सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Friday, June 6, 2008

पत्थर का भगवान

खून से लथपथ

बलात्कार से ग्रस्त

एक अबोध बालिका को

गोद में लिए

विक्षिप्त सी माँ

मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठी

शून्य में ताक रही है

बेटी की दशा पर

हृदय छलनी है

आँखे बरस रही हैं

टप-टप टप

और ऊपर मन्दिर में

बज रहे हैं

ढोल, बाजे मृदंग

आरती के गीत

और जय- कार के स्वर

कानों में पड़ते है जैसे

पिघला हुआ गर्म शीषा

और अचानक फूट पड़ती है वो…..

तुम कैसे भगवान हो??????

काँप उठता है पत्थर रूप ईश्वर

दे नहीं पाता कोई भी उत्तर

चुपचाप

मौन हो बस

पत्थर बन जाता है

उत्तर दे भी क्या

कैसे धीर बँधाए

आज भक्त की रक्षा का वचन

तार-तार हो गया

उसके अपने आँगन में

अत्याचार हो गया

पत्थर की आँखों से

अश्रुधार बह निकली

और उसने बस इतना ही कहा

आज जो देखा…..

उससे मैं भी पत्थर हो गया

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

7 comments:

कुश said...

एक सशक्त रचना... वार करती हुई..

mamta said...

सच्चाई कहती हुई कविता।

रंजू भाटिया said...

रोज़ ऐसी खबर सुन कर तो लगता है कि इस कविता में लिखा हुआ सच है .ईश्वर भी हैरान हो जाता होगा अपनी ही रची मानवता को हेवानियत में बदलते देख कर अच्छा लिखा है आपने शोभा जी

Unknown said...

ईश्वर ने तो प्रेम बनाया था. इंसानियत बनाई थी. इंसान ने उसे नफरत में बदल दिया. हैवान बन गया इंसान. शर्मिंदा कर रहा है इंसान भगवान् को.

बालकिशन said...

शोभा जी,
आपकी सशक्त लेखनी का कायल हो गया हूँ.
आप ऐसे-ऐसे ज्वालत विषय पर इतने धारदार तरीके से कलम चलाती हैं कि दिल रो उठता है.

Anonymous said...

सबकी संवेदना पत्थर हो चुकी हैं अब लोग अपने बेटी को नहीं बक्श रहे तो दूसरे की बेटी और बहिन तो पराई होती हैं

mehek said...

bahut hi sashakta rachana,ye dard ki aah sunkar sach mein pathar bhi pighal jaye