गर्भ कोष की गहराई में
एक बीज आकार ले रहा
हौले हौले जोड़ रहा है
सवेदना की पंखुड़ियों को
खूबसूरत कली पर अपनी
किसी की नज़र न पड़े
इसलिए अंधेरे के जाल बुनता है
पता नही कैसे खबर मिलती है उनको,
शायद महक पहुँचती होगी
झुंड में आजाते है मिलकर
नोचने ,खरोचने को
असंख्य वेदना,दबी चीख
और लहू की नदी बहती है
खून की होली खेलने का आनंद
हर चेहरे पर साफ लिखा
गर्भ खामोश,एक सिसकी भीं नही भर सकता,
एक ही अभिलाषा थी मन में
उसका फूल खिलता,पूरे जहाँ को चमन बनाता
वो लहू का लाल रंग ही
अनगिनत खुशिया लाता
मगर उसने सोच लिया है अब
और नही ज़ुल्म सहेना
बंद कर लिए है अपने दरवाज़े
तब तक नही खुलेंगे
जब तक अपनी बेजान पंखुड़ियों को
जीवन दान देकर सशक्त चमन का
निर्माण न कर ले....
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
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7 comments:
बंद कर लिए है अपने दरवाज़े
तब तक नही खुलेंगे
जब तक अपनी बेजान पंखुड़ियों को
जीवन दान देकर सशक्त चमन का
निर्माण न कर ले....
बहुत खूब,यही दृढ़ता नई शक्ति का आह्वान करेगी..........
बंद कर लिए है अपने दरवाज़े
तब तक नही खुलेंगे
जब तक अपनी बेजान पंखुड़ियों को
जीवन दान देकर सशक्त चमन का
निर्माण न कर ले....
excellent yahi hona chaheyae
बहुत ही जबर्दस्त महक जी ..यही होना जरुरी है
वाह महक आपके इस अंदाज का मन कायल हो गया ....ओर एक स्त्री रोग विशेषग होने के नाते आपकी सोच मे वजन ओर बढ़ जाता है......आपकी कविता कही गहरे तक अपना दर्द छोड़ रही है......
अरे वाह कया खुब कहा हे, एक उम्दा कविता, एक नया पेगाम.
महक जी
बहुत ही सुन्दर और मर्म स्पर्शी कविता लिखी है आपने। इसमें आज के समाज के घृणित रूप को साकार कर दिया है। समाज को इस ओर जागृत करना ही होगा।
अंतिम पंक्तियों का आशावाद मन को आगे बढ़ने की शक्ति देता है. दिल की गहराइयों में उतर जाने वाली कविता.
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