मैं
मैं मास्टर चाबी हूँ,
जब असल चाबी कहीं इधर उधर हो जाती है,मैं काम आती हूँ,
मैं वो थाली हूँ,
जिस में सहानुभुती के कुछ ठीकरे
बड़े सलीके से सजा कर परोसे जाते हैं,
मैं वो लकड़ी हूँ,
जो साँप पीटने, टेक लगाने के काम आती हूँ,
कुछ न मिले, तो हाथ सेंकने के काम आती हूँ,
मैं ऑले में सजी धूल फाकँती गुड़िया हूँ,
जिस पर घर वालों की नजर मेंहमानों के साथ पड़ती है,
मैं पैरों में पड़ी धूल हूँ,
जो ऑधीं बन कर अब तक तुम्हारी आखों में नहीं किरकी,
मैं कल के रस्मों रिवाज भी हूँ, और आज का खुलापन भी,
मैं 'आजकल' हूँ,
जिसके 'आज' के साथ 'कल' का पुछल्ला लगा है,
जिसे जब चाहा 'आज' के आगे रख दिया,
मैं आकड़ों का हिस्सा हूँ,
पर कैसे कह दूँ कि हाड़ माँस नहीं,
मैं मास्टर चाबी हूँ,
जब असल चाबी कहीं इधर उधर हो जाती है,मैं काम आती हूँ,
मैं वो थाली हूँ,
जिस में सहानुभुती के कुछ ठीकरे
बड़े सलीके से सजा कर परोसे जाते हैं,
मैं वो लकड़ी हूँ,
जो साँप पीटने, टेक लगाने के काम आती हूँ,
कुछ न मिले, तो हाथ सेंकने के काम आती हूँ,
मैं ऑले में सजी धूल फाकँती गुड़िया हूँ,
जिस पर घर वालों की नजर मेंहमानों के साथ पड़ती है,
मैं पैरों में पड़ी धूल हूँ,
जो ऑधीं बन कर अब तक तुम्हारी आखों में नहीं किरकी,
मैं कल के रस्मों रिवाज भी हूँ, और आज का खुलापन भी,
मैं 'आजकल' हूँ,
जिसके 'आज' के साथ 'कल' का पुछल्ला लगा है,
जिसे जब चाहा 'आज' के आगे रख दिया,
मैं आकड़ों का हिस्सा हूँ,
पर कैसे कह दूँ कि हाड़ माँस नहीं,
3 comments:
तारीफ़ करू इन शब्दों की इस काबिल मे नहीं ।
निशब्द कर देने वाली कविता है यह अनिता जी ..बहुत सही
bahut sunder
gudiya....
dhool.....
kaya khoob
Manvinder
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