क्यों मुक्त हो जाने से तुम डरते हो
पर बन्धन के नाम से बिदकते हो,
बान्धूँ या छोड़ूँ तुम्हें, ओ मीत मेरे
क्यों इस निर्णय से सिहरते हो ?
तुमने रच डाला है शब्दों का जाल
अब उसमें ही तुम आ फंसते हो,
जब फंस जाते हो तो तड़पते हो
कसूँ या छोड़ूँ तुम्हें तुम्हारे ही हाल ?
चाहत मेरी कोई ऐसी तो न थी कि
करना पड़ता तुम्हें सबकुछ ही वार,
कुछ शब्दों को ही था माँगा मैंने
फिर चलती क्यों यूँ दिल पर धार ?
ना चाहा था कुछ लेना देना
तेरे जग में ना माँगा मैंने स्थान,
फिर क्यों लगता कि चोर हूँ मैं
ले भागी तेरे हृदय को अपना मान ?
घुघूती बासूती
2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
पर बन्धन के नाम से बिदकते हो,
बान्धूँ या छोड़ूँ तुम्हें, ओ मीत मेरे
क्यों इस निर्णय से सिहरते हो ?
तुमने रच डाला है शब्दों का जाल
अब उसमें ही तुम आ फंसते हो,
जब फंस जाते हो तो तड़पते हो
कसूँ या छोड़ूँ तुम्हें तुम्हारे ही हाल ?
चाहत मेरी कोई ऐसी तो न थी कि
करना पड़ता तुम्हें सबकुछ ही वार,
कुछ शब्दों को ही था माँगा मैंने
फिर चलती क्यों यूँ दिल पर धार ?
ना चाहा था कुछ लेना देना
तेरे जग में ना माँगा मैंने स्थान,
फिर क्यों लगता कि चोर हूँ मैं
ले भागी तेरे हृदय को अपना मान ?
घुघूती बासूती
2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
1 comment:
चाहत मेरी कोई ऐसी तो न थी कि
करना पड़ता तुम्हें सबकुछ ही वार,
कुछ शब्दों को ही था माँगा मैंने
फिर चलती क्यों यूँ दिल पर धार ?
बहुत ही अच्छी लगी थी आपकी यह कविता मुझे इस लिए वहाँ से यहाँ ले आई
भाव बहुत अच्छे हैं इसके
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