पत्थरों को तोडती वो अधमरी सी बुढ़िया
बन गयी है वो आज बेजान सी गुडिया
कभी वो भी रहती थी महलों के अन्दर
कभी थी वो अपने मुकद्दर का सिकंदर
असबाबों से था भरा उसका भी महल
नौकरों और चाकरों का भी था चहल पहल
बड़े घर के रानी का राजा था दिलदार
नहीं थी कमी कुछ भी भरा था वो घरबार
किलकारियां खूब थी उस सदन में
अतिथि का स्वागत था भव्य भवन में
पूरे शहर में था ढिंढोरा इनका
गरीब जो आये न जाए खाली हाथ
शहर के धनिकों में था इनका स्वागत
शहर बड़े लोग थे इनसे अवगत
पर चाहो हमेशा जो होता नहीं वो
कठीनाइयों से भरे दिन आ गए जो
व्यवसाय की हानि सम्भला न उनसे
बेटे-बहू ने रखा न जतन से
बड़े घर के राजा न सहा पाए वो सब दिन
वरन कर लिया मृत्यु को पल गया छिन
बुढ़िया बेचारी के दिन बद से बदतर
गर्भधारिणी माँ को किया घर से बेघर
करती वो क्या कोई चारा नहीं था
इस उम्र में कोई सहारा भी नहीं था
मेहनत मजदूरी ही थी उसकी किस्मत
© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!
6 comments:
vaah...bahut badhiya kavita....
बेहद मार्मिक चित्रण किया है हालात का…………वक्त किसे कब और कैसे कहाँ पहुँचा दे कह नही सकते।
बुढ़िया बेचारी के दिन बद से बदतर गर्भधारिणी माँ को किया घर से बेघर ..
बहुत मार्मिक ...और यह आज का कटु सत्य भी ..
sab din hot na ek samaan
kathya bahit maarmik hai.
kavita ke shilp par bahut mehnat aur sudhaar kee gunjaaish hai.
sab din hot na ek samaan
kathya bahit maarmik hai.
kavita ke shilp par bahut mehnat aur sudhaar kee gunjaaish hai.
बहुत ही हृदय को छू लेने वाली रचना|
आप बधाई के पात्र हैं ईस रचना के लिए|
मेरी भी कविता पढी जाय| www.pkrocksall.blogspot.com
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