सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Thursday, July 3, 2008

अंबर धरा

फ़ासले हे दोनो में इतने
फिर भी दिल से ये हे पास
दूरियाँ है अनगिनत इन में
मन में लिए मिलन की आस
निहारते रेहते एक दूसरे को
हर पल और हर मौसम
नही छोड़ेंगे साथ कभी
शायद लेते हे ये कसम
जब मिलन की ये उमंगे
सारी हदें पार करना चाहती
बूँद बूँद बरसात में भीग कर
सब तरफ़ हरियाली छाती
चाहत ये कभी होगी पूरी
या यूही गुज़रेगा जीवन सारा
या क्षितिज पर सच में कही
मिलते होंगे ये अंबर धरा

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4 comments:

रश्मि प्रभा... said...

bahut pyaari kavitaa,
aise me hi milte hain ambar-dhaara............

रंजू भाटिया said...

या यूही गुज़रेगा जीवन सारा
या क्षितिज पर सच में कही
मिलते होंगे ये अंबर धरा

यही एक आस ही तो है की कहीं तो मिलते होंगे अम्बर धरा .. अच्छा लिखा है महक जी :)

डॉ .अनुराग said...

umeed par duniya kayam hai...

मीनाक्षी said...

बूँद बूँद बरसात में भीग कर
सब तरफ़ हरियाली छाती ----

महक आपकी कविता में ही जवाब छिपा है....