सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Monday, January 31, 2011

सूचना

सभी नये सदस्यों से अनुरोध हैं कि इस ब्लॉग पर केवल नारी आधारित विषयों पर ही कविता पोस्ट करे । अन्य विषयों पर आयी कविताएं हटा दी जायेगी
इस ब्लॉग को नारी आधरित विषयों पर लिखी कविता के लिये ही बनाया हैं
सादर
रचना
सूत्रधार नारी कविता ब्लॉग

Tuesday, January 18, 2011

स्त्री होने का सुख

आज जो यह रचना आप सब के समक्ष प्रस्तुत है वह मेरी खुद की रचना नहीं है लेकिन फिर भी उसे मैं यँहा लायी हूँ क्यूंकि यह रचना नारी आधारित है और लिखी भी गयी है एक नारी द्वारा हीं और ऐसे में अगर यह नारी के कविता ब्लॉग तक न पहुंचे तो नाइंसाफी होगी | यह रचना है श्रीमती सीमा भट्ट जी की और इसे मैं बाकायदा इजाजत लेकर लायी हूँ उनके श्रीमान हरीश भट्ट जी के ब्लॉग उद्घोष से आशा है आप सब को यह उत्कृष्ट रचना पसंद आएगी और अपनी टिप्पनिओं से इसे यथोचित सम्मान प्रदान करेंगे |














अपनत्व से स्रिजत्व की
परिणिता से मातृत्व की  
परिभाषाए स्वीकारते, स्वीकारते
देखती थी जब,
तो गर्व होता था
स्वयं के होने को
स्त्री का,

किंतु आज
जब मैं खोजती हूँ
हर स्त्री मैं
नैसेर्गिक सुंदरता
करुणा-शील-धेर्य का स्पंदन,
तो पाती हूँ
एक कृत्रिमता
निर्जीव सी तस्वीर नज़र आती हैं
अर्धनग्न ओर कुत्सित भी,
सोचती हूँ
समानता का अधिकार
पुरुष से मेरा संबल हैं
या मेरा विकार,
मैं तो श्रेष्ठा थी
दिग दिगान्तर से,
पूज्‍यनीय भी
पुरुष द्वारा ओर
समाज द्वारा भी,
ओर समानता का 
ये अधिकार भी कैसा
बस मैं सीट ओर टिकट  
प्राप्त करलेने भर जेसा,
शारीरिक हो केवल
बौद्धिक ना हो जैसे,

समानता तो तब हैं की
मैं बस स्टाप से अकेले
घर तक आ पाऊ
बिना किसी की
चुभती आँखो का सामना किए ,
जब मैं चुन सकु अपना सत्व
सामाजिकता की परिधि मैं,
चुनाव ही तो हैं
हे राम !!
सीता होने का दर्शन
तो तुमने मुझे दिया था
पर उर्मिला होने का धेर्य तो
मैने खुद ही चुना था,

ओर मेरे लिए तो
ये भी बहुत हैं
की वो कहें किसी दिन

प्रिय
आज तुम उनिग्ध सी हो
.
उठों मत
.
रहने दो !!!
.
लो ...
आज
चाय
मैने बनाई हैं ...........!!!!


 © 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Wednesday, January 12, 2011

मै नारी हूँ ....

अपने अस्तित्व  को ढूँढती हुई
दूर चली जाती हूँ 
मै नारी हूँ ....
अस्मिता को बचाते  हुए 
धरती में समा जाती हूँ 
माँ- बहन इन शब्दों में 
ये कैसा कटुता 
है भर गया 
इन शब्दों में अपशब्दों के 
बोझ ढोते जाती हूँ 
पत्नी-बहू के रिश्तो में 
उलझती चली जाती हूँ 
अपने अस्तित्व  को ढूँढती हुई
दूर चली जाती हूँ 
अपने गर्भ से जिस संतान को 
मैंने है जन्म दिया 
अपनी इच्छाओं की आहुति देकर 
जिसकी कामनाओं को पूर्ण किया 
आज उस संतान के समक्ष 
विवश हुई जाती हूँ 
अपने अस्तित्व  को ढूँढती हुई
दूर चली जाती हूँ 
नारी हूँ पर अबला नही 
सृष्टि की जननी हूँ मै 
पर इस मन का क्या करूँ 
अपने से उत्पन्न सृष्टि के सम्मुख 
अस्तित्व छोडती जाती हूँ 

© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Tuesday, January 11, 2011

कन्या भ्रूण हत्या को मना कीजिये...

वो कली जब गोद आयी ,
साँस थी महक गयी,
धीरे से जब मुस्कुराई ;
मोती से झोली भर गयी।
माँ कहा जब प्यार से;
मुझको तो जन्नत मिल गयी।
ऊँगली पकड़ कर जब चली;
खुशियाँ ही खुशियाँ छा गयी।
है मुझे गर्व खुद पर;
था लिया निर्णय सही।
भ्रूण हत्या को किया था;
दृढ़ता से मैंने नहीं।
जो कहीं कमजोर पड़कर;
दुष्कर्म मैं ये कर जाती;
फिर ये नन्ही सी कली ,
कैसे मेरे घर आ पाती?
ये महकेगी,ये चहकेगी,
सारे घर की रौनक होगी।
मेरी बिटिया की किलकारी;
पूरी दुनिया में गूंजेगी.

Monday, January 3, 2011

माँ की बात

मेरी माँ ने मुझको देखा,देख के वो यूं बोली,
  बिट्टो तूने आकर घर में भर दी मेरी झोली,
माँ के मुहं से ऐसा सुनकर खिल गया मेरा जीवन,
   अब सुन्दर मनभावन लगता अपने घर का आँगन,
माँ से ऐसी बात सुनकर मन मेरा लगा नाचने,
नए ख्याल अनोखे सपने आँखों में लगे आने ,
   माँ ने ऐसी बात है कह दी सार्थक हुई ज़िन्दगी,
   अपने पैरों पर खडी हों सपने उनके पूर्ण करूंगी.