कुछ आपबीती कुछ जगबीती
पुरुष प्रधान भारतीय समाज में नारी को किस तरह से विषम परिस्थितियों में अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष करना पड़ा है । रूढिवादी रस्मों रिवाज़ और परम्पराओं की बेड़ियों से जकड़े होने के बावज़ूद भी जीवनधारा के विरुद्ध प्रवाह में तैरते हुए किस तरह से उसने आधुनिक समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है , अपनी पहचान पुख्ता की है यह कविता स्त्री की हर हाल में जीत हासिल करने की उसी अदम्य जिजिविषा को अभिव्यक्ति देने की छोटी सी कोशिश है ।
तुम क्या जानो
रसोई से बैठक तक,
घर से स्कूल तक,
रामायण से अखबार तक
मैने कितनी आलोचनाओं का ज़हर पिया है
तुम क्या जानो !
करछुल से कलम तक,
बुहारी से ब्रश तक,
दहलीज से दफ्तर तक
मैंने कितने तपते रेगिस्तानों को पार किया है
तुम क्या जानो !
मेंहदी के बूटों से मकानों के नक्शों तक,
रोटी पर घूमते बेलन से कम्प्यूटर के बटन तक,
बच्चों के गड़ूलों से हवाई जहाज़ की कॉकपिट तक
मैंने कितनी चुनौतियों का सामना किया है
तुम क्या जानो !
जच्चा सोहर से जाज़ तक,
बन्ना बन्नी से पॉप तक,
कत्थक से रॉक तक मैंने कितनी वर्जनाओं के थपेड़ों को झेला है
तुम क्या जानो !
सड़ी गली परम्पराओं को तोड़ने के लिये,
बेजान रस्मों को उखाड़ फेंकने के लिये,
निषेधाज्ञा में तनी रूढ़ियों की उँगली मरोड़ने के लिये
मैने कितने सुलगते ज्वालामुखियों की तपिश को बर्दाश्त किया है
तुम क्या जानो !
आज चुनौतियों की उस आँच में तप कर,
प्रतियोगिताओं की कसौटी पर घिस कर, निखर कर,
कंचन सी, कुंदन सी अपरूप दपदपाती
मैं खड़ी हूँ तुम्हारे सामने
अजेय, अपराजेय, दिक्विजयी !
मुझे इस रूप में भी तुम जान लो
पहचान लो !
साधना वैद
© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
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11 comments:
सड़ी गली परम्पराओं को तोड़ने के लिये,
बेजान रस्मों को उखाड़ फेंकने के लिये,
निषेधाज्ञा में तनी रूढ़ियों की उँगली मरोड़ने के लिये
मैने कितने सुलगते ज्वालामुखियों की तपिश को बर्दाश्त किया है
तुम क्या जानो !
bikul sahii kehaa haen aap ne
kavita bahut sudar haen aur ek ek shabd yatharth haen
साधना जी क्या जबर सच्चाई बयान की है । यही कटु सत्य है ।
bahut khub
nari ki sachai pesh ki he apa ne
acha he
सचमुच नारी ने इन वर्जनाओं को तोड़ने और अपना रास्ता बनाने के लिए जैसी कठिनाइयों का सामना किया है, उसको कोई नहीं समझ सकता। इसे केवल वहीं समझ सकती है जिसने इसे भोगा और सहा है। जिसने कुछ नया करने की हिम्मत दिखायी है। कुछ बनने के बाद महिमामंडित करने वाले तो कई मिलते है, लेकिन यहां तक पहुंचने में आयी मुश्किलों का मर्म वहीं समझ सकता है जिसने इसका सामना किया है। इस सुंदर कविता के लिए आभार।
आज चुनौतियों की उस आँच में तप कर,
प्रतियोगिताओं की कसौटी पर घिस कर, निखर कर,
कंचन सी, कुंदन सी अपरूप दपदपाती
मैं खड़ी हूँ तुम्हारे सामने
अजेय, अपराजेय, दिक्विजयी !
मुझे इस रूप में भी तुम जान लो
पहचान लो !
शानदार रचना है... बधाई स्वीकार करें...
नारी के संघर्ष क्षमता और उसके चुनौतियों को दर्शाती इस सार्थक कविता के लिए आभार /
Wow... !!!
:)
behatareen kavita !
sooo meaningful and awesome !
"tum kya jano!"
प्रभावशाली रचना...
कुछ कहने की चाह हुई...
तुम क्या जानो...
तुम्हारे इसी दपदपाते रूप को देख कर कमज़ोर् तुम्हारे सामने ठहर नहीं पाते ....
तुम क्या जानो.... .देखने वाले सब जानते हैं...वे इस तेज़ को सह नहीं पाते...
मत कहो कुछ.....
prabhavshali rachna....achcha hai dheere dheere naari aage badh rahi hai...par dekhna ye hai...purush kab tak ye jhel pata hai...
बहुत ही शानदार और जानदार प्रस्तुति!सच में हम नहीं जान सकते कि कोंन क्या-क्या संघर्ष कर रहा है,जब तक तो बिलकुल नहीं तब तक कि हम स्वयं ही उस दौर से ना गुजरे!
कुंवर जी,
सारी कसौटियां पर खरी उतरी ये नारी अब भी पुरुषों के गले नहीं उतर पा रही है. जब कि आज भी वो बुहारी से कलम और कंप्यूटर के की बोर्ड तक उसी कुशलता से साथ निभा रही है. कितनी अग्नि परीक्षायों से गुजरना पड़ता है उसको अपने को सिद्ध करने के लिए . अगर फिर भी आँखकी किरकिरी बन गयी तो निकल कर फ़ेंक दी जाती है , घर से या फिर कहो तो दुनियाँ से.
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