सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Tuesday, June 24, 2008

क्यों..

हरे भरे तेरे तृण ऐसे
रोम-रोम पुलकित हों जैसे
स्नेहिल सदा स्पर्श क्यों तेरा?
रीता फिर भी मन क्यों मेरा ?

कोमलाँगी तुम प्यारी-प्यारी
मनमोहिनी न्यारी-न्यारी
क्यों काँटे सी चुभती हो?
क्यों रूखी सी दिखती हो?

धानी आँचल से ढकी हुई
पलकें तेरी हैं झुकीं हुईं
पलक उठाई क्यों तुमने ?
नज़र मिलाई क्यों तुमने?

कहती हो अपनी यदा-कदा
रहती तुम हो मौन सदा
आवाज़ उठाई क्यों तुमने ?
भाव दिखाए क्यों तुमने ?
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

5 comments:

Anonymous said...

bhut accha likhati rhe.

Anonymous said...

धानी आँचल से ढकी हुई
पलकें तेरी हैं झुकीं हुईं
पलक उठाई क्यों तुमने ?
नज़र मिलाई क्यों तुमने?

कहती हो अपनी यदा-कदा
रहती तुम हो मौन सदा
आवाज़ उठाई क्यों तुमने ?
भाव दिखाए क्यों तुमने
wah bahut hi sundar bhav,badhai

डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी said...

उत्तम बहुत उत्तम! चुभन कांटों सी आवश्यक नहीं पुष्पों की भी हो सकती है, आज कुछ अपवादों को छोड्कर नजर मिलाने में किसी को आपत्ति नहीं वरन प्रसन्नता ही होती है.

shivani said...

कहती हो अपनी यदा कदा
रहती तुम हो मौन सदा
आवाज़ उठाई क्यूँ तुमने ?
भाव दिखाए क्यूँ तुमने ?
बहुत खूब .....सामजिक दर्पण में नारी की तस्वीर बदल रही है .....सुन्दर रचना के लिए बधाई !

रंजू भाटिया said...

नारी के बदलते रूप का सुंदर चित्रण है इस कविता में अच्छा लगा इस को पढ़ना