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अब खुले वातायनो से
सुखद, मन्द, सुरभित पवन के
मादक झोंके नहीं आते,
अंतर्मन की कालिमा उसमें मिल
उसे प्रदूषित कर जाती है।
अब नयनों से विशुद्ध करुणा जनित
पवित्र जल की निर्मल धारा नहीं बहती,
पुण्य सलिला गंगा की तरह
उसमें भी घृणा के विष की पंकिल धारा
साथ-साथ बहने लगी है।
अब व्यथित पीड़ित अवसन्न हृदय से
केवल ममता भरे आशीर्वचन और प्रार्थना
के स्वर ही उच्छवसित नहीं होते,
कम्पित अधरों से उलाहनों,
आरोपों, प्रत्यारोपों की
प्रतिध्वनि भी झंकृत होने लगी है।
अब नीरव, उदास, अनमनी संध्याओं में
अवसाद का अंधकार मन में समा कर
उसे शिथिल, बोझिल,
निर्जीव सा ही नहीं कर जाता,
उसमें अब आक्रोश की आँच भी
नज़र आने लगी है
जो उसे धीमे-धीमे सुलगा कर
प्रज्वलित कर जाती है।
लेकिन कैसी है यह आँच
जो मेरे मन को मथ कर
उद्वेलित कर जाती है?
कैसा है यह प्रकाश
जिसके आलोक में मैं
अपने सारे स्वप्नों के साथ-साथ
अपनी समस्त कोमलता,
अपनी मानवता,
अपनी चेतना, अपनी आत्मा,
अपना अंत:करण
और अपने सर्वांग को
धू-धू कर जलता देख रही हूँ
नि:शब्द, अवाक, चुपचाप !
साधना वैद
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
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3 comments:
another good poem
बहुत सुन्दर!
घुघूती बासूती
अब व्यथित पीड़ित अवसन्न हृदय से
केवल ममता भरे आशीर्वचन और प्रार्थना
के स्वर ही उच्छवसित नहीं होते,
कम्पित अधरों से उलाहनों,
आरोपों, प्रत्यारोपों की
प्रतिध्वनि भी झंकृत होने लगी है।
..Vartmaan haalaton ka sughad bhavpurn chitran ke liye aabhar....
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