सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Tuesday, April 29, 2008

बन्धन


तुम पुरुष हो इसलिए तोड़ सके सारे बंधनों को
मैं चाह के इस से मुक्त ना हो पाई
रोज़ नापती हूँ अपनी सूनी आँखो से आकाश को
चाह के भी कभी मैं मुक्त गगन में उड़ नही पाई

ना जाने कितने सपने देखे,कितने ही रिश्ते निभाए
हक़ीकत की धरती पर बिखर गये वह सब
मैं चाह के भी उन रिश्तो की जकड़न तोड़ नही पाई

बहुत मुश्किल है अपने इन बंधनों से मुक्त होना
तुम करोगे तो यह साहस कहलायेगा .....
मैं करूँगी तो नारी शब्द अपमानित हो जाएगा ...



© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

11 comments:

आलोक साहिल said...

रंजू जी,जब से मैंने आपको पढ़ना शुरू किया तब से आपके कई रूप देखे.पर आज मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आपका ये स्वरुप सब से सशक्त है,बेहतरीन,इतने कम अल्फजों में वो सारी वेदना उभर आई जिसे सहज ही "नारी सुलभ" कहते हैं, बधाई
आलोक सिंह "साहिल"

रश्मि प्रभा... said...

बहुत मुश्किल है अपने इन बंधनों से मुक्त होना
तुम करोगे तो यह साहस कहलायेगा .....
मैं करूँगी तो नारी शब्द अपमानित हो जाएगा ...
सच्चाई को पूरी सच्चाई के साथ उतार दिया,
जो कहा सच कहा.......
किसी वकील के दलील की ज़रूरत नहीं......

आलोक said...

क्यों बहन, सर्वाधिकार २००८-०९ क्यों, २०१० में सर्वाधिकार मुक्त हो रहा है क्या? :)
वैसे पीछे की छवि पढ़ने में आड़े आती है, इसे परे करें।

Anonymous said...

"नारी शब्द अपमानित हो जाएगा "
kyaa bhrantee haen !!! kavitaa sachi haen per mae sehmat nahin hun is vaaky sae

शोभा said...

रंजना जी
मुझे कविता ने बेहद प्रभावित किया। वैसे आज के समय में यह विचार कुछ अजीब सा लगता है। नर हो या नारी अपनी मुक्ति के लिए प्रयास स्वयं ही करता है। किसी के कहने सुनने की परवाह करना रूढ़िवादिता और कमजोरी है।

Anupama said...

Excellent

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav said...

ह्म्म्म्म
बात तो सही कह रही हो
"नारी शब्द अपमानित हो जायेगा"
पर कम से कम नारी अपमानित तो ना होगी
कुछ दिनों में अभिमानित - स्वाभिमानित हो जायेगा

तो बस उडो...
क्यूँकि किसी की जागीर नहीं हो
सहो क्यूँ !
अगर सही हो..

सुनीता शानू said...

मै दुविधा में हूँ कि क्या कहूँ...कविता सुन्दर है मगर मै इससे सहमत नही हूँ...मेरा उड़ना मुझमे स्वाभिमान पैदा करता है...और बेवजह की चारदीवारी मुझे अपने बंधक होने का अहसास दिलाती है...इसीलिये रंजना जी मै इससे सहमत नही हूँ...

kmuskan said...

ना जाने कितने सपने देखे,कितने ही रिश्ते निभाए
हक़ीकत की धरती पर बिखर गये वह सब
मैं चाह के भी उन रिश्तो की जकड़न तोड़ नही पाई

bahut khoob

Unknown said...

वह कौन से बन्धन हैं जिनसे आज की नारी मुक्त होना चाहती है? बन्धन तभी बन्धन लगता है जब हम उसे बन्धन मानते हैं. यदि माने नारी उसे एक व्यवस्था और उस व्यवस्था के अन्दर स्वयं बनें स्वतंत्र और प्रभावशाली. पुरूष घर का स्वामी नहीं है. वह नारी की तरह घर का एक सदस्य है. क्यों जाए नारी घर के बाहर? घर उस का है. अपने घर के अन्दर नारी को और ताकतवर बनना है.

Unknown said...

बहुत मुश्किल है अपने इन बंधनों से मुक्त होना
तुम करोगे तो यह साहस कहलायेगा .....
मैं करूँगी तो नारी शब्द अपमानित हो जाएगा
wah ranju ji,bahut hi sahi satik kaha,bahut badhai.