सबल,सजल,सरल,सढल,सुगंधा,स्वस्तिका
बेडियाँ को तोड़ कदमो ने ढूंढी है नयी दिशा
ममतामयी,कोमल हृदय,कनखर भी मैं नारी
वक़्त पड़े जब रक्षा करने बनू तलवार दो धारी
बहेती रहूंगी हरियाली बिछाती पाने अपना लक्ष
अर्जित करूँ इतनी आज़ादी कह सकु अपना पक्ष
हर जीवन फलता फूलता जिस पे ,मैं हूँ वो शाख
सुलगती चिंगारी हूँ चाहूँ बुरी रस्मे हो जल के राख
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3 comments:
रचना जी
बहुत सशक्त शब्दावली और सशक्त भाव पूर्ण रचना है। नारी का यही आत्मविश्वास उसकी प्रबल शक्ति बनता है। इसे जगाए रखें। सस्नेह
mehak
a very nicely written poem and very apt and forceful , i wish we all could express so well in so few words
बहुत ही सरल शब्दों में लिखी दी है आपने यह सुंदर कविता महक जी ..यही विश्वास ही हमे बहुत आगे तक ले जायेगा मुझे बहुत पसन्द आई आपकी यह कविता !!
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