हर इंसान जीता है अपने ही बनाये तिलिस्म में
और बुन लेता है जाने अनजाने कितने सपने
रंग भर के इन में अपने ही मन चाहे
वो एक ख्वाबों की दुनिया बसा लेता है
नही तोड़ पाता वह ख़ुद के बुने इस जाल को
कोई तीसरा इंसान ही उसे इस ख़्वाब से जगाता है
और फ़िर एक खामोशी सी फ़ैल जाती है जहाँ में
जहाँ ना कोई आता है और ना ही फ़िर कोई जाता है
जिन्दगी की शाम ढलने लगती है फ़िर तनहा-तनहा
और बीते सायों का लबादा पहने वक्त
हमे यूं ही कभी डराता है कभी बहकाता है !!
और बुन लेता है जाने अनजाने कितने सपने
रंग भर के इन में अपने ही मन चाहे
वो एक ख्वाबों की दुनिया बसा लेता है
नही तोड़ पाता वह ख़ुद के बुने इस जाल को
कोई तीसरा इंसान ही उसे इस ख़्वाब से जगाता है
और फ़िर एक खामोशी सी फ़ैल जाती है जहाँ में
जहाँ ना कोई आता है और ना ही फ़िर कोई जाता है
जिन्दगी की शाम ढलने लगती है फ़िर तनहा-तनहा
और बीते सायों का लबादा पहने वक्त
हमे यूं ही कभी डराता है कभी बहकाता है !!
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
6 comments:
bilkul sahi,hum apne hi banaye tilim mein fas jate hai,bahut hi sundar badhai.
बहुत ही सही बात कही आपने अपनी कविता के माध्यम से.दुनिया का हर तिलिस्म अपने बूते के आगे बौना हो जाता है,पर जब अपने ही बूते से बनी तिलिस्म हो तो..........
आलोक सिंह "साहिल"
sachhi bat....
बहुत सुंदर लिखा है आपने रंजू जी..
bhut hi bhavnatmak kavita.akdam sahi. ranju ji likhati rhe.
बहुत सही कहा रंजना जी आपने !हर इंसान अपने ख़्वाबों की दुनिया सजाता है ,रंग भरता है....और इसी जाल में कब खो जाता है कि जिंदगी कब गुज़र गयी पता ही नहीं चलता....सच ही वक़्त बहुत बड़ी ताकत है...बहुत अच्छी रचना !
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