सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Friday, December 9, 2011

स्वयंवर

स्वयंवर
 जो हुआ था अम्बा,अम्बिका,अम्बालिका का
सीता और द्रोपदी का
क्या वास्तव में स्वयंवर था क्या?
अगर था,
तो क्या थी स्वयंवर  की परिभाषा?

स्वेछित  वर चुनने का अधिकार
अथवा
कन्या का नीलामी युक्त प्रदर्शन!
जिसमे इच्छुक उमीदवार
धनबल की अपेक्षा
 लगाते थे अपना बाहू-बल
दिखाते थे अपना पराक्रम और कौशल
और जीत ले जाते थे कन्या को
भले ही उसकी सहमति हो या न हो.

तभी तो उठा लाया था  भीष्म
उन तीन बहनों को
अपने बीमार,नपुंसक भाइयों के लिए
और अर्जुन ने बाँट ली थी याज्ञसेनी
 अपने भाइयों में बराबर


वास्तव में ही अगर
स्वयंवर का अधिकार
नारी को  मिला होता
तो अम्बा की 
आत्म(हत्या) का बोझ
इतिहास न ढोता.
महाविध्वंस्कारी,महाभारत का
 महायुद्ध न होता
और हमारी संस्कृति, हमारा इतिहास
 कुछ और ही होता .
हाँ! कुछ और ही होता .


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Saturday, October 1, 2011

योद्धा

जब भी दिखा हैं मुझे क़ोई योद्धा
नारी के हक़ की लड़ाई लड़ता
उसके आस पास दिखा हैं
एक मजमा उसको समझाता

क़ोई उसको माँ कहता हैं
क़ोई कहता हैं दीदी
क़ोई कहता हैं स्तुत्य
क़ोई कहता हैं सुंदर

और
फिर इन संबोधनों में
वो योधा कहां खो जाता हैं
पता ही नहीं चलता हैं

और
रह जाती हैं बस एक नारी
कविता , कहानी लिखती
दूसरो का ख्याल रखती
तंज और नारियों को
नारीवादी होने का देती

ना जाने कितने योद्धा
कर्मभूमि में कर्म अपने
बदल लेते हैं

और
मजमे के साथ
मजमा बन जीते हैं





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Saturday, September 17, 2011

'मेरी ज़ुबां पर पड़ गये ताले हैं'



ये दुनिया है लगती अभिमानी और मतलबी सी
लेकिन उसी में रहते मुझे प्यार करने वाले हैं
इसीलिये मेरी ज़ुबां पर पड़ गये ताले हैं

मेरी अकल है घुटनों से ज़्यादा नहीं जिनके लिये
इन्हीं के साथ रहते मुझे पलकों पर बिठाने वाले हैं
इसीलिये मेरी ज़ुबां पर पड़ गये ताले हैं

हर नज़र से जहाँ खतरे का अहसास होता है
इन्हीं के बीच रहते मेरे रखवाले हैं
इसीलिये मेरी ज़ुबां पर पड़ गये ताले हैं

दिलकशी है जिनके लिये सजाने की एक चीज़ महज़
इन्हीं के बीच कहीं जिस्म से पहले रूह देखने वाले हैं
इसीलिये मेरी ज़ुबां पर पड़ गये ताले हैं


दिल पाता है अपमान और ठोकरें ही जहाँ
यहीं रहते मुझे हर हाल में अपनाने वाले हैं
इसीलिये मेरी ज़ुबां पर पड़ गये ताले हैं

इन्हीं मेरे बहुत अपनों में मिल गये
मेरी बहनों को सताने वाले हैं
पर मेरी तो ज़ुबाँ पर पड़ गये ताले हैं

इसी दुनिया में रहते हुए, बोलते इसी के खिलाफ़ 
मेरी ज़ुबां पर पड़ते छाले हैं
इसीलिये मेरी ज़ुबां पर पड़ गये ताले हैं 




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Thursday, September 15, 2011

बेटी हूँ

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सुन लो हे श्रेष्ठ जनों 
एक विनती लेकर आई हूँ 
बेटी हूँ इस समाज की 
बेटी सी हीं जिद्द करने आई हूँ 
बंधी हुई संस्कारों में थी 
संकोचों ने मुझे घेरा था 
तोड़ के संकोचों को आज 
तुम्हे जगाने आई हूँ 
बेटी हूँ 
और अपना हक जताने आई हूँ 
नवरात्रि में देवी के पूजन होंगे 
हमेशा की तरह 
फिर से कुवांरी कन्याओं के 
पद वंदन होंगे 
सदियों से प्रथा चली आई 
तुम भी यही करते आये हो 
पर क्या कभी भी 
मुझसे पूछा ?
बेटी तू क्या चाहती है ?
चाहत नहीं 
शैलपुत्री, चंद्रघंटा बनूँ 
ब्रम्ह्चारिणी या दुर्गा हीं कहलाऊं 
चाहत नहीं कि देवी सी पूजी जाऊं 
कुछ हवन पूजन, कुछ जगराते 
और फिर .....
उसी हवन के आग से 
दहेज़ की भट्टी में जल जाऊं 
उन्ही फल मेवों कि तरह 
किसी के भोग विलास  को अर्पित हो जाऊं
चार दिनों की चांदनी सी चमकूँ
और फिर विसर्जीत  कर दी जाऊं
नहीं चाहती
पूजा घर के इक कोने में  सजा दी जाऊं 
असल जिन्दगी कि राहों पर 
मुझको कदम रखने दो 
क्षमताएं हैं मुझमें 
मुझे भी आगे बढ़ने दो 
मत बनाओ इतना सहनशील की 
हर जुल्म चूप करके सह जाऊं 
मत भरो ऐसे संस्कार की 
अहिल्या सी जड़ हो जाऊं 
देवी को पूजो बेशक तुम 
मुझको बेटी रहने दो 
तुम्हारी थाली का 
नेह  निवाला कहीं बेहतर है
आडम्बर के उन फल मेवों से 
कहीं श्रेयष्कर है 
तुम्हारा प्यार, आशीर्वाद 
झूठ मुठ के उस पद वंदन से  
..................................................आलोकिता 

Friday, August 5, 2011

प्रवीण शाह की कविता -- लडकियां

आज के अतिथि कवि हैं प्रवीण शाह और कविता हैं लडकियां पढिये और अपने विचार दीजिये कविता पर भी और लड़कियों की स्थिति पर भी


लड़कियाँ
मैं देखता ही रह जाता हूँ उन्हें
हमेशा ही विस्मित करती हैं मुझे
जब भी देखता हूँ मैं उनको
मिलती हैं हरदम चहचहाती हुई
बिना किसी भी खास बात के
खुलकर हंसती-मुस्कुराती भी

लड़कियाँ
कभी नहीं दिखती वो बेतरतीब
घर से बाहर निकलती हैं सजी-संवरी
हमेशा पहने होती है रंगीन वस्त्र
समेटी चलती हैं खुशियों को हरदम
लगता है छिपा लेती हैं बड़ी खूबी से
हर असुंदरता हर काले पन को

लड़कियाँ
झेलती हैं दुनिया भर के दबाव
अकेले नहीं निकलना बाहर
कॉलोनी में चलो सर नीचा किये
ज्यादा हंसी मजाक शोभा नहीं देता
यह कपड़े शरीफों के लायक नहीं
खबरदार किसी बाहरी से बात की तो

लड़कियाँ
हमेशा ही मानी जाती हैं दोयम
अपने कम लायक भाइयों के सामने
जाने अनजाने कोई न कोई
दिलाता रहता है यह अहसास
तुम इस घर में पल रही जरूर हो
पर हो किसी दूसरे की अमानत ही

लड़कियाँ
ज्यादातर तो नहीं देती दखल कहीं भी
फिर भी होती हैं कुछ दूसरी मिट्टी की
नहीं मानती जो खुद को दोयम
बोलती है खुल कर हर अन्याय पर
लगा देतें हैं लोग लेबल माथे पर उनके
बेहया, कुलटा, घर-उजाड़ू आदि आदि

लड़कियाँ
कहता है हमारा यह समाज
रहना चाहिये हमेशा उन्हें संरक्षा में ही
उनके बचपन में पिता-भाई की
जवानी में यह काम करेगा पति
और बुढ़ापे में बेटों पर होगा दायित्व
कभी नहीं रह पाती हैं वो आजाद

लड़कियाँ
देती हैं अपना पूरा जीवन गुजार
पिता भाईयों पति और बेटों की
उपलब्धियों को ही अपना मान
शायद ही कभी होती है उनके पास
जमीन मकान या कोई संस्थान
जिसे कह सकती हों केवल अपना

लड़कियाँ
उनसे उम्मीद की जाती है हमेशा
दबी जबान में ही बातें करने की
नहीं कर सकती गुस्सा, लगा सकती ठहाके
एक ही भाव उचित माना जाता है उनका
हर छोटे दुख, विपदा तकलीफ पर
किसी पु्रूष के कंधे पर आंसू बहाना

लड़कियाँ
नहीं मानता हमारा यह समाज अभी भी
कि है उन्हें यह अधिकार विरोध जताने का
लड़की होने के, घर से बाहर निकलने के
होटल जाकर खाने के, पसंदीदा कपड़े पहनने के
दिल की बात कहने के, पुरूष का प्रतियोगी होने के
कारण होते दैहिक छेड़छाड़ व अनाचार का

लड़कियाँ
बहुत ही मुश्किल है लड़की होना
आखिर तुम पैदा ही क्यों हुई लड़की
क्या जरूरत थी तुम्हें आवाज उठाने की
तुम भी तो चुप रह ही सकती हो
संस्कृतिवादियों की हाँ में हाँ मिलाती
शर्म-हया से आभूषित औरों की तरह


बस एक ही नुकसान होता तुमको
यह कविता कभी नहीं लिखी जाती...
तुम पर...
मेरे द्वारा...
कभी भी...


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Thursday, July 7, 2011

चिड़ियों के साथ -1

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यह कविता 6 भागों में लिखी गई है प्रस्तुत है पहला भाग--

घर का एकाकी आँगन
और अकेली बैठी मैं
बिखरे हैं
सवाल ही सवाल
जिनमें उलझा
मेरा मन और तन !
अचानक छोटी-सी गौरैया
फुदकती हुई आई
न तो वह सकुचाई
और न शर्माई,
आकर बैठ गई
पास रखे एलबम पर
शायद दे रही थी सहारा
उदास मन को !
मैंने एलबम उठाई
और पलटने लगी
धुँधले अतीत को
खोलती रही
पन्ना-दर-पन्ना
डूबती रही
पुरानी यादों में!
मुझे याद आईं
अपनी दादी
जिनका व्यक्तित्व था
सीधा-सादा
पर अनुशासन था कठोर
उनके हाथों में रहती थी
हमारी मन-पतंग की डोर
जिनके राज्य में
लड़कियों को नहीं थी
पढ़ने-लिखने की
या फिर
खेलने की आज़ादी
जब भी
पढ़ते-लिखते देखतीं
पास आतीं
और समझातीं
'अपने इन अनमोल क्षणों को
मत करो व्यर्थ
क्योंकि
ज़्यादा पढ़ने-लिखने का
बेटी के जीवन में
नहीं है कोई अर्थ,
और फिर पढ़-लिखकर
विलायत तो जाएगी नहीं
घर में ही बैठकर
बस रोटियाँ पकाएगी’
लेकिन मैं चुपके-चुपके
छिप-छिपकर पढ़ती रही
आगे बढ़ती रही
और एक दिन चली गई
विदेश-यात्रा पर
दादी आज नहीं हैं
पर सुन रही होंगी
मेरी बातें
वो अपनी पैनी दृष्टि से
देख रही होंगी
मेरी सौगातें !
चिड़िया उड़ी
और
बैठ गई मुँडेर पर
देने लगी दाना
अपने नन्हे-नन्हे बच्चों को!

डॉ.मीना अग्रवाल

Wednesday, July 6, 2011

घर बनाने का अधिकार नारी का नहीं होता

घर बनाने का अधिकार
नारी का नहीं होता
घर तो केवल पुरुष बनाते हैं
नारी को वहाँ वही लाकर बसाते हैं
जो नारी अपना घर खुद बसाती हैं
उसके चरित्र पर ना जाने कितने
लाछन लगाए जाते हैं

बसना हैं अगर किसी नारी को अकेले
तो बसने नहीं हम देगे
अगर बसायेगे तो हम बसायेगे
चूड़ी, बिंदी , सिंदूर और बिछिये से सजायेगे
जिस दिन हम जायेगे
उस दिन नारी से ये सब भी उतरवा ले जायेगे
हमने दिया हमने लिये इसमे बुरा क्या किया


कोई भी सक्षम किसी का सामान क्यूँ लेगा
और ऐसा समान जिस पर अपना अधिकार ही ना हो
जिस दिन चूड़ी , बिंदी , सिंदूर और बिछिये
पति का पर्याय नहीं रहेगे
उस दिन ख़तम हो जाएगा
सुहागिन से विधवा का सफ़र
लेकिन ऐसा कभी नहीं होगा
क्यूंकि
घर बनाने का अधिकार
नारी का नहीं होता

कमेंट्स के लिये यहाँ जाए
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Tuesday, July 5, 2011

अफ़सोस

[goole se sabhar]



''मैं''

केवल एक देह नहीं

मुझमे भी प्राण हैं .

मैं नहीं भोग की वस्तु

मेरा भी स्वाभिमान .


मेरे नयन मात्र झील

से गहरे नहीं ;

इनमे गहराई है

पुरुष के अंतर्मन को

समझने की ,

मेरे होंठ मात्र फूल की

पंखुडियां नहीं ;ये खुलते

हैं जिह्वा जब बोलती है

भाषा उलझने की .


मेरा ह्रदय मोम सा

कोमल नहीं ;इसमें भावनाओं

का ज्वालामुखी है

धधकता हुआ ,

मेरे पास भी है मस्तिष्क

जिसमे है विचार व् तर्कों

का उपवन

महकता हुआ .


मेरा भी वजूद है

मैं नहीं केवल छाया

पर अफ़सोस पुरुष

इतना बुद्धिमान होकर भी

कभी ये समझ

नहीं पाया .


शिखा कौशिक

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Wednesday, June 29, 2011

सृष्टि में एक नारी,





धरती पर जीवन रचने की भावना जब आई 
तब प्रभु ने औजार छोड़कर तूलिका उठाई.
सेवक ने तब प्रभु से पूछा ऐसे क्या रचोगे,
औजारों का काम आप इससे कैसे करोगे?
बोले प्रभु मुझको है बनानी सृष्टि में एक नारी,
कोमलता के भाव बना न सकती कोई आरी.
पत्थर पर जब मैं हथोडी से वार कई करूंगा,
ऐसे दिल में प्यार के सुन्दर भाव कैसे भरूँगा?
क्षमा करुणा भाव हैं ऐसे उसमे तभी ये आयेंगे,
जब रंगों के संग सिमट कर उसके मन बस जायेंगे.
इसीलिए अपने हाथों में तूलिका को थामा,
पहनाने दे अब मेरी योजना को अमली जामा. 
            शालिनी कौशिक 

Saturday, June 4, 2011

बलात्कार के बाद का बलात्कार .कविता केसर क्यारी ....उषा राठौड़


केसर क्यारी ....उषा राठौड की कविता

बलात्कार के बाद का बलात्कार

मेरी एक नन्ही सी नादानी की इतनी बड़ी सजा ?
डग भरना सिख रही थी,
भटक कर रख दिया था वो कदम
बचपन के आँगन से बाहर ...
जवानी तक तो मै पहुंची भी नहीं थी कि
तुमने झपट्टा मार लिया उस भूखे गिद्ध की मानिंद
नोच लिए मेरे होंसलों के पंख
मरे सीने का तो मांस भी भरा नहीं था कि
तुमको मांसाहारी समझ के छोड़ दूं
टुकड़ों मे काट दिया है तुमने मेरी जिंदगी को
अब ना समेट पाऊँगी
अपनी नन्ही हथेलियों से
मेरे मुंह पर रख के हाथ जितना जोर से दबाया था
काश एक हाथ मेरे गले पे होता तुम्हारा
तो ये अनगिनित निगाहे यूं ना करती आज मेरा
बलात्कार के बाद का बलात्कार .



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Sunday, May 15, 2011

कब तक मेरे नारीत्व को ही मेरी उपलब्धि माना जायगा ??

देश को आजाद हुए , होगये है वर्ष साठ
पर आज भी जब बात होती है बराबरी कि
तो मुझे आगे कर के कहा जाता है
लो ये पुरूस्कार तुम्हारा है
क्योंकी तुम नारी हो ,
महिला हो , प्रोत्साहन कि अधिकारी हो
देने वाले हम है , आगे तुम्हे बढाने वाले भी हम है
मजमा जब जुडेगा , फक्र से हम कह सकेगे
ये पुरूस्कार तो हमारा था
तुम नारी थी , अबला थी , इसलिये तुम को दिया गया
फिर कुछ समय बाद , हमारी भाषा बदल जायेगी
हम ना सही , कोई हम जैसा ही कहेगा
नारियों को पुरूस्कार मिलता नहीं दिया जाता है
दिमाग मे बस एक ही प्रश्न आता
और
कब तक मेरे किये हुए कामो को मेरी उपलब्धि नहीं माना जाएगा ??
Link
और
कब तक मेरे नारीत्व को ही मेरी उपलब्धि माना जायगा ??



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Wednesday, May 11, 2011

माँ

रचना जी,

मैंने "माँ" विषय पर एक कविता लिखी है, अगर नारी की कविता ब्लॉग के लिए यह उपयुक्त हो तो मैं आप सबसे साझा करना चाहूँगा |


माँ

जीवन की रेखा की भांति जिसकी महत्ता होती है,

दुनिया के इस दरश कराती, वह तो माँ ही होती है |


खुद ही सारे कष्ट सहकर भी, संतान को खुशियाँ देती है,

गुरु से गुरुकुल सब वह बनती, वह तो माँ ही होती है |

जननी और यह जन्भूमि तो स्वर्ग से बढ़कर होती है,

पर थोडा अभिमान न करती, वह तो माँ ही होती है |


"माँ" छोटा सा शब्द है लेकिन, व्याख्या विस्तृत होती है,

ममता के चादर में सुलाती, वह तो माँ ही होती है |

संतान के सुख से खुश होती, संतान के गम में रोती है,

निज जीवन निछावर करती, वह तो माँ ही होती है |

शत-शत नमन है उस जीवट को, जो हमको जीवन देती है,

इतना देकर कुछ न चाहती, वह तो माँ ही होती है |


Thank you
Pradip Kumar
(9006757417)



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गृहणी

मैंने उसे देखा है

मौन की ऊँची-ऊँची दीवारों से घिरी

सपाट भावहीन चेहरा लिये वह

चुपचाप गृह कार्य में लगी होती है

उसके खुरदुरे हाथ यंत्रवत कभी

सब्जी काटते दिखाई देते हैं ,

कभी कपड़े निचोड़ते तो

कभी विद्युत् गति से बच्चों की

यूनीफ़ॉर्म पर प्रेस करते !

उसकी सूखी आँखों की झील में

पहले कभी ढेर सारे सपने हुए करते थे ,

वो सपने जिन्हें अपने विवाह के समय

काजल की तरह आँखों में सजाये

बड़ी उमंग लिये अपने पति के साथ

वह इस घर में ले आई थी !

साकार होने से पहले ही वे सपने

आँखों की राह पता नहीं

कब, कहाँ और कैसे बह गये और

उसकी आँखों की झील को सुखा गये

वह जान ही नहीं पाई !

हाँ उन खण्डित सपनों की कुछ किरचें

अभी भी उसकी आंखों में अटकी रह गयी हैं

जिनकी चुभन यदा कदा

उसकी आँखों को गीला कर जाती है !

कस कर बंद किये हुए उसके होंठ

सायास ओढ़ी हुई उसकी खामोशी

की दास्तान सुना जाते हैं ,

जैसे अब उसके पास किसीसे

कहने के लिये कुछ भी नहीं बचा है ,

ना कोई शिकायत, ना कोई उलाहना

ना कोई हसरत, ना ही कोई उम्मीद ,

जैसे उसके मन में सब कुछ

ठहर सा गया है, मर सा गया है !

उसे सिर्फ अपना धर्म निभाना है ,

एक नीरस, शुष्क, मशीनी दिनचर्या ,

चेतना पर चढ़ा कर्तव्यबोध का

एक भारी भरकम लबादा ,

और उसके अशक्त कन्धों पर

अंतहीन दायित्वों का पहाड़ सा बोझ ,

जिन्हें उसे प्यार, प्रोत्साहन, प्रशंसा और

धन्यवाद का एक भी शब्द सुने बिना

होंठों को सिये हुए निरंतर ढोये जाना है ,

ढोये जाना है और बस ढोये जाना है !

यह एक भारतीय गृहणी है जिसकी

अपनी भी कोई इच्छा हो सकती है ,

कोई ज़रूरत हो सकती है ,

कोई अरमान हो सकता है ,

यह कोई नहीं सोचना चाहता !

बस सबको यही शिकायत होती है

कि वह इतनी रूखी क्यों है !


साधना वैद



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Sunday, May 8, 2011

कशमकश



तब नहीं जानती थी मैं 
कि क्यों रोकती है मुझे अम्मी 
दुहाई दे दे कर जमाने की.

क्यों नहीं  खेलने देती मुझे 
हमसायों के संग 
देर तक अकेले में.

अब ,जब मैं 
स्वयं पहुंच गयी हूँ 
अम्मी की उम्र तक. 
और जान गयी हूँ 
उन दुहाइओं  का सच. 

और समझाना चाहती हूँ
अपनी मासूम कली को
तो वो भी
 नहीं  समझ पा रही मेरी बात.

वो भी पूछती है मुझसे
वही सवाल
जो तब 
मैं अपनी अम्मी से पूछती थी.

और अब 
मैं भी जूझती हूँ 
उसी कशमकश से, 
जिससे कभी 
मेरी अम्मी जूझती थी.


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Saturday, April 30, 2011

द्रौपदी


 एक नारी के मन की -
व्यथा हो तुम 
धूलिसात अभिमान  का 
प्रतीक हो तुम 
रिश्तों में छली गयी 
नारी हो तुम 
पर निष्ठुर  भाग्य को धता 
देती हो तुम 
अंतस  की  पीड़ा  का 
आख्यान हो तुम
द्युतक्रीडा के परिणाम का 
व्याख्यान हो तुम 
भक्ति की पराकाष्ठा  को 
छूती हो तुम  
एक अबला की सबल -
गाथा हो तुम 
मर्यादित रिश्तों की 
भाषा हो तुम 
एक सुलझी हुई नारी की 
पहचान हो तुम 

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Tuesday, April 19, 2011

हे पुरुष !


पौरूष तुम्हारा
तुम्हारे चौड़े कंधो में नही
तुम्हारी बांहों के मज़बूत घेरे में है
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारी गंभीर ऊँची आवाज़ में नही
तुम्हारे मीठे स्वर में है
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारे बाहरी कर्म क्षेत्र के सम्मान में नही
घर में सम्मानित होने में भी है
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारे अनगिनत दोस्तों में नही
अपने बच्चों के दोस्त होने में भी है ...
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारे क्रूर होने में नही
तुम्हारे दया से भरपूर स्पर्श में है
पौरूष तुम्हारा
नारी को नर से नीचा दिखाने में नही
उसे मानव सा मान समान समझने में है...
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारे अहम् दिखाने में नही
सागर से विशाल हृदय को दिखाने में है....


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Sunday, April 17, 2011

स्त्रियां
बांटती हैं दर्द
एक दूसरे का
बतियाती हैं अपने दुख
दबी-दबी आवाज़ में
अगल-बगल रखी कुर्सियां भी न सुन लें
फुसफुसाती हैं
आंखों से बरसते बादल को
बार-बार पोंछती हैं
मन ही मन फुंफकारती भी हैं
और फिर जुट जाती हैं
रोज़ के अपने काम में


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Thursday, April 7, 2011

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर ......आनंद द्विवेदी ०८/०३/२०११

आज कि कविता अतिथि कवि कि हैंकवि का नाम हैं आनंद द्विवेदी हैं
कविता का शीर्षक हैं

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर ......


क्रांति कर दिया हमने तो
अरे महिलाओं की बात कर रहा हूँ.....
एकदम बराबरी का दर्ज़ा दे दिया जी
कई कानून बना दिए इसके लिए
अब औरत को दहेज़ के लिए नहीं जलाया जा सकता
कार्यालयों में उसके साथ छेड़खानी नहीं की जा सकती
उसके कहीं आने जाने पर पाबन्दी नहीं है
और तो और ...
हमने सेनाओं में भी उसके लिए द्वार खोल दिया हैं
वगैरह वगैरह!
वो जरा सी अड़चन है नहीं तो
उसे ३० प्रतिशत आरक्षण भी देने वाले हैं 'हम '
दोस्तों!
न जाने क्यूँ मुझे लगता है
कि नाटक कर रहे हैं हम
बढती हुई नारी शक्ति से हतप्रभ हम
उसे किसी न किसी तरीके से
बहलाए रखना चाहते हैं...
उसे उसकी स्वाभाविक स्थिति से
आखिर कब तक रोकेंगे हम ...?
वो जाग गयी है अब
और हमने पुरुष होने का टप्पा बांधा हुआ है आँखों पर,
गुजारिश है कि अब हम
उसे कुछ और न ही दें तो अच्छा है.
वो वैसे ही बहुत कृतज्ञ है हमारी
हर जगह हमारी भूखी निगाहों से बचते हुए
बगल से निकल जाने पर बे वजह धक्का खाते हुए
बसों में ट्रेनों में ,
स्कूल जाते हुए, आफिस जाते हुए
बाज़ार जाते हुए,
"उधर से नहीं उधर सड़क सुनसान है "
जरा सा अँधेरा हो जाये तो ...
ऊपर से सामान्य पर अन्दर से कांपते हुए ...
वो हर समय
हमारी कृतज्ञता महसूस करती है...


अगर सच में हमें कुछ करना है
तो क्यूँ न हम यह करें ...कि
दाता होने का ढोंग छोड़ कर
उनसे कुछ लेने कि कोशिश करें
मन से उनको नेतृत्त्व सौप दें
कर लेने दें उन्हें अपने हिसाब से
अपनी दुनिया का निर्माण
तय कर लेने दें उन्हें अपने कायदे
छू लेने दें उन्हें आसमान
और हम उनके सहयात्री भर रहें ...
दोस्तों !
आइये ईमानदारी से इस विषय में सोंचें !!

----आनंद द्विवेदी ०८/०३/२०११




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Tuesday, April 5, 2011

टुकड़ा टुकड़ा आसमान

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अपने सपनों को नई ऊँचाई देने के लिये
मैंने बड़े जतन से टुकड़ा टुकडा आसमान जोडा था
तुमने परवान चढ़ने से पहले ही मेरे पंख
क्यों कतर दिये माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने भविष्य को खूबसूरत रंगों से चित्रित करने के लिये
मैने क़तरा क़तरा रंगों को संचित कर
एक मोहक तस्वीर बनानी चाही थी
तुमने तस्वीर पूरी होने से पहले ही
उसे पोंछ क्यों डाला माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने जीवन को सुख सौरभ से सुवासित करने के लिये
मैंने ज़र्रा ज़र्रा ज़मीन जोड़
सुगन्धित सुमनों के बीज बोये थे
तुमने उन्हें अंकुरित होने से पहले ही
समूल उखाड़ कर फेंक क्यों दिया माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने नीरस जीवन की शुष्कता को मिटाने के लिये
मैंने बूँद बूँद अमृत जुटा उसे
अभिसिंचित करने की कोशिश की थी
तुमने उस कलश को ही पद प्रहार से
लुढ़का कर गिरा क्यों दिया माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
और अगर हूँ भी तो क्या यह दोष मेरा है ?

साधना वैद

क्योंकि हमें जीना है

हमें नहीं छापनी ख़बरें औरतों पर ज़ुल्म की
उनकी आज़ादी पर अब और चर्चा नहीं करनी
उनकी बेड़ियों की बात नहीं करनी
हमें अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस जैसा कोई दिवस
नहीं मनाना
क्योंकि हमें जीना है
जैसे तुम जीते हो
तुम, जो स्त्री नहीं हो
और आधी आबादी
आधी दुनिया भी नहीं बनना हमें
हम पूरी हैं
जैसे एक पूरी गोल रोटी
क्या तुम आधी रोटी खाते हो बस

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Monday, March 21, 2011

मैं चुप नहीं रह पाऊँगी.

सदियों  सहन करती  आई  हूँ  तुम्हें !
सदियों वहन  भी करती जाऊँगी (कोख  में)  .

पर अगर तुम यह सोचो                
कि यह दहन- प्रक्रिया भी     
 जारी रहेगी 
यूँ ही सदियों तक. 

तो मैं चुप नहीं रह पाऊँगी.

तब सहन को भूल,
वहन को त्याग 
मैं दहन के विरुद्ध 
आवाज़ उठाऊंगी.

हाँ ! 
मैं दहन के विरुद्ध 
आवाज़ उठाऊंगी.


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Saturday, March 19, 2011

खामोशी

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खामोशी की जुबां कभी कभी
कितनी मुखर हो उठती है
मैंने उस कोलाहल को सुना है !
खामोशी की मार कभी कभी
कितनी मारक होती है
मैंने उसके वारों को झेला है !
खामोशी की आँच कभी कभी
कितनी विकराल होती है
मैंने उस ज्वाला में
कई घरों को जलते देखा है !
खामोशी के आँसू कभी कभी
कितने वेगवान हो उठते हैं
मैंने उन आँसुओं की
प्रगल्भ बाढ़ में
ना जाने कितनी
सुन्दर जिंदगियों को
विवश, बेसहारा बहते देखा है !
खामोशी का अहसास कभी कभी
कितना घुटन भरा होता है
मैंने उस भयावह
अनुभूति को खुद पर झेला है !
खामोशी इस तरह खौफनाक
भी हो सकती है
इसका इल्म कहाँ था मुझे !
मुझे इससे डर लगता है
और मैं इस डर की क़ैद से
बाहर निकलना चाहती हूँ ,
कोई अब तो इस खामोशी को तोड़े !

साधना वैद
होली की आप सभी को हार्दिक शुभकामनायें !

Sunday, March 13, 2011

सोच रहा हैं अरुणा शानबाग का बिस्तर

अरुणा
मर तो तुम उस दिन ही गयी थी
जिस दिन एक दरिन्दे ने
तुम्हारा बलात्कार किया था
और तुम्हारे गले को बाँधा था
एक जंजीर से
जो लोग अपने कुत्ते के गले मे नहीं
उसके पट्टे मे बांधते हैं

उस जंजीर ने रोक दिया
तुम्हारे जीवन को वही
उसी पल मे
कैद कर दिया तुम्हारी साँसों को
जो आज भी चल रही हैं

उस जंजीर ने बाँध दिया तुमको एक बिस्तर से
और आज भी ३७ साल से वो बिस्तर ,
मै
तुम्हारा हम सफ़र बना
देख रहा हूँ तुम्हारी जीजिविषा
और सोच रहा हूँ

क्यूँ जीवन ख़तम हो जाने के बाद भी तुम जिन्दा हो ??

तुम जिन्दा हो क्युकी तुमको
रचना हैं एक इतिहास
सबसे लम्बे समय तक
जीवित लाश बन कर
रहने वाली बलात्कार पीड़िता का
उस पीडिता का जिसको
अपनी पीड़ा का कोई
एहसास भी नहीं होता

हो सकता हैं
कल तुम्हारा नाम गिनीस बुक मे
भी आजाये

क्यूँ चल रही हैं सांसे आज भी तुम्हारी
शायद इस लिये क्युकी
रचना हैं एक इतिहास तुम्हे

जहां अधिकार मिले
लोगो को अपनी पीड़ा से मुक्ति पाने का
उस पीड़ा से जो वो महसूस भी नहीं करते



आज लोग कहते हैं
बेचारी बदकिस्मत लड़की के लिये कुछ करो
भूल जाते हैं वो कि
लड़की से वृद्धा का सफ़र
तुमने अपने बिस्तर के साथ
तय कर लिया हैं
काट लिया कहना कुछ ज्यादा बेहतर होता

कुछ लोग जीते जी इतिहास रच जाते हैं
कुछ लोग मर कर इतिहास बनाते हैं
और कुछ लोग जीते जी मार दिये जाते हैं
फिर इतिहास खुद उनसे बनता हैं



एक बिस्तर कि भी पीड़ा होती हैं
कब ख़तम होगी मेरी पीड़ा
अरुणा का बिस्तर सोच रहा हैं
और कामना कर रहा हैं
फिर किसी बिस्तर को न
बनना पडे
किसी बलात्कार पीड़िता
का हमसफ़र



लेकिन
बदकिस्मत एक बलात्कार पीड़िता नहीं होती हैं
बदकिस्मत हैं वो समाज जहां बलात्कार होता हैं

बड़ा बदकिस्मत हैं
ये भारत का समाज
जो बार बार संस्कार कि दुहाई देकर
असंस्कारी ही बना रहता हैं




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Saturday, March 12, 2011

कर्म भाग्य बनाता है. बेटों का भी , और बेटियों का भी

एक वक़्त था,
जब मेरे जन्म पर,
तुमने कहा था,
कुल्क्छिनी,
आते ही ,
भाई को खा गयी.
माँ तेरे ये बात ,
मेरे बाल मन
पर घर कर गए.
मेरा बाल मन रहने लगा ,
अपराध बोध,
पलने लगे कुछ विचार,
क्या करूँ ऐसा?
जिससे तेरे मन से ,
मिटा सकूँ मै,
वो विचार,
जिससे कम कर सकूँ,
तुम्हारे,
मन के अवसाद को.
वक़्त गुजरते गए,
ज़ख्म भी भरते गए,
फिर आया ,
एक ऐसा वक़्त,
जब तुमने ही कहा ,
बेटियां कहाँ पीछे हैं ,
बेटों से.
वो तो दोनों कुल का,
मान बढाती हैं,
माँ ,
शायद तुम्हे भी ,
अहसास हो गया,
क़ि जन्म नहीं ,
कर्म भाग्य बनाता है.
बेटों का भी ,
और बेटियों का भी.
" रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

Wednesday, March 9, 2011

कविता पढिये जवाब खोजिये " नारी "

ये कविता अतिथि कवि कि पोस्ट के तेहत पोस्ट कर रही हूँ । कविता चैतन्य आलोक जी कि हैं
कविता के अंत मै एक प्रश्न हैं जो लाल अक्षरों से हैं । जवाब जितने मिलेगे उतना बढ़िया होगा । मुझे कविता ने छुआ । मेरा जवाब भी हैं पर सबसे अंत मै आयेगा । सो कविता पढिये जवाब खोजिये

नारी




वो मेरी तुमसे पहली पहचान थी
जब मैं जन्मा भी न था
मैं गर्भ में था तुम्हारे
और तुम सहेजे थीं मुझे.

फिर मृत्यु सी पीड़ा सहकर भी
जन्म दिया तुमने मुझे
सासें दीं, दूध दिया, रक्त दिया तुमने मुझे.

और जैसे तुम्हारे नेह की पतवार
लहर लहर ले आयी जीवन में

तुम्हारी उंगली को छूकर
तुमसे भी ऊँचा होकर
एक दिन अचानक
तुमसे अलग हो गया मैं.

और जिस तरह नदी पार हो जाने पर
नाव साथ नहीं चलती
मुझे भी तुम्हारा साथ अच्छा नहीं लगता था
तुम्हारे साथ मैं खुद को दुनिया को बच्चा दिखता था.

बचपन के साथ तुम्हें भी खत्म समझ लिया मैने
और तब तुम मेरे साथ बराबर की होकर आयीं थीं..

बादलों पर चलते
ख्याब हसीं बुनते
हम कितना बतियाते थे चोरी के उन लम्हों में
दुनिया भर की बातें कर जाते थे

मै तुम पर कविता लिखता था
खुद को “पुरूरवा”
तुम्हें “उर्वशी” कहता था.

और जैसा अक्सर होता है
फिर एक रोज़
तुम्हारे “पुरूरवा” को भी ज्ञान प्राप्त हो गया
वो “उर्वशी” का नहीं लक्ष्मी का दास हो गया

मेरी कीमत लगी दहेज़ के बाज़ार में
और बिक गया मैं
ढेर सारे रुपयों के लिये

तुम फिर आयीं मेरे जीवन में
मैने फिर तुम्हारा साथ पाया

वह तुम्हारा समर्पण ही था
जिसने चारदीवारी को घर बना दिया
पर व्यवहार कुशल मैं
सब जान कर भी खामोश रह गया

और उन्मादी रातों में
तुम जब नज़दीक होती
यह “पुरूरवा”, “वात्सायन” बन जाता
खेलता तुम्हारे शरीर से और रह जाता था अछूत
तुम्हारी कोरी भावनाऑ से

सोचता हूं ?
इस पूरी यात्रा में
तुम्हें क्या मिला
क्या मिला

एक लाल
और फिर यही सब .....

और जब तुमने लाली को जना था
तो क्यों रोयीं थीं तुम
क्यों रोयीं थीं???