सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Tuesday, June 10, 2008

साहिल

साहिल पर खड़े हुए
सरकती रेत क़दमों के नीचे से
जैसे वक्त सरकता जाए मुट्ठी से
दूर क्षितिज पर एक सितारा
आसमान पर टंके ये लम्हे ,पलछिन
यही सच है शेष है भ्रम --
गुजरता वक्त जिन्दगी का सच है
प्रतिपल बढ़ते कदम ,
एक अनजान डगर पर
जिसके आगे पूर्णविराम
चिरनिद्रा चिर्विश्राम !!!
--नीलिमा गर्ग

3 comments:

रंजू भाटिया said...

गुजरता वक्त जिन्दगी का सच है ...
बस यही ज़िंदगी का सच है ..बहुत सुंदर कविता लगी मुझे यह

डॉ .अनुराग said...

सच कहा आपने ....बस यही एक सच है....

Anonymous said...

bilkul sahi kaha,gujarta waqt hi sach hai jeevan ka.