सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Wednesday, June 4, 2008

ऐसी ही हूँ मैं

ऐसी ही हूँ मैं
सब का ख़याल रखती हूँ अपने साथ
कभी बेटी,कभी बहन,कभी मा,कभी अर्धांगिनी बनकर
कुछ भी नही चाहा बदले में,
बस अपना स्वतंत्र अस्तित्व खोना नही मुझे
मुश्किलों में डट कर खड़ा होना
छोटी छोटी खुशियों को सहेजना सवारना
वक़्त के साथ ढलना ,दुनिया के साथ चलना
आता है मुझे,सिखती रहती हूँ नये कदम
मगर मुझे इस बात से इनकार नही
जितनी मजबूत मन हूँ,उतनी ही कोमल दिल भी
शब्दों के ज़हरीले तीर हताहत कर देते है
वही प्यार के दो बूँदो की बरसात
सब क्लेश बहा देते है
दिल को सवेदनाओ में भीगो देते
ऐसी ही हूँ मैं
लम्हे मुझे खुद से मिला देते है
mehek
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10 comments:

बिक्रम प्रताप सिंह said...

बहुत अच्छी अच्छी कविता है। लेकिन उस नारी के बारे में क्या जो गर्ल फ्रेंड, बॉस या मकान मालकिन होती हैं।

रंजू भाटिया said...

नारी ऐसी ही होती है ..सुंदर रचना लिखी है आपने महक

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

मेहक जी ..
अच्छी कविता,
मन के भाव दर्शाती.
लिखती रहेँ -
स्नेह,
- लावण्या

Anonymous said...

mehak
bahut achchi haen aap ki soch

डॉ .अनुराग said...

aise hi bani rahiye...aap aise hi bahut achhi hai...

राजीव रंजन प्रसाद said...

संवेदना को पंख दिये हैं आपने।

***राजीव रंजन प्रसाद

शोभा said...

महक जी
बहुत सच लिखा है आफने। नारी बस ऐसी ही है और ऐसी ही रहेगी। ये उसकी विशिष्टता है। मगर समाज में इसी को उसकी कमजोरी समझा जाता है। एक सशक्त रचना के लिए बधाई।

मीनाक्षी said...

जितनी मजबूत मन हूँ,उतनी ही कोमल दिल भी ---- यही सच है....
हमेशा की तरह खूबसूरत महकते भाव .....

बालकिशन said...

सच, सच और सिर्फ़ सच.
एक बहुत अच्छी कविता के माध्यम से.

neelima garg said...

quite emotional n sweet poem...