहर के दरो दीवार तो होते हैं

मगर कोई छत नहीं होती

तो घर कैसे और कहाँ बने

सिर्फ लाशों की

खरीद फरोख्त होती है

जहाँ लाशों से ही

सम्भोग होता है

और खुद को वो

मर्द समझता है जो शायद

सबसे बड़ा नामर्द होता है

ज़िन्दा ना शरीर होता है

ना आत्मा और ना ज़मीर

रोज़ अपनी लाश को

खुद कंधे पर ढोकर

बिस्तर की सलवटें

बनाई जाती हैं

मगर लाशें कब बोली हैं

चिता में जलना ही

उनकी नियति होती है

कुछ लाशें उम्र भर होम होती हैं

मगर राख़ नहीं

देखा है कभी

लाशों को लाशों पर रोते

यहाँ तो लाशों को

मुखाग्नि भी नहीं दी जाती

फिर लाशों का तर्पण कौन करे ?



सादर आभार

वन्दना गुप्ता

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Monday, February 20, 2012

आवाज टंकार बन चुकी हैं

कल
औरत
एक आवाज थी
दबा दी जाती थी

आज
औरत
एक टंकार हैं

अब लोग दबा रहे हैं
अपने कान
ताकि
टंकार सुनाई ना दे

कल की औरत की आवाज
आज की औरत की
टंकार बन चुकी हैं



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Saturday, January 21, 2012

स्त्री मुक्ति को नया अर्थ दिया

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आज एक ख्याल ने जन्म लिया
स्त्री मुक्ति को नया अर्थ दिया
ना जाने ज़माना किन सोचो में भटक गया
और स्त्री देह तक ही सिमट गया
या फिर बराबरी के झांसे में फँस गया
मगर किसी ने ना असली अर्थ जाना
स्त्री मुक्ति के वास्तविक अर्थ को ना पहचाना
देह के स्तर पर तो कोई भेद नहीं
लैंगिग स्तर पर कैसे फर्क करें
जरूरतें दोनों की समान पायी गयीं
फिर कैसे उनमे भेद करें
दैहिक आवश्यकता ना पैमाना हुआ 
ये तो सिर्फ पुरुष पर थोपने का 
एक बहाना हुआ 
जहाँ दोनों की जरूरत समान हो
फिर  कैसे कह दें 
स्त्री मुक्ति का वो ही एक कारण  है
ये तो ना स्त्री मुक्ति का पर्याय हुआ
बराबरी करने वाली को स्त्री मुक्ति का दर्शन दिया
मगर ये भी ना सोच को सही दर्शाता है
"बराबरी करना" के भी अलग सन्दर्भ दीखते हैं
मगर मूलभूत अर्थ ना कोई समझता है
बदलो स्त्री मुक्ति के सन्दर्भों को
जानो उसमे छुपे उसके अर्थों को
तभी पूर्ण मुक्ति तुम पाओगी
सही अर्थ में तभी स्त्री तुम कहलाओगी 
सिर्फ स्वतंत्रता या स्वच्छंदता ही 
स्त्री मुक्ति का अवलंबन नहीं
ये तो मात्र स्त्री मुक्ति की एक इकाई है 
जिसके भी भिन्न अर्थ हमने लगाये हैं
उठो जागो और समझो 
ओ स्त्री ..........स्वाभिमानी बन कर जीना सीखो
अपनी सोच को अब तुम बदलो
स्वयं को इतना सक्षम कर लो
जो भी कहो वो इतना विश्वस्त हो
जिस पर ना कोई आक्षेप हो 
और हर दृष्टि में तुम्हारे लिए आदर हो 
तुम्हारी उत्कृष्ट सोच तुम्हारी पहचान का  परिचायक हो 
जिस दिन सोच में स्त्री में समानता आएगी
वो ही पूर्ण रूप में स्त्री मुक्ति कहलाएगी
जब स्वयं के निर्णय को सक्षम पायेगी
और बिना किसी दबाव के अपने निर्णय पर
अटल रह पायेगी
तभी उसकी मुक्ति वास्तव में मुक्ति कहलाएगी
बराबरी का अर्थ सिर्फ शारीरिक या आर्थिक ही नहीं होता
बराबरी का संपूर्ण अर्थ तो सोच से है निर्मित होता