सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Saturday, July 5, 2008

कुश की कलम से ..गंदे लोगो से छुडवाओ... पापा मुझको तुम ले जाओ

कुश की कलम से निकली यह कविता बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण है ..न जाने कितनी बेटियों की पुकार है यह आज भी अपने पापा से बचाने की फरियाद करते हुए ...कब बिटिया रानी की यह पुकार खुशी की चहचाहट में बदलेगी ..? नारी पर आज इनकी कविता मेहमान कवि के रूप में पोस्ट की जा रही है ..



पापा आओ ना
अपनी प्यारी गुड़िया को
यहा से ले जाओ ना

नही रहना अब मुझे यहाँ
कैसे आप को करू बयाँ

रोती हू,बिलखती हू
ज़िंदगी से डरती हू
एक दिन मरते है सब
रोज़ रोज़ मैं मरती हू

कल रात गरम पानी
गिर गया मुझ पर,
ऐसा मेरी सास पड़ोसन
को कहती है,

कैसे जानोगे पापा
क्या क्या आपकी बेटी
सहती है,

नोंचते है गिद्ध दिन भर
रात को आता है दरिन्दा
सोचो पापा कैसे आपकी
गुड़िया अब रहेगी ज़िंदा,

पापा अब ना देर लगाओ
जल्दी से तुम आ जाओ
वरना कल ये खबर मिलेगी
एक रसोई फिर से जलेगी

कल फिर गैस का फटना होगा
मेरी गर्दन का कटना होगा
लोभी ये खूनी दरिंदे
लोग सभी है ये गंदे

गंदे लोगो से छुडवाओ
पापा मुझको तुम ले जाओ
कुश
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

11 comments:

ghughutibasuti said...

कुश जी ऐसी कविता लिखने के लिए धन्यवाद।
पापा आएँगें, ले जाएँगें और फिर कुछ दिन बाद वापिस छोड़ जाएँगें, यह कहकर कि सामंजस्य बिठाओ, अब यही तुम्हारा घर है। सो बिटिया, किसी के भरोसे न बैठो रहो। अपनी राह स्वयं बनाने का कुछ प्रबन्ध करो। कैसे, पता नहीं। शायद जब वे कुछ दिन के लिए ले जाएँ तो आँसू बहाने और उनकी तरफ कुछ करने की आस लगाने की बजाय जो भी नौकरी मिले पकड़ लो और अपना जीवन अपने बल पर जीने की कोशिश करो।
घुघूती बासूती

श्रद्धा जैन said...

कुश जब भी लिखते हैं दिल छू लेते हैं
उनकी कलम में एक अलग अनोखी धार है
मर्मस्पर्शी है ये कविता
आपने इसे यहा प्रकाशित किया धन्यवाद

Anonymous said...

कुश की कविता सुंदर हैं इस मे कोई २ राय नहीं हैं . इसको उन्होने यहाँ डालने दिया इसके लिये उनका धन्यवाद .
घुघूती बासूती जी ने जो लिखा उस सत्य को बेटिया अगर स्वीकार कर ले तो अपनी जिन्दगी मे बदलाव बहुत जल्दी ले आयेगी . क्यूँ किसी के भरोसे रहा जाया और पिता भी कब तक किसी को सुरक्षा प्रदान करेगा क्या बेटी कभी व्यसक नहीं होगी की अपनी सुरक्षा का उतरदाइतव ख़ुद ले . आर्थिक रूप से सक्षम बने हर बेटी तभी ये गुहार बंद होगी .
अब एक प्रश्न कुश से
बेटी ने पिता को क्यों गुहार लगाई , माँ को क्यों नहीं ?? मानसिक रूप से आप भी वहीं अटके है जहाँ आज पितृसकता को बढ़ावा देने वाले बाकी लोग . क्यों पुत्री के लिए केवल पिता सक्षम हो उसे नरक से बाहर लाने के लिये . अगर किसी तलकशुदा या विधवा की बेटी हैं या बिन ब्याही माँ की दतक पुत्री है तो क्या वोह समाज मे असुरक्षित हैं ?? क्या हमारा समाज सिर्फ़ उनको ही सुरक्षा प्रदान करने मे सक्षम हैं जिस घर मे पुरूष हैं ?? कुश
जब तक आप की तरह लोग मानसिक कंडिशनिंग की वजह से Man पॉवर को बढावा देते रहे गे , कही कुछ नहीं बदलेगा . बदलना हैं तो मानसिक सोच बदले अपनी .

mehek said...

नोंचते है गिद्ध दिन भर
रात को आता है दरिन्दा
सोचो पापा कैसे आपकी
गुड़िया अब रहेगी ज़िंदा,

पापा अब ना देर लगाओ
जल्दी से तुम आ जाओ
वरना कल ये खबर मिलेगी
एक रसोई फिर से जलेगी

bahut bhavuk panktiyan hai kush ji,siddhi dil ki bat bahut achhe.


ghughuti ji se sehmat khud ko sambhalon kahe kisi pe nirbhar raho

rachanaji se sehmat sehmat sehmat,hm bahut sehmat,mansikta badalni hogi,beti maa bhi tumhe sahara de sakti hai,but better apana astitv khud sawaron.

मीनाक्षी said...

आपकी कविता को पढ़कर मन मे उथल पुथल इस रूप में बाहर आई...
गन्दे लोगों से छुड़वाओ... पापा मुझको तुम ले जाओ...
खत पढ़कर घर भर में छाया था मातम....

पापा की आँखों से आँसू रुकते न थे....
माँ की ममता माँ को जीते जी मार रही थी ....

मैं दीदी का खत पढ़कर जड़ सी बैठी थी...
मन में धधक रही थी आग, आँखें थी जलती...
क्यों मेरी दीदी इतनी लाचार हुई...
क्यों अपने बल पर लड़ न पाई...

माँ ने हम दोनों बहनों को प्यार दिया ..
पापा ने बेटा मान हमें दुलार दिया....
जूडो कराटे की क्लास में दीदी अव्वल आती...
रोती जब दीदी से हर वार में हार मैं पाती...

मेरी दीदी इतनी कमज़ोर हुई क्यों....
सोच सोच मेरी बुद्धि थक जाती...

छोटी बहन नहीं दीदी की दीदी बन बैठी...
दीदी को खत लिखने मैं बैठी..

"मेरी प्यारी दीदी.... पहले तो आँसू पोछों...
फिर छोटी की खातिर लम्बी साँस तो खीचों..
फिर सोचो...
क्या तुम मेरी दीदी हो...
जो कहती थी..
अत्याचार जो सहता , वह भी पापी कहलाता...
फिर तुम.....
अत्याचार सहोगी और मरोगी...
क्यों .... क्यों तुम कमज़ोर हुई...
क्यों... अत्याचारी को बल देती हो....
क्यों.... क्यों... क्यों...

क्यों का उत्तर नहीं तुम्हारे पास...
क्यों का उत्तर तो है मेरे पास....

तोड़ दो सारे बन्धन और अपने बल पर मुक्ति पाओ..
अपने मन की आवाज़ सुनो फिर राह चुनो नई तुम..
ऊँची शिक्षा जो पाई उसके अर्थ ढूँढ कर लाओ ..
अपने पैरों पर खड़े होकर दिखलाओ तुम ....

दीदी बनके खत लिखा है दीदी तुमको...
छोटी जानके क्षमा करो तुम मुझको....

रश्मि प्रभा... said...

kush ji ,kya kahun.....kai drishya khuli aankhon me ghum gaye,najo se paali beti ki is pukaar ko papa ko sunna hoga, kisi ko aage badhna hoga.......

रंजू भाटिया said...

बहुत सही मीनाक्षी जी ...यही होना चाहिए ...अपने बल पर आगे बढ़ना ही साहस कहलाता है

तोड़ दो सारे बन्धन और अपने बल पर मुक्ति पाओ..
अपने मन की आवाज़ सुनो फिर राह चुनो नई तुम..
ऊँची शिक्षा जो पाई उसके अर्थ ढूँढ कर लाओ ..
अपने पैरों पर खड़े होकर दिखलाओ तुम ....


बहुत ठीक कहा आपने घघुती जी ने भी यही कहा है ...रचना बात यहाँ भावों की है ..जिसका पिता नही होगा वह लड़की जरुर माँ को ही पुकार लगायेगी ...पर यहाँ बात यह है कि वह अपने को ही ख़ुद इतना शास्कत करे कि कोई उसको यूँ सता न सके ..

कुश said...

सर्वप्रथम तो रंजू जी को धन्यवाद. उन्होने मेरी कविता को यहा पोस्ट करने लायक समझा .. आदरणीय घुघूती जी का कमेंट बिल्कुल सही है.. उन्होने बहुत सार्थक बात कही है यदि सभी आत्मनिर्भर हो जाए तो फिर क्या कहना.. मैने सोचा इस विषय पर लिखा जाए.. अभी देखा तो मीनाक्षी जी ने एक सशक्त कविता लिख दी.. बहुत अच्छा लगा उन्हे पढ़कर..

@रचना जी
आपने मेरी रचना को इतने गौर से पढ़ा इसके लिए धन्यवाद, आप उम्र एवं अनुभव दोनो में ही मुझसे कई बड़ी है.. यदि आपको ऐसा लगा है तो ज़रूर कोई बात होगी.. भविष्य में आपको इस प्रकार की शिकायत का मौका नही दूँगा.. अपना आशीर्वाद बनाए रखे..

एक और बार आप सभी का हार्दिक आभार की आपने मेरी रचना को इस ब्लॉग में स्थान दिया..

Anonymous said...

bhut sundar. sahi baat.

दिनेशराय द्विवेदी said...

कुश को बधाई। इतनी अच्छी रचना के लिए।

Anonymous said...

"रचना बात यहाँ भावों की है ..जिसका पिता नही होगा वह लड़की जरुर माँ को ही पुकार लगायेगी "
रंजना कविता भावः पूर्ण हैं इसीलिये आप ने उसे यहाँ डाला हैं , कविता के शिल्प से हट कर बात हो तो माँ को भी उतरदाईत्व निभाना होगा अपनी बेटी के प्रति या अपनी बेटे के प्रति . अगर आप की सोच मे पिता ही संरक्षक हैं तो आप भी मन से पितृसक्ता को ही सही मान रही हैं . अगर हम बराबरी का दावा करेगे तो हमें हर चीज़ मे बराबरी करनी होगी कर्तव्य भी दोनों के बराबर हो अगर अधिकार बराबर हो तो . इस समाज मे नहीं तो बहुतो को आज भी यही सुनना पड़ता हें बेचारी के बाप भाई नहीं हैं कौन खडा होगा . मेरा आशय कुश की कविता पर कमेन्ट से यही था की माँ को भी उतर दाई बनाओ ताकि बेटी माँ से भी वही संरक्षण पा सके जो पिता से