सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Saturday, April 19, 2008

अभिलाषा

गर्भ कोष की गहराई में
एक बीज आकार ले रहा
हौले हौले जोड़ रहा है
सवेदना की पंखुड़ियों को
खूबसूरत कली पर अपनी
किसी की नज़र न पड़े
इसलिए अंधेरे के जाल बुनता है
पता नही कैसे खबर मिलती है उनको,
शायद महक पहुँचती होगी
झुंड में आजाते है मिलकर
नोचने ,खरोचने को
असंख्य वेदना,दबी चीख
और लहू की नदी बहती है
खून की होली खेलने का आनंद
हर चेहरे पर साफ लिखा
गर्भ खामोश,एक सिसकी भीं नही भर सकता,
एक ही अभिलाषा थी मन में
उसका फूल खिलता,पूरे जहाँ को चमन बनाता
वो लहू का लाल रंग ही
अनगिनत खुशिया लाता
मगर उसने सोच लिया है अब
और नही ज़ुल्म सहेना
बंद कर लिए है अपने दरवाज़े
तब तक नही खुलेंगे
जब तक अपनी बेजान पंखुड़ियों को
जीवन दान देकर सशक्त चमन का
निर्माण न कर ले....

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

7 comments:

रश्मि प्रभा... said...

बंद कर लिए है अपने दरवाज़े
तब तक नही खुलेंगे
जब तक अपनी बेजान पंखुड़ियों को
जीवन दान देकर सशक्त चमन का
निर्माण न कर ले....
बहुत खूब,यही दृढ़ता नई शक्ति का आह्वान करेगी..........

Anonymous said...

बंद कर लिए है अपने दरवाज़े
तब तक नही खुलेंगे
जब तक अपनी बेजान पंखुड़ियों को
जीवन दान देकर सशक्त चमन का
निर्माण न कर ले....
excellent yahi hona chaheyae

रंजू भाटिया said...

बहुत ही जबर्दस्त महक जी ..यही होना जरुरी है

डॉ .अनुराग said...

वाह महक आपके इस अंदाज का मन कायल हो गया ....ओर एक स्त्री रोग विशेषग होने के नाते आपकी सोच मे वजन ओर बढ़ जाता है......आपकी कविता कही गहरे तक अपना दर्द छोड़ रही है......

राज भाटिय़ा said...

अरे वाह कया खुब कहा हे, एक उम्दा कविता, एक नया पेगाम.

शोभा said...

महक जी
बहुत ही सुन्दर और मर्म स्पर्शी कविता लिखी है आपने। इसमें आज के समाज के घृणित रूप को साकार कर दिया है। समाज को इस ओर जागृत करना ही होगा।

मीनाक्षी said...

अंतिम पंक्तियों का आशावाद मन को आगे बढ़ने की शक्ति देता है. दिल की गहराइयों में उतर जाने वाली कविता.