एक वक़्त था,
जब मेरे जन्म पर,
तुमने कहा था,
कुल्क्छिनी,
आते ही ,
भाई को खा गयी.
माँ तेरे ये बात ,
मेरे बाल मन
पर घर कर गए.
मेरा बाल मन रहने लगा ,
अपराध बोध,
पलने लगे कुछ विचार,
क्या करूँ ऐसा?
जिससे तेरे मन से ,
मिटा सकूँ मै,
वो विचार,
जिससे कम कर सकूँ,
तुम्हारे,
मन के अवसाद को.
वक़्त गुजरते गए,
ज़ख्म भी भरते गए,
फिर आया ,
एक ऐसा वक़्त,
जब तुमने ही कहा ,
बेटियां कहाँ पीछे हैं ,
बेटों से.
वो तो दोनों कुल का,
मान बढाती हैं,
माँ ,
शायद तुम्हे भी ,
अहसास हो गया,
क़ि जन्म नहीं ,
कर्म भाग्य बनाता है.
बेटों का भी ,
और बेटियों का भी.
" रजनी नैय्यर मल्होत्रा "
4 comments:
बहुत ही संवेदनशील रचना..आज बेटियाँ किससे कम हैं..बहुत सुन्दर
marmik abhivyakti.
बिलकुल सही कहा। बहुत भावमय रचना है। शुभकामनायें।
atyant bhawbhini......
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