सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Sunday, June 29, 2008

मेरे पूरक ??

चीर हरण मेरा होता आया
जुआ जब जब तुमने था खेला
वनवास काँटा मैने
धोबी को जब वचन तुमने दिया
घर दोनों ने बसाया
मालिक तुम कहलाये

करवाचौथ का व्रत मैने रखा
लम्बी आयु तुमने पायी
नौ महीने कोख मे मैने रखा
वंश बढ़ा तुम्हारा
भोगा और सहा सिर्फ़ मैने
फिर किस अधिकार से
मेरे पूरक तुम कहलाये ??



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रहस्यमयी.............

उम्र कोई हो,एक
लड़की-१६ वर्ष की,
मन के अन्दर सिमटी रहती है...
पुरवा का हाथ पकड़ दौड़ती है
खुले बालों में
नंगे पाँव....रिमझिम बारिश मे !
अबाध गति से हँसती है
कजरारी आंखो से,इधर उधर देखती है...
क्या खोया? -
इससे परे शकुंतला बन फूलों से श्रृंगार करती है
" बेटी सज़ा-ए-आफ़ता पत्नी" बनती होगी
पर यह,सिर्फ़ सुरीला तान होती है!
यातना-गृह मे डालो
या अपनी मर्ज़ी का मुकदमा चलाओ ,
वक्त निकाल ,
यह कवि की प्रेरणा बन जाती है ,
दुर्गा रूप से निकल कर
" छुई-मुई " बन जाती है-
यह लड़की!मौत को चकमा तक दे जाती है....
तभी तो"रहस्यमयी " कही जाती है...!

Saturday, June 28, 2008

बाबुल

नयनो की जलधारा को, बह जाने दो सब कहते
पर तुम इस गंगा जमुना को मेरे बाबुल कैसे सहते
इसलिए छूपा रही हूँ दिल के एक कोने में
जहाँ तेरे संग बिताए सारे पल है रहते
होठों पर सजाई हँसी,ताकि तू ना रोए
इन आखरी लम्हों को,हम रखेंगे संजोए
आज अपनी लाड़ली की कर रहे हो बिदाई
क्या एक ही दिन मे, हो गयी हू इतनी पराई
जानू मेरे जैसा तेरा भी मन भर आया
चाहती सदा तू बना रहे मेरा साया
वादा करती हूँ निभाउंगी तेरे संस्कार
तेरे सारे सपनो को दूँगी में आकार
कैसी रीत है ये,के जाना तेरा बंधन तोड़के
क्या रह पाउंगी बाबुल, मैं तेरा दामन छोड़के.

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Friday, June 27, 2008

बस ऐसे ही , बस यूं ही

कितनी शामे बीती
कितनी राते आयी
पर
वह सुबह नहीं आयी
जब बीती शाम
और
बीती रात की
याद ना आयी
-----------------------------------
समझोते की चारपाई तुमने बिछाई वो सोई
तुम भी अधूरे उठे वो भी अधूरी उठी
-----------------------------------------
खुद ने कहा , खुद ने सुना
दस्ताने मुहब्बत यूं ही
महसूस किया
---------------------------
जिन्दगी की धूप छाँव मे धूप ने इतना तपाया
कि छाँव की आदत ही नहीं रही मुझको ।
------------------------------------
पल्ले मे बंधता है अधिकार,
मुठ्ठी मे बंधता है प्यार
मुठ्ठी भर प्यार ही देता है
फिर जिन्दगी संवार

--------------------------
मंदिर मे राधा को पूजते है जो
जिन्दगी मे राधा को दुत्कारते है वो
----------------------------------
धूप मे छाँव मे संग मे साथ मे
मन मे तन मे आस हैं प्यास है
----------------------------------
कभी कभी जिन्दगी मे कुछ ऐसे रिश्ते भी होते हैं
जो हमारे नहीं होते पर हम याद उन्हे ही करते हैं
----------------------------------------------
हर कवियत्री को गर एक इमरोज मिलता
तो हर कविता मे अमृता होती

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Thursday, June 26, 2008

जैसे गंगा नहा कर मै आयी हूँ

बहुत दिन बाद आज फिर महसूस किया
कि जैसे गंगा नहा कर मै आयी हूँ
जब भी कहीं कुछ मरता है
गंगा नहाना बहुत जरुरी होता है
अस्थिया भी विसर्जित गंगा मे ही होती है
पाप भी गंगा मे ही धुलते है
पाप ही नहीं पुण्य करके भी गंगा नहाते है
भटके हुओं को घर पंहुचा कर भी गंगा नहाते है
कायर रिश्तों की लाश को कब तक मै ढोती
दूसरो के पापो को कब तक मै सहजती
कर दिया है मैने विसर्जन
अनकहे के इंतज़ार का
बहुत दिन बाद आज फिर महसूस किया
कि जैसे गंगा नहा कर मै आयी
हूँ

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एक पिता


मैने देखा एक पिता
एक नन्ही बालिका की
मधुर मुस्कान पर
सुध-बुध भूला पिता…….
आँखों से छलकती
स्नेह की गागर
लबालब वात्सल्य छलकाती थी
और बालिका एक किलकारी
अतुल्य दौलत दे जाती थी
क्रूर,कठोर,निर्दय जैसे विशेषण
दयालु,कोमल और बलिदानी
में ढ़ल गए
बेटी को देख……
सारे हाव- भाव बदल गए
क्या यह वही पुरूष है
जिसे नारी शोषक
और अत्याचारी
समझती है ?
ना ना ना .......
ये तो एक पिता है
जो बेटी को पाकर
निहाल हो गया है
ममता की यह बरसात
जब और आवेग पाती है
पत्नी से भी अधिक प्रेम
बेटी पा जाती है
प्रेम की दौलत बस
बेटी पर बरस जाती है
और प्रेम की अधिकारिणी
प्रेम से वंचित रह जाती है
प्रेमान्ध पिता
घरोंदे बनाता है
अपने सारे सपने
बेटी में ही पाता है
पर बेटी के ब्याह पर
बिल्कुल अकेला रह जाता है
पिता और पुत्री का
एक अनोखा ही नाता है

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Wednesday, June 25, 2008

तिलिस्म

हर इंसान जीता है अपने ही बनाये तिलिस्म में
और बुन लेता है जाने अनजाने कितने सपने
रंग भर के इन में अपने ही मन चाहे
वो एक ख्वाबों की दुनिया बसा लेता है
नही तोड़ पाता वह ख़ुद के बुने इस जाल को
कोई तीसरा इंसान ही उसे इस ख़्वाब से जगाता है
और फ़िर एक खामोशी सी फ़ैल जाती है जहाँ में
जहाँ ना कोई आता है और ना ही फ़िर कोई जाता है
जिन्दगी की शाम ढलने लगती है फ़िर तनहा-तनहा
और बीते सायों का लबादा पहने वक्त
हमे यूं ही कभी डराता है कभी बहकाता है !!

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Tuesday, June 24, 2008

सफ़र - जिंदगी का

बस इसी का नाम जीवन है
तुम मेरी खुशियों को बांटो
मैं तुम्हारे ग़म में रहूँ शामिल
दो कदम तुम मुझ संग चलो
दो कदम मैं तुम संग चलूँ
कभी जिंदगी के सफ़र में
थक जाएँ कदम चलते चलते
दो पल का सहारा तुम मुझको दो
दो पल को मैं तुम्हे आराम दूं
जैसे भी रहें हम जिस हाल रहें
सफ़र जिंदगी का आसान रहे !

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क्यों..

हरे भरे तेरे तृण ऐसे
रोम-रोम पुलकित हों जैसे
स्नेहिल सदा स्पर्श क्यों तेरा?
रीता फिर भी मन क्यों मेरा ?

कोमलाँगी तुम प्यारी-प्यारी
मनमोहिनी न्यारी-न्यारी
क्यों काँटे सी चुभती हो?
क्यों रूखी सी दिखती हो?

धानी आँचल से ढकी हुई
पलकें तेरी हैं झुकीं हुईं
पलक उठाई क्यों तुमने ?
नज़र मिलाई क्यों तुमने?

कहती हो अपनी यदा-कदा
रहती तुम हो मौन सदा
आवाज़ उठाई क्यों तुमने ?
भाव दिखाए क्यों तुमने ?
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Monday, June 23, 2008

ईक झूठ

शादी बटना तन का
बटना मन का
बटना बिस्तर का
बटना एह्सासो का
क्या शादी सिर्फ बाटती है?
क्या कुछ भी ऐसा नहीं हें
जो जुडता है ?
क्यों मरता है मन
पर शादी नहीं टूट्ती
क्यों टूटते है एहसास
पर शादी नहीं टूटती
क्या सच मे शादी
नहीं टूटती
क्या केवल सात फेरे लेने से
बिस्तर पर साथ सोने से
बच्चो को दुनिया मे लाने से
नारी पत्नी होती है और पुरुष पति
बिना प्यार के शादी निबाहना
ईक झूठ को जीना ही है
शादी को बचाने मे
खतम हो रहा अपनापन
मिट रहा है सब कुछ
पर
फिर भी समाज खुश हैं
कि शादी नहीं टूटी ।
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Sunday, June 22, 2008

नारी

नारी के बिना नर अधुरा नर के बिना नारी,
दोनों संग संग ,साथ निभाते दुनियादारी ,
नारी न हो इस दुनिया मे तो सूनी हो जग सारी ,
गोरी हो या कारी,इस दुनिया की श्रृंगार है नारी ,
अगर न हो ,इस जग मे नारी ,हो जाए जीवन भारी,
नर और नारी मिलकर ही ,रचते दुनिया सारी ,
अपना अपना कर्म निभाते ,दोनों आरी पारी ,पत्नी है नारी ,
माँ भी तो है नारी ,फिर क्यो कहते नारी को ,
आफत है सारी ,अगर न हो नारी तो जीवन हो जाए भारी ,
नारी नही तो नर नही ,नर नही तो नारी,
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Saturday, June 21, 2008

एक घुटन भरी डायरी -- असफल औरत

एक घुटन भरी डायरी
यानि एक असफल औरत
एक सफल पुत्री
एक सफल पत्नी
एक सफल माँ
और एक असफल इंसान
मानसिक रूप से टूटी
सामाजिक रूप से सुरक्षित
गलती हमेशा अपनी नहीं
किसी और की खोजती
सब सुविधा से घिरी
फिर भी असंतुष्ट
सदियों से केवल साहित्य रचती
एक घुटन भरी डायरी लिखती
एक असफल औरत जो
इनसान ना बन सकी
राह अपनी ना चल सकी
क्योकी चाहती थी
राह के कंकर कोई चुन देता
सिर पर छाँव कोई कर देता
और सफल इंसान वो कहलाती
घुटन से आजादी वो पाती

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मेरे गीतो में




मेरे गीतो में जो तुम्हे आग दिखाई देती है
यह वह सच जो अपनी ज़ुबान ख़ुद ही कहती है

दर्द जितने मिले हैं मुझ को इस बेदर्द ज़माने से
आज मेरे गीतो में बस उनकी ताप दिखाई देती है

जब भी कुरेद देता है कोई मेरे जख्मो को
एक झंकार ,लय .आह इनमें दिखाई देती है

कभी तो बदलेगा इस दिखावटी ज़माने का मिजाज़ भी
मेरे गीतो में वही एक मधुर आस दिखाई देती है

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Friday, June 20, 2008

नई रचना........

सारथी आज भी श्रीकृष्ण रहे,
पर महाभारत के दिग्गज यहाँ नहीं थे-
थी एक पत्थर हो गई माँ और उसके मकसद,
विरोध में संस्कारहीन घेरे थे...........
कृष्ण ने गीता का ही सार दिया,
और दुर्गा का रूप दिया,
भीष्म पितामह कोई नहीं था,
ना गुरु द्रोणाचार्य थे कहीं.........
दुर्योधन की सेना थी,
धृतराष्ट्र सेना नायक ,
और साथ मे दुःशासन !
एक नहीं , दो नहीं ,पूरे २४ साल,
चिर-हरण हुआ मान का,
पर श्रीकृष्ण ने साथ न छोड़ा..........
जब-जब दुनिया रही इस मद में ,
कि-
पत्थर माँ हार गई ,
-तब - तब ईश्वर का घात हुआ ,
और माँ को कोई जीत मिली....
अब जाकर है ख़त्म हुआ,
२४ वर्षों का महाभारत ,
और माँ ने है ख़ुद लिखा,
अपने जीवन का रामायण...........

Thursday, June 19, 2008

अबला नारी

आज फिर उसके अंतर्मन में चोट लगी ,
घायल दिल कराह उठा !
एक ज़ोर की टीस उठी ,
तिलमिला कर रह गया सब कुछ !
विषाद के आंसू बह चले !
एक अजीब सी
बेचैनी थी ,
उसकी बेबसी की !
मन तड़प रहा था !
व्याकुलता स्पष्ट थी ,
उसके चेहरे पर !
कुछ कहना चाहती थी ,
कुछ करना चाहती थी !
मगर सब व्यर्थ था ,
इस पुरूष प्रधान समाज में
वह एक अबला नारी थी !
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सोने का पिंजर

सारे ऐहीक सुख है उसके पास
किसी चीज़ की नही है कमी
सोचती क्या किस्मत उसने पाई
सोने की दुनिया,उसके हिस्से आई
बास कुछ केहने की देर
सब तुरंत मिल जाता
फिर उसके चेहरे पर वो नूर क्यों नही आता ?
जिस नसीब पर उसे था नाज़
उस पर ही रोना आता क्यों आज
वो एक आज़ाद पंछी है,रहती वो आसमान पर
ये सोने का पिंजर , कैसे हो गया उसका घर?
खोल दो ये क़ैद का बंधन
कर दो उसे आज़ाद फैलाने दो उसे वो पंख
हवा को चिरती उसकी उमंगे
उड़ने दो उसे भी उनके संग
देखने दो उसे,उँचाई से ये मंज़र
उपर किरनो की बाहे,नीचे गहरा समंदर
खोजना है उसे,एक नया आकाश
तलाश करना है अपना अस्तित्व
बनाना है ख़ुद का व्यक्तित्व..

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Wednesday, June 18, 2008

काई

रिश्तों के ऊपर
जब काई आ जाती है
रिश्ते सड़ जाते है
लोग फिर झूठ बोल कर
खुद को बचाते है
और भ्रम मे रहते है
की उन्होने रिश्तों को
बचा लिया
रिश्ता तो कब का
दम तोड़ चुका होता है
काई के नीचे
झूठ और अविश्वाश कि गंध से
काई के नीचे

अच्छे से अच्छा भी
हो जाता है बुरा

ये कविता अपने ओरिजनल फॉर्म मे इंग्लिश मे है और काफी लंबी हैं ।

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Tuesday, June 17, 2008

रेत से गीले पल

ज़िंदगी तो मिल जाती हैं सबको चाही या अनचाही
बीच में मिल जाते हैं ना जाने कितने अनजान राही

बिताते हैं कुछ पल वो ज़िंदगी के साथ साथ
कुछ मीठे- कड़वे पलो की सोगाते दे जाते हैं

यह ज़िंदगी का खेल बस वक़्त के साथ यूँ ही चलता जाता है
बचपन जवानी में ,जवानी को बुढ़ापे में तब्दील कर जाता है

सब अपने सुख दुख समेटे इस ज़िंदगी को बस जीते जाते हैं
बह जाते हैं यह रेत से गीले पल फिर कब हाथ आते हैं !!
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Saturday, June 14, 2008

अगर राहे नई नहीं बनेगी

हम सब चले
एक बंधी बंधाई लीक पर
इसलिये हम सब चाहते हैं
कि सब चले बंधी बंधी लीक पर
जो नहीं चलते हैं उनको देख कर
लगता तो हमे यही हैं
क्यो हम भी नहीं चले
पर फिर भी
टीका टिपण्णी हम जरुर करते हैं
लीक पर ना चलने वालो पर
ताकि अपने मन के शोभ को
कुछ कम कर सके
अपनी कमियों पर परदा डाल सके
पर मन मे हमे पता हैं
वह ग़लत नहीं हैं
जो राहे नई बनाते हैं
क्योकि अगर राहे
नई नहीं बनेगी
तो सारी दुनिया को
चलते ही रहना होगा
उन सडको पर जो टूट चुकी है
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Friday, June 13, 2008

हरसिंगार

हरसिंगार

लरजते अमलतास ने
खिलते हरसिंगार से
ना जाने क्या कह दिया
बिखर गया है ज़मीन पर
उसका एक-एक फूल
जैसे किसी गोरी का
मुखड़ा सफ़ेद हो के
गुलाबी-सा हो गया !!

Thursday, June 12, 2008

असली रूप

कौन सा हैं असली रूप
दर्पण के सामने
खडे हो कर
देखा हैं कई बार ।
स्नानगृह का रूप ,
शयनकक्ष का रूप.
सभामंच का रूप ,
कार्यालय का रूप ,
सड़क का रूप ,
अस्पताल का रूप ,
मन्दिर का रूप ,
एक ही चेहरा
दिखता हैं दर्पण में
पर रूप
हर बार बदल जाता हैं ।
भीतर का निराकार
बाहर का साकार
चेहरे के हर कोण में
परिवर्तन बनकर
दिखता हैं दर्पण में

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Wednesday, June 11, 2008

जिनकी चर्चा सरेआम हो गयी

नारी है एक प्यार की मूरत कविता पढ़ कर दीपक भारतदीप के मन में यह शब्द आये और लिख डाले। उन्हें यह कविता बहुत भावपूर्ण लगी और वह कहते हैं कि इसे पढ़कर एक कवि मन में इस तरह के विचार आना स्वाभाविक है। आज हम उनकी वही कविता यहाँ मेहमान कवि के रूप में दे रहे हैं ...


14 बरस की वह लड़की
रात को बिस्तर पर सोई थी
सुबह एक लाश हो गयी
सवाल उठते हैं ढेर सारे
मिलता नहीं कोई जवाब
पिता पर लगा है आरोप
पर मां क्यों खामोश हो गयी

एक पुरुष के अत्याचार की शिकार बच्ची
हैरान है परेशान है
एक बच्ची आती है उसके जिस्म में
अपने जीवन की सांस ढूंढती हुई
पर नानी इंतजार में थी शायद
भले ही अनैतिक होगा
लड़का हुआ तो अपना ही होगा
पर कोख से बाहर निकलते ही
नानी ने मचाया बवाल
बच्ची का गला घोंट दिया
जन्म लेते ही जननी ने
जेल ही उसकी आरामगाह हो गयी

हजारों खबरे हैं ऐसीं हैं
तब सोचता हूं क्यों लाचार हो जाती है औरत
क्यों औरत को ही बेबस बनाती औरत
आदमी के अनाचारों के हजारों किस्से हैं
पर औरत खुद भी क्यों बदनाम हो गयी

मां की ममता
बहिन का स्नेह
पत्नी का प्रेम
आदमी की होता है मन की पूंजी
कितने बदनसीब होते हैं
जो इससे वंचित हो जाते हैं
और फिर कहानी में जगह पाते हैं
जिनकी चर्चा सरेआम हो गयी

दीपक भारतदीप http://deepakraj.wordpress.com/

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Tuesday, June 10, 2008

साहिल

साहिल पर खड़े हुए
सरकती रेत क़दमों के नीचे से
जैसे वक्त सरकता जाए मुट्ठी से
दूर क्षितिज पर एक सितारा
आसमान पर टंके ये लम्हे ,पलछिन
यही सच है शेष है भ्रम --
गुजरता वक्त जिन्दगी का सच है
प्रतिपल बढ़ते कदम ,
एक अनजान डगर पर
जिसके आगे पूर्णविराम
चिरनिद्रा चिर्विश्राम !!!
--नीलिमा गर्ग

खो रहे है रिश्ते

एक समय था
जब माँ के घर से जो आता था
मौसी मामा नानी नाना
कहलाता था
पूरा पडोस मायेका होता था
पिता के दोस्त चाचा ताऊ होते थे
जिनके कंधे पर चढ़ता था बचपन
आस पड़ोस मे लडकिया नहीं
बुआ , मौसी , मामी , चाची रहती थी
जिनकी गोदीयों मे सुरक्षित
रहता था बचपन
हमे तो मिले है संस्कार बहुत
क्या हम दे रहे है अगली पीढ़ी को
एक डर एक सहमा हुआ बचपन
क्यो खो रहे है रिश्ते
ज़िन्दगी की भीढ़ मे

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Monday, June 9, 2008

नारी है एक प्यार की मूरत

नारी है एक प्यार की मूरत
उढ़ेलती जाती प्रेम रस को…
चढ़ा देती है अपने प्यार के पुष्प वो
देवता और इन्सान के चरणो में
छू लेती है जब वो कलम को
बन के सुंदर गीत प्रेम के,
विरह के निकल आते हैं
कविता में ढल के उस के बोल
बस प्रेम मय हो जाते हैं..

चुनती है वह घर का आँगन
जहाँ सिर्फ़ प्रेम के बाग लहराते हैं
उड़ने के लिए चुनती है सिर्फ़ वही आकाश
जहाँ सिर्फ़ उसके सपने सज जाते हैं..

गीत लिखती है वो वही सिर्फ़
जिसके बोल उसके पिया मन भाते हैं
प्रेम में स्त्री के दोनो जहान सिमट आते हैं
प्रेम में डूब कर कब रहता है उस को भान समय का
उसके शब्दकोष में बस प्यार के रहस्य ही समाते हैं!!

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समय

समय ठहर जाए ,
ऐसा कब होता है
हम भी चलते जाए ,
ऐसा कब होता हैं ।
उम्र मायूसी के साथ
बीत जाती हैं
कोई हम तक पहुँच जाए ,
ऐसा कब होता हैं ।
सुबह , शाम और रात आती हैं ,
चली जाती हैं
जिन्दगी मुड़ कर पीछे देखे ,
ऐसा कब होता हैं ।
कुछ हुआ नहीं था ,
केवल कहानी बुनी थी हमने
कहानी हकीकत बन जाए ,
ऐसा कब होता हैं ।

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Saturday, June 7, 2008

प्रीत ---- वि- प्रीत

भाग १

सालो बाद
घर से बाहर रहा
पति लौट आया
घर मे तांता लग गया
बधाईयों का , मिठाईयों का
आशीष वचनों का , प्रवचनों का
गैस पर चाय बनाती
पत्नी सोच रही हैं
क्या वो सच मे भाग्यवान हैं ?
कि इतना घूम कर पति
वापस तो घर ही आया .
पर पत्नी खुश हैं कि
अब कम से कम घर से बाहर
तो मै जा पाउंगी
समाज मै मुहँ तो दिखा पाउंगी
कुलक्षिणी के नाम से तो नहीं
अब जानी जाऊँगी

भाग २

सालो बाद
घर से बाहर रही
पत्नी लौट आयी
घर मे एक सन्नाटा हेँ
व्याप्त हैं मौन
जैसे कोई मर गया हो और
मातम उसका हो रहा हैं
दो चार आवाजे जो गूंज रही हैं
वह पूछ रही हैं
कुलक्षिणी क्यो वापस आयी ??
जहाँ थी वहीं क्यो नहीं बिला गयी
सिगरेट के कश लेता
सोच रहा हैं पति
समाज मे क्या मुहँ
अब मै दिखाउँगा
कैसे घर से बाहर
अब मै जाऊँगा
और घर मे भी
इसके साथ
अब कैसे मै रह पाउँगा ??


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अधूरी जिन्दगी

राम बिना सीता
कृष्ण बिना रुक्मिणी
गौतम बिना अहल्या
दुष्यंत बिना शकुंतला
भोगती रही अपनी क्रूर नियती
जी ली उन्होने अधूरी जिन्दगी
तब तुम्हारे बिना मै
क्या जी नहीं सकती
अपनी जिन्दगी ?


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Friday, June 6, 2008

हस्ताक्षर

मटमैले झुरिँयोदार
कागजी - चेहरे पर
समय ने लिखा
" विगत से मत जोडो , आगत की चिंता छोडो
वर्तमान मै जियो
इस क्षण को भोगो "
पढ़ा , समझा और
मैने हस्ताक्षर कर दिये ।


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चिंतन

चेतना के विराट सागर मे
लहरे आती हैं , जाती हैं
इन्हीं मे कहीं छिपा हैं
सत्य आत्म - चिंतन
सत्य विराट - चिंतन ।

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पत्थर का भगवान

खून से लथपथ

बलात्कार से ग्रस्त

एक अबोध बालिका को

गोद में लिए

विक्षिप्त सी माँ

मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठी

शून्य में ताक रही है

बेटी की दशा पर

हृदय छलनी है

आँखे बरस रही हैं

टप-टप टप

और ऊपर मन्दिर में

बज रहे हैं

ढोल, बाजे मृदंग

आरती के गीत

और जय- कार के स्वर

कानों में पड़ते है जैसे

पिघला हुआ गर्म शीषा

और अचानक फूट पड़ती है वो…..

तुम कैसे भगवान हो??????

काँप उठता है पत्थर रूप ईश्वर

दे नहीं पाता कोई भी उत्तर

चुपचाप

मौन हो बस

पत्थर बन जाता है

उत्तर दे भी क्या

कैसे धीर बँधाए

आज भक्त की रक्षा का वचन

तार-तार हो गया

उसके अपने आँगन में

अत्याचार हो गया

पत्थर की आँखों से

अश्रुधार बह निकली

और उसने बस इतना ही कहा

आज जो देखा…..

उससे मैं भी पत्थर हो गया

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Thursday, June 5, 2008

तुम्हारे अस्तित्व की जननी हूँ मै

पार्वती भी मै
दुर्गा भी मै
सीता भी मै
मंदोदरी भी मै
रुकमनी भी मै
मीरा भी मै
राधा भी मै
गंगा भी मै
सरस्वती भी मै
लक्ष्मी भी मै
माँ भी मै
पत्नी भी मै
बहिन भी मै
बेटी भी मै
घर मे भी मै
मंदिर मे भी मै
बाजार मे भी मै
"तीन तत्वों " मे भी मै
पुजती भी मै
बिकती भी मै
अब और क्या
परिचय दू
अपने अस्तित्व का
क्या करुगी तुम से
करके बराबरी मै
जब तुम्हारे
अस्तित्व की
जननी हूँ मै
तुम जब मेरे बराबर
हो जाना तब ही
मुझ तक आना



पार्वती माता का प्रतीक
दुर्गा शक्ति का प्रतीक
सीता , मंदोदरी, रुकमनी भार्या का प्रतीक
मीरा , राधा प्रेम का प्रतीक
गंगा , पवित्रता का प्रतीक
सरस्वती , ज्ञान का प्रतीक
लक्ष्मी , धन का प्रतीक
बाजार , वासना का प्रतीक
तीन तत्व , अग्नि , धरती , वायु

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Wednesday, June 4, 2008

ऐसी ही हूँ मैं

ऐसी ही हूँ मैं
सब का ख़याल रखती हूँ अपने साथ
कभी बेटी,कभी बहन,कभी मा,कभी अर्धांगिनी बनकर
कुछ भी नही चाहा बदले में,
बस अपना स्वतंत्र अस्तित्व खोना नही मुझे
मुश्किलों में डट कर खड़ा होना
छोटी छोटी खुशियों को सहेजना सवारना
वक़्त के साथ ढलना ,दुनिया के साथ चलना
आता है मुझे,सिखती रहती हूँ नये कदम
मगर मुझे इस बात से इनकार नही
जितनी मजबूत मन हूँ,उतनी ही कोमल दिल भी
शब्दों के ज़हरीले तीर हताहत कर देते है
वही प्यार के दो बूँदो की बरसात
सब क्लेश बहा देते है
दिल को सवेदनाओ में भीगो देते
ऐसी ही हूँ मैं
लम्हे मुझे खुद से मिला देते है
mehek
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आइना

आइना साफ करने से
चेहरे कि विकृति
अगर आकृति बन जाती
तो आज सबके चेहरे
सुंदर और सलोने ही होते
और
सुंदर चेहरों के पीछे
छुपे विकृत दिमाग
काश कोई आइना दिखा पाता
इस विकृत होते समाज मे
जीना ही कुछ आसान हो जाता
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Tuesday, June 3, 2008

क्या कभी ???

क्या कभी शीशे के उस पार झाँक कर देखा है तुमने
क्या कभी ख़ुद के अंदर जलते हुए ख़्वाबों को देखा है तुमने

क्या कभी हँसते हुए की आँखो में आँसू देखे है तुमने
क्या कभी पानी से जलते हुए शूलो को देखा है तुमने

क्या कभी बादलो में छुपे हुए अरमानो को देखा है तुमने
क्या कभी सोते बच्चे की बंद मुट्ठी को देखा है तुमने

क्या कभी कानो में तुमको सदा सुनाई दी है किसी दिल की
क्या कभी महफिलों में तन्हा पड़े हुए फूलो को देखा है तुमने

क्या कभी हाँ ,अब बोलो क्या कभी इस दिल की आँखो से मुझको देखा है तुमने???

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Monday, June 2, 2008

अक्स

सुबह के उजास में
सांझ के काजल में
देखा है बस तुम्हे
ख्यालों के साए में
भोर की गुनगुनी धूप में
संध्या की कजरारी छावं में
जिन्दगी के हर मोड़ पर
बस तुम्हारी मुस्कराहट है
ख्वाबों की तस्वीरों में
हर पल तुम्हारा अक्स है
गुजरे वक्त की सिलवट में
बस तुम्हारी आहटें हैं

---नीलिमा गर्ग