सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Saturday, May 31, 2008

काश!


मैं बन जाऊँ एक सुगन्ध
जो सबको महका दे
सारी दुर्गन्ध उड़ा दे
या

बन जाऊँ एक गीत
जिसे सब गुनगुनाएँ
हर दिल को भा जाए

अथवा
बन जाऊँ नीर
सबकी प्यास बुझाऊँ
सबको जीवन दे आऊँ

या फिर..
बन जाऊँ एक आशा
दूर कर दूँ निराशा
हर दिल की उम्मीद

अथवा
बन जाऊँ एक बयार
जो सबको ताज़गी दे
जीवन की उमंग दे
नव जीवन संबल बने
तनाव ग्रस्त
..
प्राणी की पीड़ा पर
मैं स्नेह लेप बन जाऊँ

जग भर की सारी
चिन्ताएँ मिटा दूँ
जी चाहता है आज
निस्सीम हो जाऊँ
एक छाया बन
नील गगन में छा जाऊँ

सारी सृष्टि पर अपनीममता लुटाऊँ

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

6 comments:

बालकिशन said...

प्यारी और सुंदर कविता.
आभार.

Anonymous said...

shobhaji, aapki kavita kash bhut hi aachi hai.ase hi likhate rahiye.
Rashmi saurana

mehek said...

kash ye sab sach ho jaye,ye sare khubsurat sapne haqiqat banjaye,aap ki kavita ki mehek dil mein bas gayi,bahut bahut sundar,bahut badhai

Anonymous said...

kaash mae aap ka aakash haen
anant

रंजू भाटिया said...

बहुत सुंदर काश .... एक अच्छी सीधी सी कविता

Poonam Agrawal said...

kash -main ban jaun sugandh,geet,neer,bayaar, snehlep etc...
kash kyun? Aap ek sugandh ,ek geet sab kuch hain...Bas ek pehchanne vala chahiye...
is sunder bhavna ke liye badhai...