माँ का सपना होता हैं
उस दिन से
जब वह बेटी को जनम देती हैं ।
उसकी प्यारी गुड़िया
सजे , संवरे , बड़े होकर दुलहन बने
उसके घर बारात आए
और उसकी बेटी रानी बन कर बाबुल का घर छोडे ।
पर हर माँ का सपना पूरा नहीं होता
आज योग्य बेटियाँ
विवाह - बंधन मे बंधना नहीं चाहती ।
विवाह संस्था मे उनका विशवास नहीं ।
छल - परपंच , भय , आशंका , अविश्वास
नया जीवन ना जाने कैसा हो ??
वह पुरूष जो वेदी की परिक्रमा करके
सात वचन भरके
जीवन भर के लिये जुड़ जायेगा
क्या जीवन भर सुख भी दे पायेगा ??
विवाह संस्था देती हैं अधिकार
क्या उसके साथ कर्तव्य भी जुड़ पायेगा ??
इसी चिंतन - मनन में
स्वीकार कर लेती हैं
अपना एकाकीपन ।
वे समर्थ हैं , किसी के आगे किसी के साथ
समझोता क्यों करे ??
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2 comments:
क्या जीवन भर सुख भी दे पायेगा ?? --
मेरे विचार में सुख और सेवा लिए नहीं दिए जाते हैं.. देने के भाव में जो आनन्द है, उसे वर्णित कर पाना मुश्किल है.
एकाकीपन ऐसा जैसा सन्यास ले लेना... पग पग पर समझौता ही अपने आप को पहचानने की कसौटी है...
विवाह संस्था पर लोगों का घटता भरोसा दुखद है। लेकिन, भरोसे के लिए किसी संस्था को तो मजबूत करना ही होगा। भले हम विवाह की पुरानी संस्था को ही दुरुस्त कर लें या और कुछ बेहतर हो सके तो बनाएं। लेकिन, सिर्फ भरोसा तोड़ देने से ही काम तो नहीं ही चलने वाला।
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