सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Saturday, June 21, 2008

मेरे गीतो में




मेरे गीतो में जो तुम्हे आग दिखाई देती है
यह वह सच जो अपनी ज़ुबान ख़ुद ही कहती है

दर्द जितने मिले हैं मुझ को इस बेदर्द ज़माने से
आज मेरे गीतो में बस उनकी ताप दिखाई देती है

जब भी कुरेद देता है कोई मेरे जख्मो को
एक झंकार ,लय .आह इनमें दिखाई देती है

कभी तो बदलेगा इस दिखावटी ज़माने का मिजाज़ भी
मेरे गीतो में वही एक मधुर आस दिखाई देती है

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7 comments:

Anonymous said...

कभी तो बदलेगा इस दिखावटी ज़माने का मिजाज़ भी
मेरे गीतो में वही एक मधुर आस दिखाई देती है

bahut sundar ranju ji, snageet divas par geeton ke whsaas se bhari khubsurat rachana,bahut badhai

रश्मि प्रभा... said...

har pankti sashakt hai,
andar ke tej se projjwalit hai.......
awashya badlegi anginat soch in panktiyon se.

डॉ .अनुराग said...

जब भी कुरेद देता है कोई मेरे जख्मो को
एक झंकार ,लय .आह इनमें दिखाई देती है

हम बस इतना कहेगे मोहतरमा........
माना की एक तल्ख़ हकीकत है जिंदगी
दिलकश फरेबो से मगर तुझे आजमायेगी ....

समयचक्र said...

Bahut badhiya salaah.Ek din log jarur sachet honge.

shivani said...

बहुत अच्छी रचना !इस बेदर्द ज़माने से मिले दर्द को बखूबी व्यक्त किया गया है !बहुत बहुत धन्यवाद !

नीरज गोस्वामी said...

वाह रंजू जी...बेहद खूबसूरत रचना...दिल के दर्द का बड़ी कलात्मकता से एहसास करवाया है...
नीरज

मोहन वशिष्‍ठ said...

वाह रंजू जी बहुत अच्‍छा लगा और
कभी तो बदलेगा इस दिखावटी ज़माने का मिजाज़ भी
मेरे गीतो में वही एक मधुर आस दिखाई देती
है
बहुत अच्‍छा धन्‍यवाद आपके इन सुविचारों के लिए