रिमझिम खनकती बूँदे , जब आंगन में आती है
उन भीगे लम्हो को , संग अपने लाती है
बचपन की लांघ दहलीज़ , फूलों में कदम रखा था
चाँद को देखकर , खुद ही शरमाना सीखा था
सखियों से अकसर ,दिल के राज़ छुपाते
कभी किसी पल में ,वींनकारण ही इतराते
बारिश में यूही , घंटो भीगते चले जाते
सखियो जैसे हम भी , इंद्रधनु को पाना चाहते
सावन के वो झूले , हम आज भी नही भूले
उपर उपर जाता मन , चाहता आसमान छूले
भीग के जब तनमन , गीला गीला होता था
पिहु मिलन का सपना, नयनो में खिलता था
आज भी बारिश की बूँदे, हमे जब छू लेती है
सोलहवा सावन आने का.पैगाम थमा देती है
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सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
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6 comments:
आज भी बारिश की बूँदे, हमे जब छू लेती है.
सोलहवा सावन आने का.पैगाम थमा देती है.
bahut sundar kavita lagi badhai.
good poem mehak keep it up
mehak,main tumhe hamesha dhundhti hun,kyonki achha padhna chahti hun,
bahut sahi kaha,bahut dubkar kaha
dil dundta hai fir wahi.....
bheege mousam mai khumaar bhar diya
Manvinder
bhut sundar. likhati rhe.
महक जी
सावन के झूलों की अच्छी याद दिलाई। भावभीनी रचना है ये-
सावन के वो झूले , हम आज भी नही भूले
उपर उपर जाता मन , चाहता आसमान छूले
भीग के जब तनमन , गीला गीला होता था
बधाई
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