सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Friday, February 27, 2009

मर्दानगी

संजय ग्रोवर जी की ये कविता हम अतिथि कवि की कलम से के तहत पोस्ट कर रहे हैं
हिन्दी ब्लॉगर ऋषभ देव शर्मा जी नारी आधरित विषयों पर अपनी राय ब्लॉग के माध्यम से हम तक पहुचाते रहे हैं उनकी कलम से हमेशा एक संवेदन शील बात निकलती रही हैं जिस मे नारी के प्रति एक ऐसा नजरिया देखने को मिला हैं जो कम लोग रखते हैं
इस कविता को यहाँ पोस्ट करके हम शायद बस इतना कर रहे के की उनके कलम से निकली "अपनी बात को " एक बार फिर दोहरा रहे हैं ।


मर्दानगी

गर्वीले चेहरे पर
अकड़ी हुई मूँछें
बाहों पर उछलती हुई मछलियां
गरज़दार आवाज़
Align Center


मर्दानगी
रखी है इतिहास के शोकेस में
चाबी भरने पर आवाज़ भी करती है
जब जम जाती है इस पर धूल
तो क्रेज़ी स्त्रीत्व अपने कोमल हाथों से
इसे झाड़-बुहार कर
फिर रख देता है शोकेस में



जब पुरानी पड़ जाती है
याकि मर जाती है
तो पुरानी की जगह नई सजा दी जाती है



मर्दानगी
खुश है अपने सजने पर



साल दर साल
पीढ़ी दर पीढ़ी
शोकेस में सजती आ रही है
मर्दानगी



© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Thursday, February 19, 2009

अश्लील है तुम्हारा पौरुष

ऋषभ देव शर्मा जी की ये कविता हम अतिथि कवि की कलम से के तहत पोस्ट कर रहे हैं ।
हिन्दी ब्लॉगर ऋषभ देव शर्मा जी नारी आधरित विषयों पर अपनी राय ब्लॉग के माध्यम से हम तक पहुचाते रहे हैं । उनकी कलम से हमेशा एक संवेदन शील बात निकलती रही हैं जिस मे नारी के प्रति एक ऐसा नजरिया देखने को मिला हैं जो कम लोग रखते हैं ।
इस कविता को यहाँ पोस्ट करके हम शायद बस इतना कर रहे के की उनके कलम से निकली "अपनी बात को " एक बार फिर दोहरा रहे हैं ।

अश्लील है तुम्हारा पौरुष

पहले वे
लंबे चोगों पर सफ़ेद गोल टोपी
पहनकर आए थे
और
मेरे चेहरे पर तेजाब फेंककर
मुझे बुरके में बाँधकर चले गए थे.



आज वे फिर आए हैं
संस्कृति के रखवाले बनकर
एक हाथ में लोहे की सलाखें
और दूसरे हाथ में हंटर लेकर.



उन्हें शिकायत है मुझसे !



औरत होकर मैं
प्यार कैसे कर सकती हूँ ,
सपने कैसे देख सकती हूँ ,
किसी को फूल कैसे दे सकती हूँ !



मैंने किसी को फूल दिया
- उन्होंने मेरी फूल सी देह दाग दी.
मैंने उड़ने के सपने देखे
- उन्होंने मेरे सुनहरे पर तराश दिए.
मैंने प्यार करने का दुस्साहस किया
- उन्होंने मुझे वेश्या बना दिया.



वे यह सब करते रहे
और मैं डरती रही, सहती रही,
- अकेली हूँ न ?



कोई तो आए मेरे साथ ,
मैं इन हत्यारों को -
तालिबों और मुजाहिदों को -
शिव और राम के सैनिकों को -
मुहब्बत के गुलाब देना चाहती हूँ.
बताना चाहती हूँ इन्हें --



''न मैं अश्लील हूँ , न मेरी देह.
मेरी नग्नता भी अश्लील नहीं
-वही तो तुम्हें जनमती है!
अश्लील है तुम्हारा पौरुष
-औरत को सह नहीं पाता.
अश्लील है तुम्हारी संस्कृति
- पालती है तुम-सी विकृतियों को !



''अश्लील हैं वे सब रीतियाँ
जो मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद करती हैं.
अश्लील हैं वे सब किताबें
जो औरत को गुलाम बनाती हैं ,
-और मर्द को मालिक / नियंता .
अश्लील है तुम्हारी यह दुनिया
-इसमें प्यार वर्जित है
और सपने निषिद्ध !



''धर्म अश्लील हैं
-घृणा सिखाते हैं !
पवित्रता अश्लील है
-हिंसा सिखाती है !''



वे फिर-फिर आते रहेंगे
-पोशाकें बदलकर
-हथियार बदलकर ;
करते रहेंगे मुझपर ज्यादती.



पहले मुझे निर्वस्त्र करेंगे
और फिर
वस्त्रदान का पुण्य लूटेंगे.



वे युगों से यही करते आए हैं
- फिर-फिर यही करेंगे
जब भी मुझे अकेली पाएँगे !



नहीं ; मैं अकेली कहाँ हूँ ....
मेरे साथ आ गई हैं दुनिया की तमाम औरतें ....
--काश ! यह सपना कभी न टूटे !


© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Tuesday, February 17, 2009

एक रिक्त अहसास है!

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
हाँ
मैं नारी हूँ,
वन्दनीय औ' पूजिता
कहते रहे हैं लोग,
कितने जीवन जिए हैं मैंने
कहाँ तो सप्तरिशी की पंक्ति में
विराजी गई,
सतियों की उपमा दे
पूजी गई।
मर्यादाओं में भी भारी
पड़ रही थी,
तब जागा पुरूष अंहकार
उसको परदे में बंद कर दिया,
सीमाओं में बाँध दिया
चारदीवारी से बाहर
देखना भी वर्जित था।
पति, पिता और पुत्र
यही पुरूष दर्शनीय थे।
तब भी जी रही थी
ओंठों को सिये
चुपचाप
आंसुओं के घूँट पी रही थी.
इसमें भी सदियाँ गुजरीं,
कहीं कोई
सद्पुरुष जन्म
नारी को भी मानव समझा
बहुत संघर्ष किए
तब
उनकी जंजीरों और बंधनों को
कुछ ढीले किए
शायद सद्बुद्धि आनी थी
नारी की भी
यही से बदलनी कहानी थी।
बदलते बदलते
आज यहाँ तक पहुँची
तो फिर
नकेल की होने लगी
एक नई तैयारी
क्या डाल पायेंगे नकेल?
ख़ुद सवालों में घिर गए
क्योंकि
अब की नारी
माटी का पुतला नहीं,
दुर्बल या अबला नहीं
ख़ुद को बचा सकती है।
अरे अपनी जन्मदात्री
का तो ख्याल करो
ये वही नारी है
जो सृष्टि को रचती है
शेष उसी से है
ये मानव जाति
ये नारी वह हस्ती है।
उसे संस्कार या मर्यादाओं
की शिक्षा तुम क्या दोगे?
जिससे सीखकर तुम आए हो
उसी को आइना दिखा रहे हो।
सडकों पर तमाशा
बनाकर क्या
वन्दनीय बन जाओगे।
सीता बन यदि
चुप है तो-
सब कुछ चलता है
गर दुर्गा बन
संहार पर उतर आई
तो तुम ही निंदनीय बन जाओगे।
सहेजो, समझाओ
उसे बहन बेटी बनाकर
प्यार से जग जीता जाता है
उनको दिशा दो
मगर प्यार से,
नासमझ वह भी नहीं,
जगत के दोनों ही
कर्णधार हैं।
नर-नारी से ही बना
ये संसार है।
इसे संयमित रहने दो
सृष्टि को नियमित चलने दो
न विरोधाभास है
न बैर का आभास है
एक दूसरे के बिना
दोनों एक रिक्त अहसास है.

अब तुलना चाहती हैं नारी

शारीरिक परिभाषाओ से उठ कर
क्षमताओं की परिभाषा मे
अब तुलना चाहती हैं नारी ।




© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Friday, February 13, 2009

कौन हो तुम ?

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

कभी -कभी अंतस से एक प्रश्न आता है ,
मेरे आस पास फ़ैल जाता है ।
ऊँचे पहाडों से टकराकर प्रतिध्वनित होता है ,
और मुझे लगता है
कि
सबकी आँखों में वही प्रश्न है ,
सबकी बातों में वही चिढ ।

कौन हो तुम ?
क्या चाहती हो ?

क्या कहूँ ?क्या उत्तर दूँ ?
दूँ भी...... तो क्या समझ लेंगे सब लोग मेरे उत्तर को?


सोचती हूँ कह दूँ -
एक नदी हूँ मैं
और चाहती हूँ कि मुझे अपने तरीके से बहने दिया जाए
अपने कगारों में बंधी ,
किनारे के पेडों से बतियाती ,बह लुंगी मैं
पर लोग हैं कि ...
बहने नही देते ।



कभी सोचती हूँ कह दूँ -
एक आग हूँ मैं ,
और चाहती हूँ
कि ,
मुझे अपने तरीके से जलने दिया जाए
किसी गृहणी के चूल्हे की लकडियों से बतियाती ,
भोजन बनाती जल लुंगी मैं
पर लोग हैं के ----
जलने नही देते ।

अब दिशाएं मौन हैं ,
न प्रश्न हैं ,न उत्तर हैं ।
जानती हूँ
मुझे अपने तरीके से जलने या बहने नही दिया जाएगा ।

फ़िर भी कहती हूँ ,
एक मनुष्य हूँ मैं ,
एक नारी हूँ मैं ,
और चाहती हूँ -----
कि.....
मुझे अपने तरीके से जीने दिया जाए .

Monday, February 9, 2009

लडकियां

आँगन की चाहत लडकियां
खयालो की हसरत लडकियां

शिक्षा की जोडो चुनर
शिखर की शोहोरत लडकियां

ख्वाबों को फलक दिखाती
आज की हकीक़त लडकियां

देहलीज़ पे उतरी चाँद सी
नही है तोहमत लडकियां



© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Saturday, February 7, 2009

एक लड़की

आकांशा जी ने ये कविता नारी ब्लॉग पर पोस्ट की हैं , मै उसे यहाँ पोस्ट कर रही हूँ ।


जाने कितनी बार
टूटी है वो टुकड़ों-टुकड़ों में

हर किसी को देखती
याचना की निगाहों से
एक बार तो हाँ कहकर देखो
कोई कोर कसर नहीं रखूँगी
तुम्हारी जिन्दगी संवारने में

पर सब बेकार
कोई उसके रंग को निहारता
तो कोई लम्बाई मापता
कोई उसे चलकर दिखाने को कहता
कोई साड़ी और सूट पहनकर बुलाता

पर कोई नहीं देखता
उसकी आँखों में
जहाँ प्यार है, अनुराग है
लज्जा है, विश्वास है !!
आकांक्षा
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!