सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Sunday, June 29, 2008

मेरे पूरक ??

चीर हरण मेरा होता आया
जुआ जब जब तुमने था खेला
वनवास काँटा मैने
धोबी को जब वचन तुमने दिया
घर दोनों ने बसाया
मालिक तुम कहलाये

करवाचौथ का व्रत मैने रखा
लम्बी आयु तुमने पायी
नौ महीने कोख मे मैने रखा
वंश बढ़ा तुम्हारा
भोगा और सहा सिर्फ़ मैने
फिर किस अधिकार से
मेरे पूरक तुम कहलाये ??



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8 comments:

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

‘अंधे का पुत्र अंधा’ से बात आगे बढ़ गयी थी
चीर हरण की शर्म धोने के लिए
‘महाभारत’ की लड़ाई लड़ी गयी थी
धोबी को दिया गया वचन
दे गया राम को भी वही वियोग
जो सीता ने वनवास में पाया
लव-कुश से राम की गोद भी खाली रही
नहीं मिला संयोग
आज भी हम सीताराम कहते हैं
राम-सीता नहीं
घर बसाने पर
मालकिन का दर्जा भी अपने-आप मिलता है
कोई मालिक ख़ैरात नहीं करता है
लम्बी आयु की कामना में
करवाचौथ
इसमें कोई स्वार्थ न हो
तो बन्द कर दें इसे
बहुतों ने किया भी है
लेकिन
शायद यह हो न सकेगा
प्रकृति का वरदान
माँ की कोख
इसपर भी तेरा-मेरा?
क्या कहें!
इसका पूरक भी बताना पड़ेगा?
कथाओं को पूरा पढ़ना जरूरी है
अपने को अलग करने की
दीवानगी
कहाँ तक ले जाएगी?
डर लगता है।

मीनाक्षी said...

आपकी रचना के शीर्षक का उत्तर सिद्धार्थ जी की टिप्पणी में छिपा है. कविता को पढ़कर उस पर एक दम सटीक टिप्पणी पढ़ कर लगता है कि लेखन सफल हुआ. ..

Anonymous said...

siddharth ji se puri tarah sehmat hai hum.

रश्मि प्रभा... said...

samaaj purush-varg ka raha,
to adhikansh soch bhi waisi chali,
satya jab bhi samne aayega,
lik se alag kaha jayega........
par satya ki aanch ko bhala kaun rok paayega?

Anonymous said...

बचपन में पुरुष रिश्तेदार द्वारा किसी नारी पात्र या स्वयं को मिले भावनात्मक आघात का प्रभाव हो सकती है ऐसी कविताएं .. अपने गुस्से का छितरण-वितरण सब पर लगातार करना ये दर्शाता है की किसी मनोचिकित्सक की लंबे समय तक सलाह की जरूरत है.

Anonymous said...

अनोंय्मोउस का धन्यवाद जिनको अदृष्ट दिखता हैं . सलाह पर जरुर ध्यान दिया जायेगा . आप बार बार आते रहे क्योकि जिस दिन सच को स्वीकार करने की ताकत आप मे आ जायेगी आप अपना चेहरा समाज को दिखा सकेगे और अगर बिना माँ बाप के इस दुनिया मे ना आए हो तो अपना नाम हम सब को बता सकेगे . और आप को क्या कहूँ बस आते रहे अपना क्रोध हम सब पर उतारते रहे , क्रोध की क्यों इतना सच ये सब लिखती हैं की आईने मे मुह देखने पर विद्रूप अपना चेहरा लगता हैं और नाम बताने मे भी डर लगता हैं .
सिद्दार्थ जी
मेरी चंद लाइनों ने आप को लिखने को मजबूर किया धन्यवाद हम अपना पक्ष रख रहे है आप अपना बस इसी तरह कुछ हम बदलेगी कुछ आप.
मीनू , महक और रश्मि पक्ष !!! विपक्ष !!!! मे वोटिंग के लिये धन्यवाद

रंजू भाटिया said...

रचना की रचना अच्छी है ..और सिद्दार्थ जी का उत्तर सटीक ...यह तो स्त्री पुरूष दोनों को मनाना होगा की वह एक दूजे के पूरक हैं और हमेशा रहेंगे पर यह सोच जो रचना जी की कविता मैं है वह तब उभरती है जब स्त्री के किए को उचित मान सम्मान नही मिलता है ..तो आखिर दिल की बात कहीं तो किसी रूप में निकलेगी ही ...शिकायत पुरूष से नही उस बनाये गए समाज के रीती रिवाजों से है जो हर बात की बुरे होने पर सिर्फ़ स्त्री को दोषी ठहरा देते हैं ..इस में बेनाम जी मनोचिकित्सक की लंबे समय तक सलाह की जरूरत है.इस समाज को है ..जो स्त्री को कमजोर समझ लेता है ...इस समाज से मेरा मतलब स्त्री पुरूष दोनों से हैं क्यूंकि समाज सिर्फ़ पुरूष से नही बना है ....

neelima garg said...

age old debate....the fact is that they complete each other.....