सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Friday, May 21, 2010

मेरा होना या न होना

आज पढिये मुक्ति कि कविता

मेरा होना या न होना

मैं तभी भली थी
जब नहीं था मालूम मुझे
कि मेरे होने से
कुछ फर्क पड़ता है दुनिया को
कि मेरा होना, नहीं है
सिर्फ औरों के लिए
अपने लिए भी है.
मैं जी रही थी
अपने कड़वे अतीत,
कुछ सुन्दर यादों,
कुछ लिजलिजे अनुभवों के साथ
चल रही थी
सदियों से मेरे लिए बनायी गयी राह पर
बस चल रही थी ...
रास्ते में मिले कुछ अपने जैसे लोग
पढ़ने को मिलीं कुछ किताबें
कुछ बहसें , कुछ तर्क-वितर्क
और अचानक ...
अपने होने का एहसास हुआ
अब ...
मैं परेशान हूँ
हर उस बात से जो
मेरे होने की राह में रुकावट है...
हर वो औरत परेशान है
जो जान चुकी है कि वो है
पर, नहीं हो पा रही है अपनी सी
हर वो किताब ...
हर वो विचार ...
हर वो तर्क ...
दोषी है उन औरतों का
जिन्होंने जान लिया है अपने होने को
कि उन्हें होना कुछ और था
और... कुछ और बना दिया गया ..

10 comments:

Unknown said...

स्त्री विमर्श की सुन्दर कविता...अस्तित्व का अहसास और उसकी सार्थकता....पर सुन्दर सशक्त रचना...........बधाई।

Udan Tashtari said...

सार्थक विचार!

Arvind Mishra said...

मुक्ति की यह पीड़ा अकेले उन्ही की या नारी जाति की नहीं है -मैं तो समझता हूँ यह मेरी भी है -श्याद बहुत हिस्से तक समष्टि की भी है !

दिलीप said...

sahi kaha jab naari jaagti hai use ehsaas hota hai ki wo kis tarah ka jeevan jee rahi thi...par unka kya jinko kabhi jaagne hi nahi dete...

nilesh mathur said...

बहुत सुन्दर रचना!

Sadhana Vaid said...

स्त्री के संघर्ष को बड़ी कुशलता से अभिव्यक्ति देती एक सार्थक रचना !

Asha Lata Saxena said...

औरत के संघर्ष की सार्थक रचना |बधाई
आशा

पवन धीमान said...

Saarthak, sundar rachna.

अनामिका की सदायें ...... said...

मैं परेशान हूँ
हर उस बात से जो
मेरे होने की राह में रुकावट है...
हर वो औरत परेशान है
जो जान चुकी है कि वो है
पर, नहीं हो पा रही है अपनी सी

sadhna ji kshama chaahungi ki aapke blog par itne din baad gayi aur mere rev. par aapka jawab dekha to apke diye is link par aane ki raah mili.

bahut sunder bhavo se aur nari ki ek kashmokash se bhari ye rachna bahut acchhi lagi...lekin uper quote ki gayi panktiyo ke liye mere jawab yahi hai ki jab b koi nayi shuruaat hoti he to virodh swar to uthte hi hai na..sach kaya aaj nari kuchh padh kar khud ko badal rahi he..aur purush pradhan samaj ki pareshani badhna bhi vazib hai. aur inhi sirfiro me se hi kuchh hote he jo aap hi ki in niche ki panktiyo ka karan bante hai..
कि उन्हें होना कुछ और था
और... कुछ और बना दिया गया
jinka maksad hi hota hai ki kuchh aisa bola jaye jo rahi apne path se bhatak jaye.
bas lekhni ko yahi vishram deti hu.aur aage bhi aapki rachnao ka intzar rahega..link bhejti rahiyega pls.

प्रज्ञा पांडेय said...

स्त्री के मानसिक अंतर्द्वंद पर केन्द्रित सुंदर कविता .....जब स्त्री खुद को जान लेती है तब भी उसे दो राहे पर ही खड़े होना है ...