चरणों से दूर मत करो
जो अधिकार जन्म से है मिला
उस अधिकार को मत हरो
ऐसा क्या अनर्थ हुआ मुझसे
कि आपने मूंह फेर लिया
नौ महीने गर्भ में स्थान दिया
और दुनिया में लाकर त्याग दिया
माना कि गलती थी मेरी
आपकी सुध मैंने नही लिया
पर ममता नही होता क्षण-भंगुर
कभी त्याग दिया कभी समेट लिया
माना मै हूँ स्वार्थ का मारा
माँ की ममता न पहचान पाया
पर आप ने भी अधिकार न जताया
मुझे पराया कर तज दिया
अब मेरी बस इतनी इच्छा है
आप की गोद में वापस आऊँ
अपने संतान से आहत हुआ जब
लगा आपकी गोद में ही सिमट जाऊं
© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!
7 comments:
bhavbhari sundar kavita .shubhkamnaye .
आज याद आया है माँ का दर्द जब खुद पर गुजरी…………शायद हर इंसान की यही कहानी है सच कह दिया।
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (9/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
माँ.....जरा इस शब्द पर गौर करें.....तो अपने आप में ये एक दुनिया है.
भाव अच्छे हैं ..जब खुद पर बीतती है तब ही एहसास होता है ...
सुध , ममता , अपने संतान ....इन शब्दों के साथ स्त्रीलिंग शब्दों का प्रयोग करना ज्यादा उचित होता ...
जैसे -- आपकी सुध ,ममता नहीं होती , अपनी संतान ...
माँ से ज़्यादा नाराज़ रहना मुश्किल है ... मा बस मा है जल्दी ही मान जायगी ... कब तक रूठी रहेगी ...
दिल के जज़्बात लिखे हैं आपने ...
माँ तो माँ ही है जो अपने बच्चों से जादा देर रूठी नहीं रह सकती है|
माँ तो बस माँ है
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