सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Tuesday, June 17, 2008

रेत से गीले पल

ज़िंदगी तो मिल जाती हैं सबको चाही या अनचाही
बीच में मिल जाते हैं ना जाने कितने अनजान राही

बिताते हैं कुछ पल वो ज़िंदगी के साथ साथ
कुछ मीठे- कड़वे पलो की सोगाते दे जाते हैं

यह ज़िंदगी का खेल बस वक़्त के साथ यूँ ही चलता जाता है
बचपन जवानी में ,जवानी को बुढ़ापे में तब्दील कर जाता है

सब अपने सुख दुख समेटे इस ज़िंदगी को बस जीते जाते हैं
बह जाते हैं यह रेत से गीले पल फिर कब हाथ आते हैं !!
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

7 comments:

Rachna Singh said...

achchi kavitaa

Anonymous said...

Ek achchhi kavita ka rasaswad karaya aapane!

neelima garg said...

sweet poem...

नीरज गोस्वामी said...

रंजू जी
बह जाते हैं यह रेत से गीले पल फिर कब हाथ आते हैं !!
बिल्कुल सच बयां किया है आपने ज़िंदगी का...बेहतरीन शब्द.
नीरज

रंजना said...

बहुत ही सुंदर,भावपूर्ण, जिंदगी की सच्चाई से दो चार कराती रचना,बधाई.

mehek said...

zindagi se milati bahut sundar kavita

रश्मि प्रभा... said...

सब अपने सुख दुख समेटे इस ज़िंदगी को बस जीते जाते हैं
बह जाते हैं यह रेत से गीले पल फिर कब हाथ आते हैं !!
सही भाव....जो दिल से उतारते हैं,दिल तक जाते हैं.