सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Tuesday, July 8, 2008

सोलहवा सावन

रिमझिम खनकती बूँदे , जब आंगन में आती है
उन भीगे लम्हो को , संग अपने लाती है
बचपन की लांघ दहलीज़ , फूलों में कदम रखा था
चाँद को देखकर , खुद ही शरमाना सीखा था
सखियों से अकसर ,दिल के राज़ छुपाते
कभी किसी पल में ,वींनकारण ही इतराते
बारिश में यूही , घंटो भीगते चले जाते
सखियो जैसे हम भी , इंद्रधनु को पाना चाहते
सावन के वो झूले , हम आज भी नही भूले
उपर उपर जाता मन , चाहता आसमान छूले
भीग के जब तनमन , गीला गीला होता था
पिहु मिलन का सपना, नयनो में खिलता था
आज भी बारिश की बूँदे, हमे जब छू लेती है
सोलहवा सावन आने का.पैगाम थमा देती है
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

6 comments:

समयचक्र said...

आज भी बारिश की बूँदे, हमे जब छू लेती है.
सोलहवा सावन आने का.पैगाम थमा देती है.

bahut sundar kavita lagi badhai.

Anonymous said...

good poem mehak keep it up

रश्मि प्रभा... said...

mehak,main tumhe hamesha dhundhti hun,kyonki achha padhna chahti hun,
bahut sahi kaha,bahut dubkar kaha

Manvinder said...

dil dundta hai fir wahi.....
bheege mousam mai khumaar bhar diya
Manvinder

Anonymous said...

bhut sundar. likhati rhe.

शोभा said...

महक जी
सावन के झूलों की अच्छी याद दिलाई। भावभीनी रचना है ये-
सावन के वो झूले , हम आज भी नही भूले
उपर उपर जाता मन , चाहता आसमान छूले
भीग के जब तनमन , गीला गीला होता था
बधाई