सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Thursday, June 19, 2008

सोने का पिंजर

सारे ऐहीक सुख है उसके पास
किसी चीज़ की नही है कमी
सोचती क्या किस्मत उसने पाई
सोने की दुनिया,उसके हिस्से आई
बास कुछ केहने की देर
सब तुरंत मिल जाता
फिर उसके चेहरे पर वो नूर क्यों नही आता ?
जिस नसीब पर उसे था नाज़
उस पर ही रोना आता क्यों आज
वो एक आज़ाद पंछी है,रहती वो आसमान पर
ये सोने का पिंजर , कैसे हो गया उसका घर?
खोल दो ये क़ैद का बंधन
कर दो उसे आज़ाद फैलाने दो उसे वो पंख
हवा को चिरती उसकी उमंगे
उड़ने दो उसे भी उनके संग
देखने दो उसे,उँचाई से ये मंज़र
उपर किरनो की बाहे,नीचे गहरा समंदर
खोजना है उसे,एक नया आकाश
तलाश करना है अपना अस्तित्व
बनाना है ख़ुद का व्यक्तित्व..

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

10 comments:

Anonymous said...

hi mehak
nice and expressive poem , vey touching . there was some problem with ur posting in text allign ment , i hve taken the liberty of correcting it please . do check if in correction something got deleted or missed out .
THE POEM SURE IN ITSELF DESCIBES THE MYTH OF HAPPINESS

Anonymous said...

thank u rachana ji,for the editing in alingment,actualy i was having some difficutly in editing,nahi poem ka koi bhag missing nahi hai,shukriya,aur sarahna ke liye bhi shukrana.

mamta said...

महक इसका शीर्षक और हर एक शब्द बहुत कुछ कह रहा है।
उड़ने दो उसे भी उनके संग
देखने दो उसे,उँचाई से ये मंज़र
उपर किरनो की बाहे,नीचे गहरा समंदर
खोजना है उसे,एक नया आकाश
तलाश करना है अपना अस्तित्व
बनाना है ख़ुद का व्यक्तित्व..

बहुत सही कहा है।

डॉ .अनुराग said...

खोल दो ये क़ैद का बंधन
कर दो उसे आज़ाद फैलाने दो उसे वो पंख
हवा को चिरती उसकी उमंगे
उड़ने दो उसे भी उनके संग
देखने दो उसे,उँचाई से ये मंज़र
उपर किरनो की बाहे,नीचे गहरा समंदर
खोजना है उसे,एक नया आकाश
तलाश करना है अपना अस्तित्व
बनाना है ख़ुद का व्यक्तित्व

वाह महक जी...बहुत अच्छे ...कभी ऐसा ही कुछ लिखा था.....
"उड़ने दो मुझे मेरा आसमान मुझे रोज बुलाता है........

रंजू भाटिया said...

उड़ने दो उसे भी उनके संग
देखने दो उसे,उँचाई से ये मंज़र
उपर किरनो की बाहे,नीचे गहरा समंदर
खोजना है उसे,एक नया आकाश

बहुत खूब ..

मुझे मेरे सपनो का आकाश चाहिए
उड़ सकूँ या नही उड़ने का आभास चाहिए

लिखा था बहुत पहले :)

Anonymous said...

तलाश करना है अपना अस्तित्व
बनाना है ख़ुद का व्यक्तित्व. bhut hi aachi talash.likhati rhe.

मीनाक्षी said...

कविता वही जो दूसरे को भी कविता करने पर विवश कर दे...बहुत खूबसूरत भाव.....
सोने का पिंजर कभी तो टूटेगा
इसी आशा में मुट्टी भर आसमान मिलने पर भी
चहक उठती है कोमल चिडिया ...
कभी पूरा आसमान भी मिलेगा ..!

रश्मि प्रभा... said...

bahut hi sarthak baaten hain,
jo gahre tak jaati hain......

डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी said...

ये सोने का पिंजर , कैसे हो गया उसका घर?
खोल दो ये क़ैद का बंधन
कर दो उसे आज़ाद फैलाने दो उसे वो पंख
हवा को चिरती उसकी उमंगे
उड़ने दो उसे भी उनके संग
देखने दो उसे,उँचाई से ये मंज़र
उपर किरनो की बाहे,नीचे गहरा समंदर
महक जी आपने बहुत अच्छे भाव अभिव्यक्त किये हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि पिंजरे का दरवाजा तो खुला है- लेकिन पिंजरें से हम बाहर जाना ही नहीं चाहते क्योंकि पिंजरा कुछ हद तक स्वतंत्रता को प्रतिबन्धित अवश्य करता है किन्तु बाहर के खतरों से भी बचाता है. प्रत्येक सिक्के के दो पहलू होते हैं- केवल लाभ मिल जाय और हानि जोखिम दुसरा उठाये यह सम्भव नहीं है, बुरा मत मानियेगा, कितनी नारियां ऐसी हैं जो अपने से अधिक योग्य, धनवान व समर्थ पति की कामना नहीं करतीं? आप शादियों के लिये डाले गये प्रोफ़ाइलों पर नजर डाल सकतीं हैं. यह सनातन नियम है कि दुनियां मे कुछ भी मुफ़्त नहीं मिलता, कीमत चुकानी पड्ती है, यदि हम धन,पद,यश,सम्बंधों व प्राणों का मोह छोड दें तो दुनियां की कोई शक्ति किसी को पिजंरे में नहीं रख सकती. पिंजरे को पसन्द कौन करता है किन्तु उसके लाभों को भी छौड्ना नहीं चाहता, नारी ही नहीं नर को भी परिवार पिंजरा ही लगता है, तभी तो युगों-युगों से वह घर से भागता रहा है, नर अधिक पलायनवादी है नारी की तुलना में, वह भी नहीं चाहता सोने के पिंजरे को किन्तु कुछ अपवदों को छोड्कर आज तक छोड भी नहीं पाया, हां पिंजरे का दरवाजा तो खुला है नर के लिये भी और नारी के लिये भी. किन्तु पिंजरे के बाहर आसमान गीधों व बाजों से भी मुकाबला करना पडेगा. उसके लिये अधिकांश नारी तैयार नहीं हैं और पिंजरे में खुशियां खोज रही हैं, खुशियां न पिंजरे में हैं न बाहर वे तो अपने ही अन्दर हैं

mehek said...

rastra premi ji ye kavita hamne parivaar ke rishton se aazadi ke liye nahi likhi,parivaar ka sneh bhara pinjara sone ka ho ya lohe ka pyara hi hota hai,hamare man mein har nari ko shiksha prapta ho shayad aisa kuch vichar tha man mein,magar ye bhi sahi hai har padhnewala apne hisaab se kavita ka arth nikalta hai.