फिर उठी है टीस कोई
चिर व्यथित मेरे हृदय में
उठ रहे हैं प्रश्न कितने
शून्य पर- नीले- निलय में
फिर लुटा विश्वास है
चोट फिर दिल पर लगी है
फिर चुभी एक फाँस है
फिर शकुन अपमानिता है
दम्भी नर के सामने
द्रोपदी फिर से खड़ी है
कायरों के सामने
राधा का इक श्याम से
जल रहे हैं नेत्र मेरे
नारी के अपमान से
नारी तू तो शक्ति है
भय हारिणी और पालिनी
मातृ रूपा स्वयं है तू
स्नेह छाँह प्रदायिनी
प्रेम के मोह- जाल में
माँगती उससे सहारा
जो स्वयं भ्रम- जाल में
दुष्यन्त की हर चाल को
द्रोपदी पहचान ले
नर दम्भ निर्मित जाल को
फिर जगा विश्वास को
आंख का धुँधका मिटा ले
जीत ले संसार को
कायरों की भीड़ में
अब उड़ा दे मोह पंछी
जो छिपा है नीड़ में
अपने अतुल विश्वास से
स्वयं-सिद्धा बन बदल दे
विश्व को विश्वास से
5 comments:
कर अचंभित विश्व को
अपने अतुल विश्वास से
स्वयं-सिद्धा बन बदल दे
विश्व को विश्वास से .............
बहुत शक्ति संचारित करनेवाली रचना.........
कायरों की भीड़ में
अब उड़ा दे मोह पंछी
जो छिपा है नीड़ में कर अचंभित विश्व को
अपने अतुल विश्वास से
स्वयं-सिद्धा बन बदल दे
सच में जोश भर देने वाली कविता है यह शोभा जी बहुत ही सार्थक लिखा है आपने
waah..bahut sundar..badhaayii
आत्मशक्ति को जगा और
फिर जगा विश्वास को
आंख का धुँधका मिटा ले
जीत ले संसार को
कर अचंभित विश्व को
अपने अतुल विश्वास से
स्वयं-सिद्धा बन बदल दे
Shobhaji you have always been writing any poem or any article with full of energy in it. Naari ko swayam siddha banane ke liye kafi takat hai aapki is kavita mein. Dhanyavaad........
खोज मत अब तू सहारा
कायरों की भीड़ में
अब उड़ा दे मोह पंछी
जो छिपा है नीड़ में
कर अचंभित विश्व को
अपने अतुल विश्वास से
स्वयं-सिद्धा बन बदल दे
विश्व को विश्वास से
wah aatmavishwas jagati hui man ke andar,badi hi khubsurat kavita,bahut badhai.
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