सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Saturday, June 28, 2008

बाबुल

नयनो की जलधारा को, बह जाने दो सब कहते
पर तुम इस गंगा जमुना को मेरे बाबुल कैसे सहते
इसलिए छूपा रही हूँ दिल के एक कोने में
जहाँ तेरे संग बिताए सारे पल है रहते
होठों पर सजाई हँसी,ताकि तू ना रोए
इन आखरी लम्हों को,हम रखेंगे संजोए
आज अपनी लाड़ली की कर रहे हो बिदाई
क्या एक ही दिन मे, हो गयी हू इतनी पराई
जानू मेरे जैसा तेरा भी मन भर आया
चाहती सदा तू बना रहे मेरा साया
वादा करती हूँ निभाउंगी तेरे संस्कार
तेरे सारे सपनो को दूँगी में आकार
कैसी रीत है ये,के जाना तेरा बंधन तोड़के
क्या रह पाउंगी बाबुल, मैं तेरा दामन छोड़के.

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

8 comments:

Anonymous said...

nice expressions well written

रंजू भाटिया said...

कैसी रीत है ये,के जाना तेरा बंधन तोड़के
क्या रह पाउंगी बाबुल, मैं तेरा दामन छोड़के.

यही दुनिया की रीत है ..अच्छी कविता है ..

रश्मि प्रभा... said...

bahut badhiyaa.....

Anonymous said...

aapki kavita vakai bhut bhavnatmak hai. ati uttam. likhati rhe.

डॉ .अनुराग said...

kuch nahi kahunga bas aapki bhavna ko salam...

Udan Tashtari said...

कैसी रीत है ये,के जाना तेरा बंधन तोड़के
क्या रह पाउंगी बाबुल, मैं तेरा दामन छोड़के.


--बहुत बढ़ियाँ.

अबरार अहमद said...

बेहद भावुक रचना। इन लाइनों में आपने वह सब कह दिया जो एक लडकी सोचती है।

कैसी रीत है ये,के जाना तेरा बंधन तोड़के
क्या रह पाउंगी बाबुल, मैं तेरा दामन छोड़के.

ghughutibasuti said...

हम्म्म्म!
घुघूती बासूती