सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Thursday, July 31, 2008

कोख से

कवि कुलवंत जी की ये कविता हम अतिथि कवि की कलम से के तहत पोस्ट कर रहे हैं । जो व्यथा इस कविता मे हैं वो श्याद कवि कुलवंत जी जैसे संवेदन शील की कलम से ही शब्द पाती हैं । पढे जरुर

"कोख से
(परिचय - एक गर्भवती महिला अल्ट्रासोनोग्राफी सेंटर में भ्रूण के लिंग का पता कराने के लिए जाती है। जब पेट पर लेप लगाने के बाद अल्ट्रासाउंड का संवेदी संसूचक घुमाया जाता है, तो सामने लगे मानिटर पर एक दृष्य उभरना शुरू होता है। इससे पहले कि मानिटर में दृष्य साफ साफ उभरे, एक आवाज गूंजती है। और यही आवाज मेरी कविता है - 'कोख से' । आइये सुनते हैं यह आवाज -

माँ सुनी मैने एक कहानी !
सच्ची है याँ झूठी मनगढ़ंत कहानी ?
.
बेटी का जन्म घर मे मायूसी लाता,
खुशियों का पल मातम बन जाता,
बधाई का एक न स्वर लहराता,
ढ़ोल मंजीरे पर न कोई सुर सजाता ! माँ....
.
न बंटते लड्डू, खील, मिठाई, बताशे,
न पकते मालपुए, खीर, पंराठे,
न चौखट पर होते कोई खेल तमाशे,
न ही अंगने में कोई ठुमक नाचते। माँ....
.
न दान गरीबों को मिल पाता,
न भूखों को कोई अन्न खिलाता,
न मंदिर कोई प्रसाद बांटता,
न ईश को कोई मन्नत चढ़ाता ! माँ.....
.
माँ को कोसा बेटी के लिए जाता,
तानों से जीना मुश्किल हो जाता,
बेटी की मौत का प्रयत्न भी होता,
गला घोंटकर यां जिंदा दफ़ना दिया जाता ! माँ....
.
दुर्भाग्य से यदि फ़िर भी बच जाए,
ताउम्र बस सेवा धर्म निभाए,
चूल्हा, चौंका, बर्तन ही संभाले जाए,
जीवन का कोई सुख भोग न पाए ! माँ.....
.
पिता से हर पल सहमी रहती,
भाईयों की जरूरत पूरी करती,
घर का हर कोना संवारती,
अपने लिए एक पल न पाती ! माँ....
.
भाई, बहन का अंतर उसे सालता,
हर वस्तु पर अधिकार भाई जमाता,
माँ, बाप का प्यार सिर्फ़ भाई पाता,
उसके हिस्से घर का पूरा काम ही आता ! माँ....
.
किताबें, कपड़े, भोजन, खिलौने,
सब भाई की चाहत के नमूने,
माँ भी खिलाती पुत्र को प्रथम निवाला,
उसके हिस्से आता केवल बचा निवाला ! माँ....
.
बेटी को मिलते केवल ब्याख्यान,
बलिदान करने की प्रेरणा, लाभ, गुणगान,
आहत होते हर पल उसके अरमान,
बेटी को दुत्कार, मिले बेटे को मान ! माँ....
.
शिक्षा का अधिकार पुत्र को हो,
बेटी तो केवल पराया धन हो,
इस बेटी पर फ़िर खर्चा क्यों हो ?
पढ़ाने की दरकार भला क्यों हो ? माँ....
.
आज विज्ञान ने आसान किया है,
अल्ट्रा-सोनोग्राफ़ी यंत्र दिया है,
बेटी से छुट्कारा आसान किया है,
कोख में ही भ्रूण हत्या सरल किया है ! माँ...
.
माँ तू भी कभी बेटी होगी,
इन हालातों से गुजरी होगी,
आज इसीलिए आयी क्या टेस्ट कराने ?
मुझको इन हालातों से बचाने ! माँ....
.
माँ यदि सच है थोड़ी भी यह कहानी,
पूर्व, बने मेरा जीवन भी एक कहानी,
देती हूँ आवाज कोख से, करो खत्म कहानी,
करो समाप्त मुझे, न दो मुझे जिंदगानी।
करो समाप्त मुझे, न दो मुझे जिंदगानी।
करो समाप्त मुझे, न दो मुझे जिंदगानी।
.
कवि कुलवंत सिंह

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Tuesday, July 29, 2008

हम किराये पर लेते हें विदेशी कोख

हम बहुत तरक्की कर रहें हें
पहले बेटियों को मारते थे
बहुओ को जलाते थे
अब तो हम
कन्या भ्रुण हत्या करते है
दूर नहीं है वो समय
जब हम फक्र से कहेगे
पुत्र पैदा करने के लिये
हम किराये पर लेते हें
विदेशी कोख

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Monday, July 28, 2008

स्वयंसिद्धा

मेरे लिये जरूरी नहीं है
तुम्हारे सुर में सुर मिलायूं
तुम्हारी हां को स्वीकारूं
तुम्हारे तय किये निर्णय मानूं
तुम्हारे कंधे का सहारा लूं
तुम्हारी राह तकूं
क्योंकि
अपने अंदर की स्वयंसिद्धा मैं पहचान गई हूं
तुम्हें भी जान गई हूं
मौका पड़े तो भरी सभा में
देख सकते हो मेरा चीर हरण
इक जरा सी बात पर
दे सकते हो जगलों की भटकन

मनविंदर भिंभर

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Sunday, July 27, 2008

इक्सवी सदी की रहनुमा है

नन्ही आँखे खुली
बिटर बिटर देख मुस्कराई
बढ़ने लगी अमर बेल सी
माँ देख कभी हुई चिंतित
कभी दिल से दुआ निकल आई

लगी सिखाने उसको वही फ़र्ज़ सारे
जो कभी थे उसको अपनी माँ से
देने लगी वही उपदेश जो मिले थे उसको माँ से

सुन के उसकी बेटी मंद मंद मुस्कराई
फ़िक्र करो न माँ तुम मेरी
मैंने अपनी ज़िंदगी
अपने इरादों से है सजाई


भूल गई माँ कि उसकी बेटी
इक्सवी सदी की रहनुमा है
जिसे पता है अपने अधिकारों का
और मंजिल का जानती हर निशाँ है
जोश है उस में ,उमंग है उसमें
हर ज़ंग को जीतने का जज्बा है

अपने पक्के इरादों से
आसमान को छू के आना है
पी के अपने आंसू ख़ुद ही
यह जीवन नही बिताना है
हटा देने हैं अपने जीवन के कांटे
और इस ज़िंदगी के हर लम्हे को
अपने माप दंड से सजाना है !!
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Saturday, July 26, 2008

मैं

मैं
मैं मास्टर चाबी हूँ,
जब असल चाबी कहीं इधर उधर हो जाती है,मैं काम आती हूँ,
मैं वो थाली हूँ,
जिस में सहानुभुती के कुछ ठीकरे
बड़े सलीके से सजा कर परोसे जाते हैं,
मैं वो लकड़ी हूँ,
जो साँप पीटने, टेक लगाने के काम आती हूँ,
कुछ न मिले, तो हाथ सेंकने के काम आती हूँ,
मैं ऑले में सजी धूल फाकँती गुड़िया हूँ,
जिस पर घर वालों की नजर मेंहमानों के साथ पड़ती है,
मैं पैरों में पड़ी धूल हूँ,
जो ऑधीं बन कर अब तक तुम्हारी आखों में नहीं किरकी,
मैं कल के रस्मों रिवाज भी हूँ, और आज का खुलापन भी,
मैं 'आजकल' हूँ,
जिसके 'आज' के साथ 'कल' का पुछल्ला लगा है,
जिसे जब चाहा 'आज' के आगे रख दिया,
मैं आकड़ों का हिस्सा हूँ,
पर कैसे कह दूँ कि हाड़ माँस नहीं,

कविता प्रविष्टिया भेजे

सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता अगर आप लिखते हैं तो इस ब्लॉग पर भी डाले । संपर्क सूत्र दिया हैं ब्लॉग मे , कविता ईमेल करे आप के नाम से और आपके ब्लॉग लिंक के साथ डाली जायेगी
धन्यवाद

Wednesday, July 23, 2008

वैदेही ने जो किया वह तुम ना करना

वैदेही ने जो किया
वह तुम ना करना
कोई भी अगर लाछन
तुम्हारे चरित्र पर लगाए
तो अब अग्नि परीक्षा
तुम ना देना
पति घर निकला भी दे
तब भी घर
तुम ना छोड़ना
ताकि फिर कोई लव कुश
घर से बाहर ना पैदा हो
और फिर कोई वैदेही
धरती मे ना समाये
और हाँ फिर किसी राम
को यज्ञ किसी सीता की
मूर्ति के साथ ना करना पडे
रामायण एक और रची जाये
या ना रची जाए
राजा अपना धरम निभाए
या ना निभाए
तुम अपना धर्म निभाना
आने वाली सीताओं के लिये
मार्ग प्रशस्त करती जाना

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Sunday, July 20, 2008

स्वयं को खोजने का हक नहीं है मुझे?

पैदा हुई तो बेटी हो गई
बड़ी हुई तो बहन हो गई
ब्हायी गई तो पत्नी हो गई
घर की लक्ष्मी हो गई
फिर सौभाग्यवती हो गई
क्यों कि मैंने ओढ़ ली जिम्मेवारियों की चुनरी
इन सब में मैं कहां थी?
इसका जवाब खोजना चाहा तो
न बेटी-बहन रही न पत्नी रही
न सौभाग्यवती रही
न घर की लक्ष्मी रही
स्वयं को खोजने का हक नहीं है मुझे?

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एक और औरतो की पीढी

सदियों से मानसिक रूप से परतंत्र
नही उबर पाती हैं
अपनी इस मानसिकता से
जो अधिकार हक़ से उसके हैं
उनको पाने के लिये छल करती हैं
सदियों से छल ही तो करती आयी हैं
पर ये भूल जाती हैं कि हर छल मे
छली वही जाती हैं
सोचती हैं पति के अहम् को बढ़ावा दे दूँ
उससे डर कर रहने का नाटक कर लूँ
क्या मेरा जायेगा , जीवन मेरा तो
सुख सुविधा से कट जायेगा
कभी क्यो जीवन जीने का नहीं सोचती
त्रिया चरित्र का लाछन ले कर
क्या कभी जीवन जीने का सुख
वो पाएगी या एक और
औरतो की पीढी
बिना अधिकार अपने भोगे
दुनिया से जीवन काट कर चली जायेगी

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Friday, July 18, 2008

अपना घर

एक घर मे लेती हैं जनम
मानी जाती हैं
धरोहर किसी दूसरे घर की
जाती हैं दुसरे घर
शिक्षाओ कर्तव्यो मे जकडी हुई
दूसरी का वंश बढ़ाने के लिये ।
पति और बच्चो के बीच
बनती हैं सीढ़ी
एक चढ़ता हैं , दूसरा उतरता हैं
पर सीढ़ी हट नहीं सकती ।
कर्तव्य बोध मे बंधकर
अस्तित्व के लिये छटपटाती हैं ।
जिस घर मे जनम लिया
ना वह अपना
जिस घर मे आयी
न वह अपना ।
कर्तव्य की बेडियाँ
अस्तित्व से टकराती हैं
भड़क उठती हैं ज्वाला
कहीं किसी कलम से
निकलेगे जब चिंगारियों के शब्द
तभी नारी रख पायेगी
अपने घर की नींव
तभी बचा पाएगी
अपना घर , उसका अपना घर ।

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पूर्णमासी का चांद






देखो
अब तुम ये मत कहना
मैं चांद को न देखूं
बरसती चांदनी को निहारना छोड़ दूं
मुझे मत रोको
करने दो मुझे भी मन की
आज का चांद मैं देखूंगी
पूर्णमासी का चांद
बरसती चांदनी मैं निहारूंगी
तुमको गर ये सुहाता है
तो आओ मेरे संग बैठो
लेकिन मुझे मत रोको
करने दो मुझे भी मन की
मुझे मत रोको


मनविंदर भिम्बर


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Thursday, July 17, 2008

एक संवाद

अनैतिकता बोली नैतिकता से
क्यो इतना इतराती हो
मेरे प्रेमी के साथ रहती हो
और पति है वह तुम्हारा
बार बार मुझे ही समझाती हो
कभी मेरी तरह अकेले रह कर देखो
अपने सब काम खुद करके देखो
पुरुष को प्यार सिर्फ और सिर्फ
उसके प्यार के लिए कर के देखो
सामाजिक सुरक्षा कवच
पुरुष को तुम बनाती है
समाज मे अनैतिकता

तो तुम भी फेलाती हो
फिर बार बार
नैतिकता का पाठ
मुझे ही क्यो पढाती हो ??

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Wednesday, July 16, 2008

सुनती हो जी

मां व्यस्त रहती थीं सुबह से
घर के कामों को निपटाने में
हमारी किताबें लगाने में
बाबू जी की आफिस की तैयारी में
उनकी बिखरी चीजों को समेटने में
उनकी कमीज में बटन टांकने में
सांझ को जब बाबू जी आते
और हम घर सिर पर उठाते
तो बाबू जी कहते,
सुन रही हो
आयो तुम भी बैठो कुछ देर को
आती हूं जी
कुछ चाहिए है आपको
पूछ कर मां लौट आती
इतना कह कर मां लग जाती अगले काम में
आज मां नहीं है हमारे बीच
बाबू जी हैं
अब कोई उनके बटन नहीं टाकता है
बाबू जी अकसर आपने टूटे बटन को छू कर
एक आह सी भरते हैं
और मन में बुदबुदाते हैं
सुनती हो जी
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सत्य कथा !

मेरे पास भी सपने थे,
थीं रूमानी कल्पनाएँ....
आँखें बंद करके पांव में पाजेब डाल
चलती थी- छुन छुन मैं भी!
होठों पर गीत मचलते थे,
आंखों से ख्वाब टपकते थे!
कई बार घूँघट में चेहरे को छुपाया था
और अंदाज से हटाया था-
मुझे देख आइना भी मुस्कुराया था.......
दिल धड़का था ,
जब वो आया था.....
पल-पल की धड़कनें ,
कानों में गूंजें थे -
दिल डर गया !
आनेवाला चिल्लाया 'वो हस्र करूँगा कि सारी दुनिया देखेगी'
आंखों से दहशत आंसू बन टपके थे!
'क्यूँ?'
एक प्रश्न बन होठों पे उतरा था.....
पर हर प्रश्न पर
दाता ने मारा था!
दाता?!?
कहता था,
'मेरे टुकडों पर पलती है ,
और जुबान खोलती है....'
...........
माँ को याद करने की मनाही थी,
भाई-बहन के नाम पर बंदिशें थीं
बाकि रिश्ते-शक के दायरे में रहे....
परे इसके-
उसका भाई , मेरा पीछा करता रहा
अपनी वहशी आंखों से मुझे घूरता रहा!
अपने दाता को बताया तो ,
खाना हुआ बंद और सज़ा सुनाई गई,
वहशी से माफ़ी मांगे जाने पर ही टुकडा नसीब होगा.....
आठ महीने के गर्भ में ,
भूख से निजात पाने को,
नई कोपल की खातिर-
मैंने मांगी थी माफ़ी!
जब गोद में आई खुशियाँ,
उसको दाता ने छिना था!
और हसरत देख आंखों में मेरी-
जान की हद तक मारा था!
बच्चे को ख़ुद से दूर देख,
मैंने काल का रूप लिया...........
एक छवि की बाँध से बाहर आने में
कई साल लगे!
पर जब निकली बाहर तो,
सर उठाकर ही चली,
जिस पहचान से दूर रही थी,
वो पहचान फिर मुझे मिली.......
जिसने भी ऊँगली उठाई,
उसके घर कोहराम हुआ,
माँ की रक्षा में ख़ुद शिव ने,
मेरे घर में वास लिया.......
तुम मानो या न मानो,
है ये बिल्कुल सत्य कथा!!!!!!!!!!!!!!!!!
एक-एक क़दमों के निशाँ,
कहेंगे मेरी आत्मकथा............

Monday, July 14, 2008

क्यो टूटते है रिश्ते

होता है हर रिश्ता एक तरफ़ा
एक दे देता है एक लेता है
जब देने वाले के पास
कुछ नही बचता
तो लेने वाला
चला जाता है
रिश्ता ही लेकर
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Sunday, July 13, 2008

कुछ प्रश्न

कुछ प्रश्न उठ रहे हैं
मेरे ज़हन में--
उत्तर दोगे?
सच-सच
तुम्हारी दृष्टि में
प्रेम क्या है
किसी से जुड़ जाना
या उसे पा लेना
वैसे पाना भी एक प्रश्न है
उसके भी कई अर्थ हैं
कैसे पाना--
शरीर से- या मन से
यदि शरीर से--
तो एक दूसरे को पाकर भी
परिवार पूर्ण क्यों नहीं हो पाते-
यदि मन से--
तो सारा आडम्बर क्यों -
इन चिरमिराते साधनों से
तुम किसे जीतना चाहते हो-
उस मन को-
जो स्वछन्दता भोगी है
या उस तन को
जो भुक्तभोगी है ?
सोचो तुम्हारा
गंतव्य क्या है ?
ये व्याकुलता
ये तड़प -
किसके लिए है ?
यदि कुछ पाना ही नहीं
तो मिलें क्यों ?
सब कुछ तो मिल रहा है
सामीप्य,संवेदना
साहचर्य और प्रेम भी
फिर क्या अप्राप्य है?
क्यों बेचैन हो?
मैं तो सन्तुष्ट हूँ
जो मिल रहा है
उससे पूर्ण सन्तुष्ट
हाँ कुछ इच्छाएँ जगती हैं
किन्तु मैं इन्हें
महत्व नहीं देती
मेरी दृष्टि में
ये मूल्यहीन हैं
मेरा प्राप्य
आत्मिक सुख है
मैं उस सीमा पर
पहुँचना चाहती हूँ
जिसके आगे मार्ग
समाप्त हो जाता है
मेरी आक्षाएँ असीम हैं
बोलो चलोगे ?
दोगे मेरा साथ ?
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हवा का संकेत समझो

हवा का संकेत समझो
औरत का मन समझो
गये वक्त की बातें हैं जब
मेरी पंसद तुम्हारी पसंद थी
मेरी बातें तुम्हारी बातें थी
मेरे गीत तुम्हारे गीत थे
मेरा मौसम तुम्हारा मौसम था
फिर एक दिन
सब कुछ बदल गया
तुमने पसंद जुदा कर ली
बातें परायी कर लीं
गीत नये सजा लिये
मौसम भी बदल गया
अब मैने सुना
तुम्हारी कोई पसंद नहीं रही
तुम्हारी बातें आम हो गई
तुम्हारे गीत रोते हैं
तुम्हारा मौसम भी बेवफा हो गया
उस वक्त तो तुमने मुंह फेरा था
लेकिन
अब इस बार क्या हुआ
क्या तुमसे भी किसी ने मुंह फेर लिया है
देखो
हवा का संकेत समझो
औरत का मन समझो
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Friday, July 11, 2008

कन्धों पर सूरज

कन्धों पर सूरज

(कविता वाचक्नवी)



प्रश्न गाँव औ’ शहरों के तो
हम पीछे सुलझा ही लेंगे
तुम पहले कंधों पर सूर
लादे होने का भ्रम छोड़ो



चिकने पत्थर की पगडंडी
नदी किनारे जो जाती है
ढालदार है
पेड़, लताओं, गुल्मों के झुरमुट ने उसको
ढाँप रखा है

काई हरी-हरी

लिपटी है


कैसे अब महकेंगे रस्ते
कैसे नदी किनारे रुनझुन
किसी भोर की शुभ वेला में
जा पाएगी?


कैसे सूनी राह
साँस औ’ आँख मूँद
पलकें मीचे भी
चलता
प्रथम किरण से पहले-पहले
प्रतिक्षण
मंत्र उचारे कोई ?



कैसे कूद - फाँदते बच्चे
धड़-धड़ धड़- धड़ कर उतरेंगे
गाएँगे ऋतुओँ की गीता ?



कैसे हवा उठेगी ऊपर
तपने पर भी ?

कैसे कोई बारिश में भीगेगा हँस कर ?



छत पर आग उगाने वाले
दीवारों के सन्नाटों में
क्या घटता है -
हम पीछे सोचें-सलटेंगे
तुम पहले कंधों पर सूरज
लादे होने का भ्रम छोड़ो।



स्रोत : अपनी पुस्तक " मैं चल तो दूँ " से
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

सावन

रुकी रुकी सी बारिशों के बोझ से दबी दबी
झुके झुके से बादलों से -

धरती की प्यास बुझी
घटाओं ने झूमकर मुझसे कुछ कहा तो है
बुँदे मुझे छू गई -तेरा ख्याल आ गया
खुशबू वाला पानी तुझसे भी कुछ कहता होगा
बादल ने बारिश के हाथोंतुझको भी कुछ भेजा होगा
घटाओं ने बरसकर ,तुझसे कुछ कहा है क्या -
सावन की रिमझिम मेंतेरा ख्याल आ गया
--नीलिमा गर्ग

Thursday, July 10, 2008

इसलिये मुझे फक्र है कि मै दूसरी औरत हूँ ।

नहीं सौपा मैने अपना शरीर उसे
इसलिये
कि उसने मेरे साथ सात फेरे लिये
कि उसने मुझे सामाजिक सुरक्षा दी
कि उसने मेरे साथ घर बसाया
कि उसने मुझे माँ बनाया
सौपा मैने अपना शरीर उसे
इस लिये
क्योंकि "उस समय" उसे जरुरत थी
मेरे शरीर की , मेरे प्यार , दुलार की
और उसके बदले नहीं माँगा मैने
उससे कुछ भी , ना रुपया , ना पैसे
ना घर , ना बच्चे , ना सामाजिक सुरक्षा
फिर भी मुझे कहा गया की मै दूसरी औरत हूँ !!
घर तोड़ती हूँ ।
प्रश्न है मेरा पहली औरतो से , क्या कभी तुम्हें
अपनी कोई कमी दिखती है ??
क्यो घर से तुम्हारे पति को कहीं और जाना पड़ता है ?
क्यो हमेशा तुम इसे पुरुष की कमजोरी कहती हो ?
क्यो कभी तुम्हें अपनी कोई कमजोरी नहीं दिखती ?
जिस शरीर को सौपने के लिये ,
तुम सात फेरो की शर्ते लगती हो ,
उसे तो मैने योहीं दे दिया बिना शर्त ,
बिना शिक़ायत
इसलिये मुझे फक्र है कि मै दूसरी औरत हूँ ।


© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Wednesday, July 9, 2008

दुर्गा का आह्वान........

तुमने सोचा होगा,
मैं उन मूर्ख स्त्रियों में हूँ,
जिन्हें अपनी तारीफ सुनना
अच्छा लगता है।
तुम्हे क्या लगा?
मेरा कोई अस्तित्व नहीं है?
आम बुध्धिजीवियों की तरह तुम्हे लगा
एक पुरूष की छत्रछाया नहीं
तो मुझे पाया जा सकता है!
हँसी आती है,
अरे स्त्री तो पुरूष की प्रेरणा बनती आई है,
उसीकी लोरी पर उसे नींद आई है,
अर्धांगिनी बन उसीने
पुरूष को पूर्णता दी है!
..........................
सड़क पर एक स्त्री को लाने के मद में
यह पुरूष तो अधूरा होता है!
एक स्त्री-
माँ,बहन,बेटी भी होती है.........
और इन रूपों में
वह अद्वितीय होती है!
ऐसी अनुपमा को
कठपुतली बनाने की ख्वाहिश लिए
यह पुरूष,
अनजाने ही दुर्गा का आह्वान कर
स्त्री में उसकी प्राण - प्रतिष्ठा करता है.............!!!

Tuesday, July 8, 2008

रिश्ता अपना अपने से

पिता से बना जब रिश्ता बेटी तुम कहलाई
भाई से बना जब रिश्ता भगिनी तुम कहलाई
पति से बना जब रिश्ता पत्नी तुम कहलाई
बेटे से बना जब रिश्ता माँ तुम कहलाई
अपने से बना जब रिश्ता सम्पूर्ण नारी तुम कहलाई


© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

सोलहवा सावन

रिमझिम खनकती बूँदे , जब आंगन में आती है
उन भीगे लम्हो को , संग अपने लाती है
बचपन की लांघ दहलीज़ , फूलों में कदम रखा था
चाँद को देखकर , खुद ही शरमाना सीखा था
सखियों से अकसर ,दिल के राज़ छुपाते
कभी किसी पल में ,वींनकारण ही इतराते
बारिश में यूही , घंटो भीगते चले जाते
सखियो जैसे हम भी , इंद्रधनु को पाना चाहते
सावन के वो झूले , हम आज भी नही भूले
उपर उपर जाता मन , चाहता आसमान छूले
भीग के जब तनमन , गीला गीला होता था
पिहु मिलन का सपना, नयनो में खिलता था
आज भी बारिश की बूँदे, हमे जब छू लेती है
सोलहवा सावन आने का.पैगाम थमा देती है
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

मुश्किल है........


सिद्धांत, आदर्श, भक्तियुक्त पाखंडी उपदेश

नरभक्षी शेर,-गली के लिजलिजे कुत्ते,

मुश्किल है

मन के मनको में सिर्फ़ प्यार भरना!

हर पग पर घृणा,आंखों के अंगारे

आख़िर कितने आंसू बहायेंगे?

ममता की प्रतिमूर्ति स्त्री-एक माँ

जब अपने बच्चे को आँचल की लोरी नहीं सुना पाती

तो फिर ममता की देवी नहीं रह जाती

कोई फर्क नहीं पड़ता तुम्हारी गालियों से

लोरी छिनकर तुमने ही उसे काली का रूप दिया है

और इस रूप में वह संहार ही करेगी!

सिर्फ़ संहार!

फिर रचना का सिद्धांत क्या?

आदर्श क्या?

भक्तियुक्त उपदेश क्या?

मुश्किल है मन के मनको में सिर्फ़ प्यार भरना!............

Monday, July 7, 2008

अमर प्रेम……



असंख्य लहरों से तरंगित
जीवन उदधि
अब अचानक शान्त है
एकदम शान्त

घटनाओं के घात-प्रतिघात
अब आन्दोलित नहीं करते
तुम्हारा क्रोध,
तुम्हारी झुँझलाहट देख
आक्रोष नहीं जगता
बस सहानुभूति जगती है

कभी-कभी तुम अचानक
बहुत अकेले और असहाय
लगने लगते हो
दिल में जमा क्रोध का ज्वार
कब का बह गया
अब कोई शिकायत नहीं
कोई आत्मसम्मान नहीं

बस बिखरे हुए रिश्तों को
समेटने में लगी हूँ
तुम्हें पल-पल बिखरता देख
मन चीत्कार उठता है
और मन ही मन सोचती हूँ
ये त मेरा प्राप्य नहीं था

मैं तुम्हें कमजोर और
हारता हुआ नहीं
सशक्त और विजयी
देखना चाहती थी
पता नहीं क्यों तुम
सारे संसार से हारकर
मुझे जीतना चाहते हो
भला अपनी ही परछाई पर
अधिकार की ये कैसी कामना है

जो तुम्हे अशान्त किए है
भूल कर सब कुछ
बस एक बार देखो
मेरी उन आँखों में
जिनमें तुम्हारे लिए
असीम प्यार का सागर
लहराता है
अपना सारा रोष
इनमें समर्पित कर दो
और सदा के लिए
समर्पित हो जाओ
संशयों से मुक्ति पाजाओ।


© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Sunday, July 6, 2008

अधिकार

मैने तो ऐसा कोई अधिकार
कह कर तो
कभी तुम्हें दिया नहीं
की तुम जो कहोगे
मै मानूगी
फिर भी
जब भी तुमने
कुछ भी कहा मैने माना
क्योकी मै मानती हूँ
की तुम्हारा पूरा अधिकार है
मुझ पर
अधिकार की परिभाषा
रिश्तों की भाषा से
अलग होती है
कुछ रिश्ते अधिकार से बनते हैं
और कुछ रिश्तों मे अधिकार होता है
बिना नाम के रिश्तों मे
अधिकार नहीं प्यार होता है
और प्यार के बन्धन
बिना नाम के
एक दूसरे को
बंधते हैं ता उम्र
और इस बन्धन को
जो स्वीकारते है
वह दुनिया मे
अकेले नहीं होते है
पर अलग जरुर होते है


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तूफानी नदी


मल्लाह आज आहत है

फिर से कुछ पाने की चाहत है

उसकी वजह है नदी, तूफानी नदी

नदी जो सालों से चुप चाप सी बह रही थी

नदी जो सालों से बोझ को सह रही थी

उसमें उठ आये हैं तूफान

इसी लिये

मल्लाह आज आहत है

फिर से कुछ पाने की चाहत है

उसे चुप चाप बहती नदी में नाव खेने की आदत रही

उसे अपनी मस्ती में लहरों को रोंदने की आदत रही

पर आज नाव डोल रही है क्योंकि

नदी ने चुप्पी तोड़ दी है

उसमें उठ आये हैं तूफान

मल्लाह को समझ नहीं आ रहा है ,क्या जुगत लगाए

तूफानी लहरों पर कैसे काबू पाए

मल्लाह आज आहत है

फिर से कुछ पाने की चाहत है

उम्मीद

कभी दिल के गीत तन्हाइयों में गुनगुना के देख
ज़िंदगी है एक कोरा केनवस सब रंग सज़ा के देख

रोशन तमाम हो जाएँगी तेरी सब मंज़िल की राहें
प्रेम का हर रंग इन में मिला के ज़रा तू देख

कांपेगी टूटेगी हर उदासी की ज़ंजीरे तेरी
ख़ुद को किसी की राहा का दीप बना के तू देख

मिलती है यह ज़िंदगी सुख दुःख से सज़ा के
हर रंग में तू इसे बस मुस्करा के देख

कभी कभी वक़्त लेता है यूँ ही इम्तिहान
कभी ख़ुद की नज़रो को आईना बना के देख

ना घबरा तू यूँ ही इन दुख के काले सायो से
दिल की ज़मीन पर उम्मीद के फूल खिला के देख

यह तन जो मिला है एक माटी का खिलोना है
इस माटी को अपने कर्मो से सोना बना के देख !!


रंजू

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Saturday, July 5, 2008

तोड़ दो सारे बन्धन और अपने बल पर मुक्ति पाओ..!

कुश जी की कलम से कविता पढ़कर मन मे उथल पुथल इस रूप में बाहर आई...

गन्दे लोगों से छुड़वाओ... पापा मुझको तुम ले जाओ...
खत पढ़कर घर भर में छाया था मातम....

पापा की आँखों से आँसू रुकते न थे....
माँ की ममता माँ को जीते जी मार रही थी ....

मैं दीदी का खत पढ़कर जड़ सी बैठी थी...
मन में धधक रही थी आग, आँखें थी जलती...
क्यों मेरी दीदी इतनी लाचार हुई...
क्यों अपने बल पर लड़ न पाई...

माँ ने हम दोनों बहनों को प्यार दिया ..
पापा ने बेटा मान हमें दुलार दिया....
जूडो कराटे की क्लास में दीदी अव्वल आती...
रोती जब दीदी से हर वार में हार मैं पाती...

मेरी दीदी इतनी कमज़ोर हुई क्यों....
सोच सोच मेरी बुद्धि थक जाती...

छोटी बहन नहीं दीदी की दीदी बन बैठी...
दीदी को खत लिखने मैं बैठी..

"मेरी प्यारी दीदी.... पहले तो आँसू पोछों...
फिर छोटी की खातिर लम्बी साँस तो खीचों..
फिर सोचो...
क्या तुम मेरी दीदी हो...
जो कहती थी..
अत्याचार जो सहता , वह भी पापी कहलाता...
फिर तुम.....
अत्याचार सहोगी और मरोगी...
क्यों .... क्यों तुम कमज़ोर हुई...
क्यों... अत्याचारी को बल देती हो....
क्यों.... क्यों... क्यों...

क्यों का उत्तर नहीं तुम्हारे पास...
क्यों का उत्तर तो है मेरे पास....

तोड़ दो सारे बन्धन और अपने बल पर मुक्ति पाओ..
अपने मन की आवाज़ सुनो फिर राह चुनो नई तुम..
ऊँची शिक्षा जो पाई उसके अर्थ ढूँढ कर लाओ ..
अपने पैरों पर खड़े होकर दिखलाओ तुम ....

दीदी बनके खत लिखा है दीदी तुमको...
छोटी जानके क्षमा करो तुम मुझको....

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कुश की कलम से ..गंदे लोगो से छुडवाओ... पापा मुझको तुम ले जाओ

कुश की कलम से निकली यह कविता बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण है ..न जाने कितनी बेटियों की पुकार है यह आज भी अपने पापा से बचाने की फरियाद करते हुए ...कब बिटिया रानी की यह पुकार खुशी की चहचाहट में बदलेगी ..? नारी पर आज इनकी कविता मेहमान कवि के रूप में पोस्ट की जा रही है ..



पापा आओ ना
अपनी प्यारी गुड़िया को
यहा से ले जाओ ना

नही रहना अब मुझे यहाँ
कैसे आप को करू बयाँ

रोती हू,बिलखती हू
ज़िंदगी से डरती हू
एक दिन मरते है सब
रोज़ रोज़ मैं मरती हू

कल रात गरम पानी
गिर गया मुझ पर,
ऐसा मेरी सास पड़ोसन
को कहती है,

कैसे जानोगे पापा
क्या क्या आपकी बेटी
सहती है,

नोंचते है गिद्ध दिन भर
रात को आता है दरिन्दा
सोचो पापा कैसे आपकी
गुड़िया अब रहेगी ज़िंदा,

पापा अब ना देर लगाओ
जल्दी से तुम आ जाओ
वरना कल ये खबर मिलेगी
एक रसोई फिर से जलेगी

कल फिर गैस का फटना होगा
मेरी गर्दन का कटना होगा
लोभी ये खूनी दरिंदे
लोग सभी है ये गंदे

गंदे लोगो से छुडवाओ
पापा मुझको तुम ले जाओ
कुश
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Friday, July 4, 2008

अविवाहित बेटियाँ

माँ का सपना होता हैं
उस दिन से
जब वह बेटी को जनम देती हैं ।
उसकी प्यारी गुड़िया
सजे , संवरे , बड़े होकर दुलहन बने
उसके घर बारात आए
और उसकी बेटी रानी बन कर बाबुल का घर छोडे ।
पर हर माँ का सपना पूरा नहीं होता
आज योग्य बेटियाँ
विवाह - बंधन मे बंधना नहीं चाहती ।
विवाह संस्था मे उनका विशवास नहीं ।
छल - परपंच , भय , आशंका , अविश्वास
नया जीवन ना जाने कैसा हो ??
वह पुरूष जो वेदी की परिक्रमा करके
सात वचन भरके
जीवन भर के लिये जुड़ जायेगा
क्या जीवन भर सुख भी दे पायेगा ??
विवाह संस्था देती हैं अधिकार
क्या उसके साथ कर्तव्य भी जुड़ पायेगा ??
इसी चिंतन - मनन में
स्वीकार कर लेती हैं
अपना एकाकीपन ।
वे समर्थ हैं , किसी के आगे किसी के साथ
समझोता क्यों करे ??


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लड़कियाँ सिर्फ़ सामान हैं तुम्हारा....??महेन जी की कविता

लडकियां सिर्फ़ समान है तुम्हारा ॥आज भी लड़की को कई जगह सिर्फ़ एक समान जैसे घर में पड़ा हुआ फर्नीचर या सिर्फ़ एक जिस्म समझा जाता है ...महेन जी ने अपन इस कविता में लड़की के इस दर्द को बखूबी अपनी कलम से लफ्जों में ढाला है ।आज यहाँ हम उनकी यह कविता मेहमान कवि के रूप में पोस्ट कर रहे हैं ...पढ़े और सोचे की यह मानसिकता अभी भी क्यूँ बनी हुई है ..
तुम्हारी लड़कियाँ सिर्फ़ सामान हैं तुम्हारा

यदि नहीं तो तुम ही बताओ और कौनसा दरजा देते हो तुम उन्हें?
तुम्हारी लड़कियाँ पगड़ी में लिपटी हुई इज़्ज़त होती हैं सिर्फ़
इसलिये उन्हें कलफ़ करके चमकाया जाता है;
हर पगड़ी की फनफनाती कलगी वास्तव में
किसी सुशील लड़की का झुका हुआ सिर होती है;
उन लड़कियों को उनके दहेज के साथ
सहेजकर रख दिया जाता है बंद दीवारों में
आने वाले कुछ सालों के लिये
ताकि जब वे पूरा सामान बनकर बाहर निकलें
उन्हें सजाकर रखा जा सके ड्राईंग-रूम की पेंटिंग के नीचे
अपने दहेज के सामान की लिस्ट के साथ
और पूरे दहेज में उनके सबसे आकर्षक होने की प्रार्थना की जाती है।
मगर इससे भी पहले जैसे लकड़ी ठोंककर भरी जाती है हथौड़े के सिर में
तुम उनके शब्दकोश में भर देते हो एक वाक्य
कि उनके लिये प्रेम और काम अकरणीय हैं
और सिखाते हो कि कौमार्य ही है उनकी मुक्ति का अंतिम मार्ग;
मगर तुम यह सीखाना तो भूल ही जाते हो हर बार
कि यह सहेजा हुआ कौमार्य कैसे समर्पित किया जाता है
अपने मुक्ति के देवता के चरणों में,
क्योंकि तुम्हारी महान संस्कृति चौंसठ कलाएँ गढ़ने के बाद भी
तालिबानी युग में जी रही है।
जब बरसों का एक भूखा भोगता है तुम्हारी कन्याओं को
तो उनकी रक्त रंजित दुविधाओं पर मनाते हो तुम उत्सव
और महसूस करते और कराते हो उनके अस्तित्व की सार्थकता।
यह कैसा खेल है कि तुम अपनी कुँठाएं तक खुद लादकर नहीं चल सकते
और बिसात पर उनको ठेलते रहे हो जिनके तुम संरक्षक हो,
क्योंकि मानवीयता के तमाम शास्त्रों ने नहीं गढ़े कोई सिद्धांत
संरक्षितों के आवश्यकतानुसार दोहन पर;
और कैसे उत्सव हैं तुम्हारे कि चीत्कारों पर गाते हो मंगलगान
और सीत्कारों पर अमर्ष राग।
तुम्हारे इस आधी आबादी पर किये अनाचारों की
यह तो सिर्फ़ प्रस्तावना है
जिसके कर्ता, कारक और कारण तुम स्वंय हो
वरना इस आबादी पर
जो हथियार तुमने ताने हुए हैं सदियों से
उनकी घातकता तो मानव इतिहास के सभी युद्धों से ज़्यादा है।

महेन
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सच कहो.......


क्या शिक्षा से दहेज़-प्रथा मिट गई?
क्या विवाह करने मे जो बातें अहम् थीं
वो मिट गयीं?
क्या अब बहुएं नहीं मरतीं?
क्या बुरे पति से अलग हो गयीं स्त्रियों को
शक की निगाह से नहीं देखा जाता?
क्या आज की शिक्षित पत्नी
बच्चे के लिए पुरूष की यातना नहीं सहती?
क्या बेटी के विवाह में निकृष्ट पिता की छवि से परे
एक माँ ने अपने वजूद को बना लिया है?
अपने-अपने अन्दर देखो,
फिर सत्य की भूमि पर उतरो .......
संख्या बताओ , फिर उसकी सामाजिक स्थिति
तब कुछ कहो......
यकीनन परिवर्तन का आह्वान तब होगा........

Thursday, July 3, 2008

निशब्द फिर भी शब्द होते है

शब्दो को शब्द खीचते है
शब्दो से शब्द खिचते है
शब्दो मे शब्द होते है
निशब्द फिर भी शब्द होते है


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निशब्द तुम्हारे शब्दो

शब्दो का खेल था
शब्दो से खेला था
निशब्द तुम्हारे शब्दो ने

शब्दो को मेरे झेला था


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अंबर धरा

फ़ासले हे दोनो में इतने
फिर भी दिल से ये हे पास
दूरियाँ है अनगिनत इन में
मन में लिए मिलन की आस
निहारते रेहते एक दूसरे को
हर पल और हर मौसम
नही छोड़ेंगे साथ कभी
शायद लेते हे ये कसम
जब मिलन की ये उमंगे
सारी हदें पार करना चाहती
बूँद बूँद बरसात में भीग कर
सब तरफ़ हरियाली छाती
चाहत ये कभी होगी पूरी
या यूही गुज़रेगा जीवन सारा
या क्षितिज पर सच में कही
मिलते होंगे ये अंबर धरा

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Wednesday, July 2, 2008

शब्द ही ना समझे पर शब्दो को

किस शब्द ने किस शब्द से क्या कहा
किस शब्द से किस शब्द को चोट लगी
किस शब्द से किस शब्द को दर्द हुआ
किस शब्द से किस शब्द को प्यार हुआ
किस शब्द से किस शब्द को नफरत हुई
शब्दो के जाल मे शब्दो की उम्र हुई
पर शब्द ही ना समझे शब्दो को

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दस्तक सुनाई देगी

बंद करके दिल में अपने सपनो को,उमीद को
सालों साल एक ही राह पर चलते जा रहे
जो सामने अच्छा आया,उसे उठाया और
बुराई बाजू से गुज़री,तो अनदेखा कर गये
कम से कम मेहनत में,ज़्यादा फल कैसे पाए
सारी मन की शक्ति यही सोचने में लगा दिए
दुनिया नरक बनती जा रही है,घोर कलयुग
भगवान पर ही इल्ज़ाम,उंगली उठा लिए
पैसा पैसा,बहता दरिया,अपना हिस्सा भरलो
इस दौड़ में इन्सानियत की होली जला दिए
एक दिन सब बदलेगा सिर्फ़ कहते रहते है
खुद बचकर रहेंगे,दूसरा बदलनेवाला चाहिए
कोशिश की चिंगारी सब साथ जब सुलगाएँगे
इस जहान में तब ही सुनहरी रोशनी होगी
अंधेरो की किवाडो को खोलकर सब निकलेंगे
तभी नयी सुबह होंने की दस्तक सुनाई देगी.



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Tuesday, July 1, 2008

" मेरे पूरक " भाग २

यह कविता सिद्दार्थ जी ने मेरे पूरक रचना जी की कविता की टिप्पणियां में लिखी है ॥ बहुत कुछ कहती है इसको हम यहाँ मेहमान कविता के रूप में पोस्ट कर रहे हैं , अपनी प्रतिक्रया आप भी दे .......

" मेरे पूरक " भाग २

‘अंधे का पुत्र अंधा’ से बात आगे बढ़ गयी थी
चीर हरण की शर्म धोने के लिए
‘महाभारत’ की लड़ाई लड़ी गयी थी
धोबी को दिया गया वचन
दे गया राम को भी वही वियोग
जो सीता ने वनवास में पाया
लव-कुश से राम की गोद भी खाली रही
नहीं मिला संयोग
आज भी हम सीताराम कहते हैं
राम-सीता नहीं
घर बसाने पर
मालकिन का दर्जा भी अपने-आप मिलता है
कोई मालिक ख़ैरात नहीं करता है
लम्बी आयु की कामना में
करवाचौथ
इसमें कोई स्वार्थ न हो
तो बन्द कर दें इसे
बहुतों ने किया भी है
लेकिन
शायद यह हो न सकेगा
प्रकृति का वरदान
माँ की कोख
इसपर भी तेरा-मेरा?
क्या कहें!
इसका पूरक भी बताना पड़ेगा?
कथाओं को पूरा पढ़ना जरूरी है
अपने को अलग करने की
दीवानगी
कहाँ तक ले जाएगी?
डर लगता है।

सिद्दार्थ
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नारी....

नारी - श्रद्धा,
नारी - देवी,
नारी -कर्तव्य
नारी -सौंदर्य,
नारी - कसौटी की पात्र,
नारी - शोध का विषय,
नारी - एक प्रश्न,
नारी - एक रहस्य................................
पर एक माँ ,ना है शोध का विषय,
ना प्रश्न, ना कोई रहस्य ..............
ममता की प्रतिमूर्ति!
फिर क्यूँ कसौटी.........?
औरत होने का दंड?
मैं मानती हूँ ,स्त्री - पुरूष में समानता नहीं,
पर स्त्री पुरूष की दासी नहीं
स्कूल में आई कोई छात्रा नहीं,
स्त्री को सुरक्षा भरा घेरा चाहिए,
पुरूष सुरक्षा देने से करता है इनकार........
क्यूँ?