ऐसी ही हूँ मैं
सब का ख़याल रखती हूँ अपने साथ
कभी बेटी,कभी बहन,कभी मा,कभी अर्धांगिनी बनकर
कुछ भी नही चाहा बदले में,
बस अपना स्वतंत्र अस्तित्व खोना नही मुझे
मुश्किलों में डट कर खड़ा होना
छोटी छोटी खुशियों को सहेजना सवारना
वक़्त के साथ ढलना ,दुनिया के साथ चलना
आता है मुझे,सिखती रहती हूँ नये कदम
मगर मुझे इस बात से इनकार नही
जितनी मजबूत मन हूँ,उतनी ही कोमल दिल भी
शब्दों के ज़हरीले तीर हताहत कर देते है
वही प्यार के दो बूँदो की बरसात
सब क्लेश बहा देते है
दिल को सवेदनाओ में भीगो देते
ऐसी ही हूँ मैं
लम्हे मुझे खुद से मिला देते है
mehek
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10 comments:
बहुत अच्छी अच्छी कविता है। लेकिन उस नारी के बारे में क्या जो गर्ल फ्रेंड, बॉस या मकान मालकिन होती हैं।
नारी ऐसी ही होती है ..सुंदर रचना लिखी है आपने महक
मेहक जी ..
अच्छी कविता,
मन के भाव दर्शाती.
लिखती रहेँ -
स्नेह,
- लावण्या
mehak
bahut achchi haen aap ki soch
aise hi bani rahiye...aap aise hi bahut achhi hai...
संवेदना को पंख दिये हैं आपने।
***राजीव रंजन प्रसाद
महक जी
बहुत सच लिखा है आफने। नारी बस ऐसी ही है और ऐसी ही रहेगी। ये उसकी विशिष्टता है। मगर समाज में इसी को उसकी कमजोरी समझा जाता है। एक सशक्त रचना के लिए बधाई।
जितनी मजबूत मन हूँ,उतनी ही कोमल दिल भी ---- यही सच है....
हमेशा की तरह खूबसूरत महकते भाव .....
सच, सच और सिर्फ़ सच.
एक बहुत अच्छी कविता के माध्यम से.
quite emotional n sweet poem...
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