बलात्कार से ग्रस्त
एक अबोध बालिका को
गोद में लिए
विक्षिप्त सी माँ
शून्य में ताक रही है
बेटी की दशा पर
हृदय छलनी है
आँखे बरस रही हैं
टप-टप टप
बज रहे हैं
ढोल, बाजे मृदंग
आरती के गीत
और जय- कार के स्वर
कानों में पड़ते है जैसे
पिघला हुआ गर्म शीषा
तुम कैसे भगवान हो??????
काँप उठता है पत्थर रूप ईश्वर
दे नहीं पाता कोई भी उत्तर
चुपचाप
मौन हो बस
उत्तर दे भी क्या
कैसे धीर बँधाए
आज भक्त की रक्षा का वचन
तार-तार हो गया
उसके अपने आँगन में
अत्याचार हो गया
पत्थर की आँखों से
और उसने बस इतना ही कहा
आज जो देखा…..
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7 comments:
एक सशक्त रचना... वार करती हुई..
सच्चाई कहती हुई कविता।
रोज़ ऐसी खबर सुन कर तो लगता है कि इस कविता में लिखा हुआ सच है .ईश्वर भी हैरान हो जाता होगा अपनी ही रची मानवता को हेवानियत में बदलते देख कर अच्छा लिखा है आपने शोभा जी
ईश्वर ने तो प्रेम बनाया था. इंसानियत बनाई थी. इंसान ने उसे नफरत में बदल दिया. हैवान बन गया इंसान. शर्मिंदा कर रहा है इंसान भगवान् को.
शोभा जी,
आपकी सशक्त लेखनी का कायल हो गया हूँ.
आप ऐसे-ऐसे ज्वालत विषय पर इतने धारदार तरीके से कलम चलाती हैं कि दिल रो उठता है.
सबकी संवेदना पत्थर हो चुकी हैं अब लोग अपने बेटी को नहीं बक्श रहे तो दूसरे की बेटी और बहिन तो पराई होती हैं
bahut hi sashakta rachana,ye dard ki aah sunkar sach mein pathar bhi pighal jaye
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