सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Wednesday, June 25, 2008

तिलिस्म

हर इंसान जीता है अपने ही बनाये तिलिस्म में
और बुन लेता है जाने अनजाने कितने सपने
रंग भर के इन में अपने ही मन चाहे
वो एक ख्वाबों की दुनिया बसा लेता है
नही तोड़ पाता वह ख़ुद के बुने इस जाल को
कोई तीसरा इंसान ही उसे इस ख़्वाब से जगाता है
और फ़िर एक खामोशी सी फ़ैल जाती है जहाँ में
जहाँ ना कोई आता है और ना ही फ़िर कोई जाता है
जिन्दगी की शाम ढलने लगती है फ़िर तनहा-तनहा
और बीते सायों का लबादा पहने वक्त
हमे यूं ही कभी डराता है कभी बहकाता है !!

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

6 comments:

Anonymous said...

bilkul sahi,hum apne hi banaye tilim mein fas jate hai,bahut hi sundar badhai.

आलोक साहिल said...

बहुत ही सही बात कही आपने अपनी कविता के माध्यम से.दुनिया का हर तिलिस्म अपने बूते के आगे बौना हो जाता है,पर जब अपने ही बूते से बनी तिलिस्म हो तो..........
आलोक सिंह "साहिल"

डॉ .अनुराग said...

sachhi bat....

कुश said...

बहुत सुंदर लिखा है आपने रंजू जी..

Anonymous said...

bhut hi bhavnatmak kavita.akdam sahi. ranju ji likhati rhe.

shivani said...

बहुत सही कहा रंजना जी आपने !हर इंसान अपने ख़्वाबों की दुनिया सजाता है ,रंग भरता है....और इसी जाल में कब खो जाता है कि जिंदगी कब गुज़र गयी पता ही नहीं चलता....सच ही वक़्त बहुत बड़ी ताकत है...बहुत अच्छी रचना !