लडकियां सिर्फ़ समान है तुम्हारा ॥आज भी लड़की को कई जगह सिर्फ़ एक समान जैसे घर में पड़ा हुआ फर्नीचर या सिर्फ़ एक जिस्म समझा जाता है ...महेन जी ने अपन इस कविता में लड़की के इस दर्द को बखूबी अपनी कलम से लफ्जों में ढाला है ।आज यहाँ हम उनकी यह कविता मेहमान कवि के रूप में पोस्ट कर रहे हैं ...पढ़े और सोचे की यह मानसिकता अभी भी क्यूँ बनी हुई है ..
तुम्हारी लड़कियाँ सिर्फ़ सामान हैं तुम्हारा
यदि नहीं तो तुम ही बताओ और कौनसा दरजा देते हो तुम उन्हें?
तुम्हारी लड़कियाँ पगड़ी में लिपटी हुई इज़्ज़त होती हैं सिर्फ़
इसलिये उन्हें कलफ़ करके चमकाया जाता है;
हर पगड़ी की फनफनाती कलगी वास्तव में
किसी सुशील लड़की का झुका हुआ सिर होती है;
उन लड़कियों को उनके दहेज के साथ
सहेजकर रख दिया जाता है बंद दीवारों में
आने वाले कुछ सालों के लिये
ताकि जब वे पूरा सामान बनकर बाहर निकलें
उन्हें सजाकर रखा जा सके ड्राईंग-रूम की पेंटिंग के नीचे
अपने दहेज के सामान की लिस्ट के साथ
और पूरे दहेज में उनके सबसे आकर्षक होने की प्रार्थना की जाती है।
मगर इससे भी पहले जैसे लकड़ी ठोंककर भरी जाती है हथौड़े के सिर में
तुम उनके शब्दकोश में भर देते हो एक वाक्य
कि उनके लिये प्रेम और काम अकरणीय हैं
और सिखाते हो कि कौमार्य ही है उनकी मुक्ति का अंतिम मार्ग;
मगर तुम यह सीखाना तो भूल ही जाते हो हर बार
कि यह सहेजा हुआ कौमार्य कैसे समर्पित किया जाता है
अपने मुक्ति के देवता के चरणों में,
क्योंकि तुम्हारी महान संस्कृति चौंसठ कलाएँ गढ़ने के बाद भी
तालिबानी युग में जी रही है।
जब बरसों का एक भूखा भोगता है तुम्हारी कन्याओं को
तो उनकी रक्त रंजित दुविधाओं पर मनाते हो तुम उत्सव
और महसूस करते और कराते हो उनके अस्तित्व की सार्थकता।
यह कैसा खेल है कि तुम अपनी कुँठाएं तक खुद लादकर नहीं चल सकते
और बिसात पर उनको ठेलते रहे हो जिनके तुम संरक्षक हो,
क्योंकि मानवीयता के तमाम शास्त्रों ने नहीं गढ़े कोई सिद्धांत
संरक्षितों के आवश्यकतानुसार दोहन पर;
और कैसे उत्सव हैं तुम्हारे कि चीत्कारों पर गाते हो मंगलगान
और सीत्कारों पर अमर्ष राग।
तुम्हारे इस आधी आबादी पर किये अनाचारों की
यह तो सिर्फ़ प्रस्तावना है
जिसके कर्ता, कारक और कारण तुम स्वंय हो
वरना इस आबादी पर
जो हथियार तुमने ताने हुए हैं सदियों से
उनकी घातकता तो मानव इतिहास के सभी युद्धों से ज़्यादा है।
महेन
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
9 comments:
bahut aag hai sar ji aapke ander to.........achha laga aapke vicharon ko padhkar kavita ke madhyam se.badhte rahiye.
acchha kam hai ranju ji naye naye logo ko aap jagah de rahi hain.
alok singh "sahil"
महेन आप की ये कविता आप के ब्लॉग पर पढी पर लगा इसकी सही जगह यहाँ हैं आप ने आज्ञा दे की इसे यहाँ डाला जा सके इसके लिये बहुत धन्यवाद .
ek jwalant prashn.......sahi jagah,sahi saanche me
रचना जी,
आभारी हूँ कि आपने मेरे लेखन को इस योग्य पाया कि इस ब्लोग पर जगह दी। वैसे इसकी सही जगह यह ब्लोग ही है और इसका यहाँ प्रकाशित होना मेरी सहास्तित्व की उस मान्यता का भी समर्थन करता है जिसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं।
फ़िर से धन्यवाद।
शुभम।
जिसके कर्ता, कारक और कारण तुम स्वंय हो
वरना इस आबादी पर
जो हथियार तुमने ताने हुए हैं सदियों से
उनकी घातकता तो मानव इतिहास के सभी युद्धों से ज़्यादा है।
bahut badhiya aur sarthak kavita
bhut sundar.
बेचारी आपकी नारी...
यह कैसा खेल है कि तुम अपनी कुँठाएं तक खुद लादकर नहीं चल सकते
और बिसात पर उनको ठेलते रहे हो जिनके तुम संरक्षक हो,
क्योंकि मानवीयता के तमाम शास्त्रों ने नहीं गढ़े कोई सिद्धांत
संरक्षितों के आवश्यकतानुसार दोहन पर;
और कैसे उत्सव हैं तुम्हारे कि चीत्कारों पर गाते हो मंगलगान
और सीत्कारों पर अमर्ष राग।
तुम्हारे इस आधी आबादी पर किये अनाचारों की
यह तो सिर्फ़ प्रस्तावना है
जिसके कर्ता, कारक और कारण तुम स्वंय हो
वरना इस आबादी पर
जो हथियार तुमने ताने हुए हैं सदियों से
उनकी घातकता तो मानव इतिहास के सभी युद्धों से ज़्यादा है।
महेनजी आपने सदियों से प्रचलित किवदन्तियों व अनुचित धारणाओं को लेकर बहुत अच्छी रचना परोसी है. इसका स्थान केवल यह ब्लोग ही नही है, इसका प्रचार-प्रसार जितना अधिक हो उतना ही अच्छा है.हां वर्तमान में धारणायें बदल रही हैं ऐसा प्रतीत होता है किन्तु बहुत छोटे वर्ग में बदलाव आया है, अभी बहुत यात्रा बाकी है किन्तु यात्रा सद्भावना के साथ हो तो अच्छा रहेगा.
प्रस्तावना ही सब बता देती है।
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