एक सेट मोल्ड { सांचे } मे नारी
यानी मोम की गुडिया
युगों से दब दब कर
दूसरो के मनचाहे आकार मे जो
ढलती रही , पसंद आती रही
एक सिरे पर ही नहीं
दोनों सिरों पर जलती रही
आज उसी मोल्ड { सांचे } को तोड़ कर
जो मोम बह रहा हैं
लावा सबको लग रहा हैं
क्योकी जलने के साथ साथ
वह लावा जला भी रहा है
जहाँ जहाँ से बह रहा है
तोड़ कर अपनी सीमाये
कौन हैं जिमेदार है इस
लावे के बहाने का
कौन करेगा ठंडा इस मोम को
जो लावा बन चुका है
क्या नारी ?
बनकर दुबारा सहनशीलता की प्रतिमा
क्या पुरूष ?
बनकर सहनशील , उदारशील
क्या समाज ?
बदल कर मान्यताये अपनी
ज्वलंत प्रश्न हैं अनुतरित
यानी मोम की गुडिया
युगों से दब दब कर
दूसरो के मनचाहे आकार मे जो
ढलती रही , पसंद आती रही
एक सिरे पर ही नहीं
दोनों सिरों पर जलती रही
आज उसी मोल्ड { सांचे } को तोड़ कर
जो मोम बह रहा हैं
लावा सबको लग रहा हैं
क्योकी जलने के साथ साथ
वह लावा जला भी रहा है
जहाँ जहाँ से बह रहा है
तोड़ कर अपनी सीमाये
कौन हैं जिमेदार है इस
लावे के बहाने का
कौन करेगा ठंडा इस मोम को
जो लावा बन चुका है
क्या नारी ?
बनकर दुबारा सहनशीलता की प्रतिमा
क्या पुरूष ?
बनकर सहनशील , उदारशील
क्या समाज ?
बदल कर मान्यताये अपनी
ज्वलंत प्रश्न हैं अनुतरित
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5 comments:
कौन करेगा ठंडा इस मोम को
जो लावा बन चुका है
यही तो अनुत्तरित प्रश्न है हमेशा से.......
बहता लावा लेता खुद आकार है
एक नयी दुनिया का सच साकार है
***राजीव रंजन प्रसाद
सांचे को तोड़कर जो मोम वह रहा है उस का कोई आकार नहीं है. क्या यही चाहती है आज की नारी? बहते मोम का कोई नाम नहीं होता. नारी को इस बहते मोम को एक आकार देना है, एक नाम देना है, पुरूष से तुलना नहीं करनी. पुरूष से आगे जाना है. नारी को अपनी शक्ति पहचाननी है.
नारी अब अपनी पहचान ख़ुद बना रही है ..सहनशीलता उसका स्वभाव है पर अपनी मंजिल को अब कैसे पाना है यह आज की नारी अच्छी तरह से समझने लगी है ..आपकी कविता ख़ुद में ही एक जवाब है..रचना जी .मुझे बहुत पसन्द आई यह कविता
bahut hi achhi lagi ye baat,ek sach ko tod mom bah raha hai,vah phir apna aakar khud lega,uske man mein hai vaisa,bahut sundar.
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